Gyan Ganga: भगवान श्रीराम की अलौकिक लीला को देख कर कैलाशपति का हृदय बड़ा आनंदित हुआ

Lord Rama Lord Shiva
Prabhasakshi
सुखी भारती । Apr 25 2024 2:07PM

देखा जाये, तो अगस्त्य मुनि जी के आश्रम में केवल भगवान शंकर जी ही नहीं रहे थे, अपितु श्रीसती जी भी रही थी। लेकिन गोस्वामी जी ने केवल भगवान शंकर जी के लिए यह शब्द कहे, कि मुनि के आश्रम में कैलाशपति रहे। गोस्वामी जी एक बार भी श्रीसती जी का नाम नहीं लेते।

विगत अंक में हमने देखा, कि श्रीसती जी अगस्त्य मुनि जी के आश्रम में, भगवान शंकर जी के साथ, कथा श्रवण करने गई हैं। लेकिन उनका मन कथा रसपान में किंचित भी नहीं रमता है। जिसे चलते, गोस्वामी जी ने एक चौपाई कही, कि कुछ दिन भगवान शंकर अगस्त्य मुनि जी के आश्रम में रहे। जिसके पश्चात वे वापिस कैलाश लौट गये-

‘कहत सुनत रघुपति गुन गाथा।

कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा।।’

देखा जाये, तो अगस्त्य मुनि जी के आश्रम में केवल भगवान शंकर जी ही नहीं रहे थे, अपितु श्रीसती जी भी रही थी। लेकिन गोस्वामी जी ने केवल भगवान शंकर जी के लिए यह शब्द कहे, कि मुनि के आश्रम में कैलाशपति रहे। गोस्वामी जी एक बार भी श्रीसती जी का नाम नहीं लेते। जबकि श्रीसती जी भी तो भोलेनाथ के साथ, उतने ही दिन मुनि के आश्रम में रही, जितने दिन स्वयं भगवान शंकर जी रहे। प्रश्न उठता है, कि गोस्वामी जी ने श्रीसती जी का नाम क्यों नहीं लिया। कारण स्पष्ट है, कि गोस्वामी जी कथा में ऐसे लोगों की उपस्थिती को मान्यता ही नहीं दे रहे, जो लोग कथा में तन से तो उपस्थित होते हैं, लेकिन मन से कहीं बाहर घूम रहे होते हैं। श्रीसती जी आश्रम में गई इसीलिए थी, कि मुझे मुनि के यहाँ कथा श्रवण करनी है। लेकिन मन में संशय आने की वजह से वे कथा सुन ही नहीं पा रही हैं। उल्टे मन में तर्क वितर्क करने में ही समय व्यतीत कर रही है। इसीलिए गोस्वामी जी ने कहा, कि जब श्रीसती जी मुनि के आश्रम के लिए, भगवान शंकर जी के साथ निकली थी, तो प्रभु के साथ साक्षात जगत जगनी जा रही थी। लेकिन मन को संशय में मलिन करके जब वे मुनि के आश्रम से निकलती हैं, तो गोस्वामी जी कहते हैं, कि अब भोलेनाथ के साथ जगत जननी नहीं, अपितु दक्षकुमारी जी आ रही हैं-

‘मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी।

चले भवन सँग दच्छकुमारी।।’

आश्रम से वापिस आते समय, दक्षकुमारी जी के मन में गहन अशाँति है। लेकिन वहीं, भगवान शंकर जी के मन में श्रीराम जी की कथा श्रवण करके अति उत्साह व प्रेम उमड़ रहा है। उनके नयन प्रभु दर्शन हेतु तड़प रहे हैं।

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समय का सुंदर संयोग देखिए, उसी घड़ी श्रीराम जी भी वन में अपनी नर लीला कर रहे हैं। प्रभु की लीला अनुसार, रावण श्रीसीता जी का अपहरण करके ले गया है। श्रीराम जी एवं श्रीलक्ष्मण जी वन में माता सीता जी की खोज में, एक सामान्य जीव की भाँति भटक रहे हैं। श्रीसीता जी के वियोग में श्रीराम जी में ऐसे व्याकुल से प्रतीत हो रहे हैं, मानों वे श्रीसीता जी के बिरह में अपने प्राण ही त्याग देंगे। परम आश्चर्य देखिए, जिन्हें स्वप्न में भी संयोग वियोग नहीं है, उन्हें साक्षात बिरह में दुखी देखा जा सकता था-

‘बिरह बिकल नर अव रघुराई।

खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई।।

कबहूँ जोग बियोग न जाकें।

देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें।।’

इसी समय, भगवान श्रीराम जी की ऐसी अलौकिक लीला को देख कर, कैलाशपति के हृदय में बड़ा भारी आनंद हुआ। उन शोभा के समुद्र श्रीराम जी को, शिवजी ने नेत्र भरकर देखा। किंतु प्रभु की नर लीला में कोई विघन न हो, इसलिए उचित अवसर न जान कर, उन्होंने प्रभु के पास जाकर कोई परिचय नहीं किया।

गोस्वामी जी कह रहे हैं, कि श्रीराम जी एक सामान्य नर की भाँति ही अपनी पत्नि के वियोग में रोने की लीला कर रहे हैं। जिसे देख भगवान शंकर के हृदय में बड़ा भारी आनंद उत्पन्न होता है। सोचने वाली बात है, कि ऐसी स्थिति में अगर हम किसी व्यक्ति को देख लें, और कहें, कि हमें अमुक व्यक्ति को पत्नी वियोग में बिलखता देख कर, बड़ा भारी आनंद महसूस हो रहा है, तो निश्चित ही आप प्रशंसा से पात्र नहीं कहलायेंगे। आपको लोग हेय दृष्टि से देखेंगे। संसार कहेगा, कि कैसा दुष्ट व्यक्ति है, एक दुखी व्यक्ति के दुख पर प्रसन्न हो रहा है। ऐसे में, भगवान शंकर को भी संसार के व्यवहार के अनुसार, श्रीराम जी को यूँ व्याकुल देख कर दुखी ही होना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं होता है। उल्टा भगवान शंकर का हृदय तो आनंद से भर जाता है। कारण कि उन्हें पता है, कि श्रीराम जी को वास्तव में कोई दुख नहीं है। वे तो मोह-माया, संयोग-वियोग से सदा से ही परे हैं। फिर भला उन्हें कैसा दुख? उल्टा भगवान शंकर तो श्रीराम जी की इस लीला की वाहवाही कर रहे हैं। क्योंकि जैसा दुख, श्रीराम जी, जानकी के वियोग पर प्रगट कर रहे हैं, वैसे दुख का प्रगटीकरण तो कोई संसारिक व्यक्ति भी तब नहीं करता, जब उसकी पत्नी सच में खोई होती है।

प्रभु श्रीराम जी को अपने समक्ष देख, भगवान शंकर जी ने दूर से ही प्रणाम किया, और यह शब्द कहे-

‘जय सच्चिदानंद जग पावन।’

श्रीसती जी ने जब भगवान शंकर जी को, श्रीराम जी के चरणों में ऐसे ‘जय सच्चिदानंद’ कहते हुए व प्रणाम करते हुए देखा, तो वे प्रसन्न नहीं हुई, बल्कि श्रीसती जी फिर एक नये द्वंद्व में फँस गई। क्या था वह नया चक्रव्यूह, जिसमें श्रीसती जी धँसती चली गई, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।

- सुखी भारती

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