Gyan Ganga: महादेव का बड़ा खुलासा: रावण कैसे बना जलंधर राक्षस का अगला जन्म

वृंदा का पतिव्रत धर्म एक ज्वाला की भाँति था, जो सत्य, समर्पण और एकनिष्ठता से प्रज्वलित होती थी। उसी अग्नि से जलंधर का तेज अखंड बना रहता। देवगण विवश हो उठे। एक ओर धर्म का संरक्षण था, दूसरी ओर अधर्म का प्रकोप।
भगवान शंकर के श्रीमुख से प्रवाहित पावन श्रीरामकथा का अमृतरस केवल माता पार्वती जी ही नहीं, अपितु वहाँ उपस्थित समस्त देवगण, सिद्ध-साधक, वृक्ष, लताएँ, पुष्प और पवन तक भी श्रवण कर रहे थे। सम्पूर्ण कैलाश पर्वत मानो उस दिव्य वाणी से पुलकित हो उठा था।
जय-विजय की कथा के उपरांत भगवान शंकर ने एक अन्य गूढ़ प्रसंग का उद्घाटन किया— वह थी जलंधर राक्षस की कथा, जो केवल पराक्रम ही नहीं, अपितु पर्वत समान अहंकार का प्रतीक भी थी।
महादेव बोले— “हे गिरिजे! सुनो उस असुर की लीला, जिसका बल अपार था, और जिसका अंत स्वयं मुझसे भी न हो सका था।”
कथा आरंभ करते हुए शिवजी ने कहा —
“एक कल्प सुर देखि दुःखारे,
जलंधर सन सब हारे।
संभु कीन्ह संग्राम अपारा,
दनुज महाबल मरइ न मारा॥”
वह असुर समुद्र मंथन के समय प्रकट हुआ था। समुद्र के तेज, रत्न और जल-ऊर्जा का संयोग उसके अंग-अंग में था। इसीलिए उसका नाम जलंधर पड़ा — अर्थात् “जल से उत्पन्न, जल में स्थित, और जल-सा अजेय।”
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उसका तेज इतना प्रखर था कि जब वह रणभूमि में उतरता, तब त्रैलोक्य थर्रा उठता। देवता एक-एक कर हार मानते गए, और अंततः भगवान शंकर स्वयं रणभूमि में उतरे। किंतु आश्चर्य! वह शिवशंकर से भी परास्त न हुआ।
देवी पार्वती विस्मित हुईं — “प्रभु! ऐसा कैसे हुआ कि आप स्वयं भी उस राक्षस को न मार सके?”
शिव बोले — “देवि! उसके पीछे उसका पतिव्रत धर्म रक्षा कर रहा है। उसकी धर्मपत्नी वृंदा ऐसी पतिव्रता है, जिसके संकल्प में स्वयं सृष्टिकर्ता की शक्ति निहित है। जब वह अपने पति के मंगल का चिंतन करती है, तब उसके प्रत्येक विचार को साक्षात् भगवान पूर्ण करते हैं।”
वृंदा का पतिव्रत धर्म एक ज्वाला की भाँति था, जो सत्य, समर्पण और एकनिष्ठता से प्रज्वलित होती थी। उसी अग्नि से जलंधर का तेज अखंड बना रहता। देवगण विवश हो उठे। एक ओर धर्म का संरक्षण था, दूसरी ओर अधर्म का प्रकोप। भगवान शंकर ने जब देखा कि देवता, ऋषि, मानव सब पीड़ित हो रहे हैं, तब वे मौन हो गए। उसी क्षण भगवान विष्णु प्रकट हुए और बोले —
“देवेश! अब लोक-कल्याण के लिए एकमात्र उपाय यही है कि वृंदा के पतिव्रत का आधार ही खंडित किया जाए।”
यह सुन माता पार्वती ने कहा— “प्रभु! क्या किसी पतिव्रता के धर्म को तोड़ना उचित है?”
तब विष्णु ने उत्तर दिया —
“देवि! जब कोई गुण, जो प्रारंभ में दैवीय था, यदि अधर्म का पोषक बन जाए, तो उसका नाश भी धर्म ही कहलाता है। जैसे मधुमेह से पीड़ित मनुष्य के लिए मिठाई अमृत नहीं, विष समान हो जाती है। उसका त्याग करना अत्याचार नहीं, कल्याण है।”
इसी नीति के अनुसार भगवान विष्णु ने जलंधर का रूप धारण किया और वृंदा के गृह पहुँचे। वृंदा ने उन्हें अपने पति समझकर निष्ठापूर्वक पूजन किया, उनके चरण धोए, और मन, वचन, कर्म से अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया।
परंतु जब भगवान ने अपने वास्तविक स्वरूप का दर्शन कराया, तो वृंदा का हृदय स्तब्ध हो उठा। वह क्रोध, वेदना और अपार लज्जा से भर उठी। अश्रुओं से कंपित स्वर में बोली —
“प्रभु! आपने मेरे पतिव्रत धर्म को भंग किया है। मेरे मन में जो भाव अपने पति के प्रति उठने चाहिए थे, वे किसी अन्य के प्रति उठ गए — चाहे आप स्वयं ईश्वर ही क्यों न हों। अब मेरा जीवन व्यर्थ है। मैं अपने प्राण त्यागती हूँ, परंतु आपको शाप देती हूँ —
‘हे विष्णु! जैसे मैं आपके सम्मुख पत्थरवत् भाव में स्थिर रही, वैसे ही आप भी शिलारूप धारण करें।’”
भगवान विष्णु ने उस शाप को सादर स्वीकार किया, क्योंकि उन्होंने जो किया, वह लोक कल्याण के लिए था। वृंदा के देह त्याग के उपरांत वह तुलसी के रूप में प्रकट हुईं — शीतल, पवित्र और मंगलकारी।
भगवान विष्णु ने करुणा से कहा —
“हे तुलसी! तुम्हारा पतिव्रत धर्म अमर रहेगा। तुम मेरे व्रत, पूजन और विवाह में अनिवार्य रहोगी। तुम्हारे बिना मेरा पूजन अधूरा कहलाएगा। युगों-युगों तक प्रत्येक भक्त तुम्हें तुलसी मैया कहकर पूजेगा।”
वृंदा का पतिव्रत धर्म भंग होते ही जलंधर की शक्ति क्षीण हो गई। उसका तेज म्लान पड़ गया। उस समय भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल का प्रहार किया और उसी क्षण जलंधर का अंत हो गया।
शिव बोले —
“देवि! वही जलंधर, अपने कर्मफलवश, अगले जन्म में रावण बनकर प्रकट हुआ— अहंकारी, विद्वान, परंतु पतन के मार्ग पर अग्रसर। उसके वध के लिए भगवान विष्णु ने श्रीराम रूप में अवतार लिया।”
“तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाणा,
कौतुकनिधि कृपाल भगवाना।
तहाँ जलंधर रावन भयऊ,
रण हति राम परम पद दयऊ॥”
इस प्रकार यह कथा केवल राक्षस-वध की नहीं, बल्कि धर्म और अधर्म के सूक्ष्म संतुलन की कथा है। यह बताती है कि जब धर्म का आवरण अधर्म की रक्षा करने लगे, तब स्वयं भगवान को हस्तक्षेप करना पड़ता है। वृंदा का पतिव्रत भंग हुआ, परंतु वह तुलसी बनकर सदा-सदा के लिए अमर हो गईं।
आज भी हर भक्त के आँगन में तुलसी का पौधा उसी सत्य, त्याग और पतिव्रत धर्म का प्रतीक बनकर पवित्रता की सुवास बिखेरता है।
क्रमशः...
- सुखी भारती
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