Gyan Ganga: पाठशाला में परीक्षा लेने का मूलभूत अधिकार केवल गुरुजनों को ही होता है

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सुखी भारती । May 16 2024 4:41PM

श्रीसती जी के कदम, प्रभु श्रीराम जी की दिशा में बढ़ तो रहे हैं, लेकिन श्रीसती जी बड़ी उलझन में हैं, कि श्रीराम जी की परीक्षा मैं किस प्रकार से लूँ? कौन सा उपाय उत्तम रहेगा, और कोण सा गौण। उनके मन में भ्रमित विचारों का एक बवंड़र मचा हुआ है।

श्रीसती जी को, जब भगवान शंकर जी ने यह कहा, कि ‘हे सती आप का मन स्थिर नहीं हो रहा, तो आप परीक्षा लेकर देख लो।’ तो श्रीसती जी के मुख से कोई प्रतिक्रिया प्रस्फुटित ही नहीं हुई। श्रीसती जी ने देखा, कि भगवान शंकर जी तो वटवृक्ष के नीचे बैठ गये हैं, और मुझे परीक्षा लेने की आज्ञा दे दी है। तो क्यों अविलम्भ परीक्षा ले ही लूँ? यह सोच कर, श्रीसती जी के चरण वहाँ एक क्षण भी न ठहरे, और वे श्रीराम जी की परीक्षा लेने चल निकली।

माया का भी कैसा प्रभाव है---। जो श्रीसती जी, भगवान की परछाई बन कर, जीवन भर उनके साथ चलने के संकल्प में बँधी थी, वही श्रीसती जी भगवान शंकर के बिना ही, अपनी सबसे कठिन यात्रा पर निकल पड़ी थी। यात्रा तो वैसे भगवान की दिशा में ही थी, लेकिन उद्देश्य भगवान को नमन करना नहीं, अपितु भगवान की परीक्षा लेना था। यहाँ यह शब्द बड़े विचित्र से प्रतीत होते हैं। कारण कि श्रीसती जी संसार में वह कार्य करने निकली थी, जो कार्य का प्रभु ने विधान ही नहीं बनाया था। क्योंकि जैसे सूर्य को दीपक नहीं दिखाया जा सकता, सागर को पानी के लौटे की धौंस कैसी, ठीक वैसे ही कोई जीव, अपने प्रभु या भगवान की परीक्षा ले, यह नीतिसंगत था ही नहीं। हम पाठशालायों में भी, बचपन से देखते आ रहे हैं, कि कभी भी, किसी भी पाठशाला में परीक्षा लेने का मूलभूत अधिकार केवल गुरु जनों को ही होता है। वे ही प्रश्न पत्र बांटते हैं, और विद्यार्थी जन उन प्रश्नों का उत्तर, प्रदान की गई पत्रिका पर लिखते हैं। क्या कभी देखा है, कि गुरुजन तो पंक्ति बनाकर नीचे बैठे हैं, और विद्यार्थी जन उन्हें उन्हें उपदेश दे रहे हैं? श्रीसती जी को भी ऐसे ही नियम का अनुसरण करना चाहिए था, कि वह किसी अबोध व अज्ञानी बालक की भाँति श्रीराम जी के समक्ष जाती, और श्रीराम उनके बिखरे मन का समाधान करते।

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श्रीसती जी के कदम, प्रभु श्रीराम जी की दिशा में बढ़ तो रहे हैं, लेकिन श्रीसती जी बड़ी उलझन में हैं, कि श्रीराम जी की परीक्षा मैं किस प्रकार से लूँ? कौन सा उपाय उत्तम रहेगा, और कोण सा गौण। उनके मन में भ्रमित विचारों का एक बवंड़र मचा हुआ है। कभी वे कोई युक्ति अपनाने का संकल्प लेती हैं, तो कभी उसी बनाई युक्ति को क्रियावंत न करने का विचार कर, फिर से कोई नई युक्ति की सृजना में लग जाती हैं।

अंत में श्रीसती जी के मन में एक युक्ति ने कील ठोक ही दिया। श्रीसती जी ने सोचा, कि क्यों न मैं जगत जननी श्रीसीता जी का ही रुप धारण कर लूँ? इससे होगा क्या, कि अगर श्रीराम जी एक साधारण मानव होंगे, तो मुझे श्रीसीता जी समझ कर, झट मुझसे आलिंगन करने को तत्पर हो उठेंगे। इससे सिद्ध हो जायेगा, कि वे कोई भगवान वगैरह नहीं हैं। लेकिन अगर भूले से भी, वे भगवान होंगे, तो मुझे पहचान ही लेंगे, कि मैं भोलेनाथ की पत्नि सती हुँ-

‘पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रुप।

आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप।।’

श्रीसती जी ने, माता सीता जी का रुप धारण कर लिआ। वे देख रही हैं, कि श्रीराम जी पत्नी वियोग में अतिअंत व्याकुल हैं। एक बार तो श्रीसती जी के मन में फिर से आया, कि मैं नाहक ही इनकी परीक्षा लेने चली आई। क्योंकि इनकी दयानीय स्थिति देख कर, यह तो पहली दृष्टि में ही स्पष्ट हो गया है, कि श्रीराम जी कोई भगवान नहीं हो सकते। वे निश्चित ही एक साधारण राज कुमार हैं। क्या भगवान भी कभी मोहग्रस्ति हो, ऐसे पीड़ितों की भाँति तड़प सकता है, जैसे कि मेरे समक्ष श्रीराम तड़प रहे हैं।

श्रीसती जी ने देखा, कि श्रीराम जी का तो मेरी ओर ध्यान ही नहीं जा रहा। लगता है, वे होश में नहीं हैं। देखो तो वो कैसे छाती पीट-पीट कर रो रहे हैं। मानों अभी उनके प्राण निकल जायेंगे। मैं स्वयं ही उनके समक्ष व समीप चली जाती हुँ। मुझे देखते ही उनके प्राणों में प्राण लौट आयेंगे।

श्रीसती जी ने ठीक ऐसे ही किया। वे श्रीराम जी के ठीक सामने, वहाँ जा खड़ी हुई, जिस ओर श्रीराम आगे बढ़ रहे थे। श्रीराम जी के नेत्रें में अश्रुयों की झड़ी लगी हुई थी। वे पत्तों-पत्तों, टहनियों-टहनियों से पूछ रहे थे, कि बताओ मेरी सीता कहाँ है? हे भँवरो हे! पक्षियो, तुम्हीं बता दो, कि जनक नंदनी कहाँ है?

यह देख श्रीसती जी के मन में आया, कि अरे वाह! पत्नी के वियोग में कोई ऐसे भी बाँवला हो सकता है, यह तो मुझे पता ही नहीं था। लेकिन कोई नहीं, हम अभी इनके कष्ट का निवारण किये देते हैं। क्या श्रीराम जी, श्रीसती जी को पत्नी रुप में देखते हैं? उनसे आलिंगन करते हैं, अथवा वे श्रीसती जी को पहचान लेते हैं। जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।

- सुखी भारती

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