Gyan Ganga: सिंहिका का वध करके श्रीहनुमानजी ने समाज को क्या संदेश दिया?

Hanumanji
सुखी भारती । Nov 9 2021 5:38PM

श्रीहनुमान जी को भी क्या पड़ी है कि सिंहिका का वध करते। श्रीहनुमान जी ने यह नहीं देखा, कि मेरे समक्ष एक नारी है। अपितु यह देखा कि नारी के वेश में दैविक गुणों को धारण किये हुए, कोई देवी है अथवा अपराधी। देवी अगर पूज्य है, तो अपराधी निःसंदेह दण्ड का पात्र होता है।

विगत अंक में हमने देखा कि श्रीहनुमान जी सुरसा को तो प्रणाम करके आते हैं, और सिंहिका का वध करते हैं। कारण क्या है? अगर हम यह कहें, कि सुरसा को श्रीहनुमंत लाल इसलिए प्रणाम करते हैं, क्योंकि वे नारी जाति का सम्मान करते हैं, इसीलिए सुरसा को कुछ नहीं कहा। तो प्रश्न उठता है कि क्या सिंहिका नारी जाति में नहीं आती थी? जो उसे दण्ड दिया और सुरसा को सम्मान? फिर तो इसका अर्थ हुआ कि श्रीहनुमान जी के न्याय में भी पक्षपात है। एक नारी वे पूजनीय मान रहे हैं, दूसरी को निंदनीय श्रेणी में ला खड़ा कर रहे हैं। निःसंदेह श्रीहनुमान जी की न्याय प्रणाली में कण भर भी, न तो खोट है, और न ही कोई कमी, अपितु समाज को समझाने के लिए उनकी यह लीला, एक सुंदर आदर्श व प्रेरणा है। हमने पहले भी जाना कि सुरसा श्रीहनुमान जी को कोई गिराने के भाव से नहीं आई थी। अपितु श्रीहनुमान जी की यात्रा की शुभ चिंतक थी। तभी तो सुरसा ने श्रीहनुमान जी को अनेकों शुभ आशीर्वाद दिये। और कामना की, कि श्रीहनुमान जी की यह पावन यात्रा सुखद व सुंदर परिणाम लिए सम्पन्न हो। जबकि सिंहिका के संदर्भ में ऐसा नहीं है। क्योंकि सिंहिका तो चाहती ही यह है, कि कोई ऊँचा उड़े ही न। कोई उड़ता भी है, तो वह उसे पकड़कर नीचे गिरा देती है। सिंहिका यहीं नहीं रुकती। जीव को नीचे गिरा, फिर वह उसे अपना भोजन बनाने में भी गुरेज नहीं करती। कहने का तात्पर्य कि क्या कोई नारी इस स्तर भी गिर सकती है, कि वह किसी को गिरा भी, फिर उसे खा भी जाये। तो निःसंदेह ऐसे चरित्र को धारण करने वाली नारी तो नारी जाति पर ही कलंक है। कारण कि नारी तो देवी स्वरूप होती है। वह ममता का पुँज व स्रोत होती है। उसे देवी रूप कहा ही इसलिए गया है, क्योंकि वह जीव को ऊपर उठाती है, गोद में रख कर जीवन, प्रेरणा व दुलार प्रदान करती है। उसके स्नेह व प्रेम के आगे तो दुनिया के सारे सुख, सूखे प्रतीत होते हैं। और वही नारी जब अपने इन दैवीय गुणों को त्याग, असुरता को धारण कर ले। पाप व अधर्म का अपावन ठिकाना बन जाये। तो ऐसी नारी का समाज के लिए अस्तित्व में होना, मानो ऐसे है, जैसे दूध के पात्र में खटाई की बूँदों का होना। अगर समाज दूध को यूँ खटाई के सुपुर्द कर सकता है।

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तो श्रीहनुमान जी को भी क्या पड़ी है कि सिंहिका का वध करते। श्रीहनुमान जी ने यह नहीं देखा, कि मेरे समक्ष एक नारी है। अपितु यह देखा कि नारी के वेश में दैविक गुणों को धारण किये हुए, कोई देवी है अथवा अपराधी। देवी अगर पूज्य है, तो अपराधी निःसंदेह दण्ड का पात्र होता है। और श्रीहनुमान जी ने अंततः सिंहिका को दण्ड देकर ही इस अध्याय का अंत किया। विवेक बुद्धि या शुभ संस्कारों का अर्थ यह नहीं है, कि पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म व सत्य-असत्य को छानना ही भूल जाओ। सामने नारी है, तो उसे हर परिस्थिति में बस देवी ही समझते रहना, कहीं भी विवेक का आधार नहीं। इसलिए कर्म को प्रधानता दी गई है। कर्म ही निर्धारित करता है, कि सामने वाला सम्मान का पात्र है, अथवा दण्ड का। आप श्रीराम जी को भी देखेंगे तो उन्होंने जीवन का प्रथम वध नारी का ही किया। जिसका नाम ताड़का था। और इस बात से श्रीहनुमान जी परिचित थे। उन्हें भलिभाँति पता था कि शरीर का वह अंग, जो बीमारी से गल जाये, और उपचार के योग्य न रह जाये, उसे काट देना ही श्रेयष्कर होता है।

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जीव द्वारा संस्कारों को ढोकर ऊपर उठाना नहीं होता है। अपितु संस्कार जीव को ऊपर उठाया करते हैं। जब लगे कि संस्कारों का अधूरा ज्ञान हमें नीचे गिरा रहा है, तो ऐसे बोझिल संस्कारों को ही नीचे गिरा दो, और संस्कार धारण करने की रीति व परिस्थिति पर पुनः चिंतन करो, और वह भी पूर्ण संत-महात्मा की छत्र छाया में। इसलिए श्रीहनुमान जी ने सिंहिका का वध कर अपने परिपक्व विवेक का परिचय दिया। इसलिए विवेक जीव को यही तो स्वतंत्रता देता है, कि वह अज्ञानता की बेड़ियों में जकड़ा न रहे। अपितु यह ज्ञान सदैव रखे, कि सृष्टि पर कुछ भी पाप नहीं और कुछ भी पुण्य नहीं। अपितु परिस्थिति निर्धारित करती है, वह कर्म पाप है अथवा पुण्य। जैसे श्रीराम सदैव ब्राह्मणों की सम्मान करते हैं। लेकिन रावण को ब्राह्मण होने के पश्चात् भी मृत्यु दण्ड ही प्रदान करते हैं। कारण कि वे कर्म के आधार पर ही निर्णय लेते हैं। वे ऐसा नहीं करते, समाज तो विवेकहीन हो, यूँ ही नरक की खाई में समा जाता। कबीर जी ने भी कहा है न कि ‘साच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप’ यह पंक्ति पढ़कर हमें यूँ लगता है, मानो हमें हर हाल में सच बोलने के लिए ही प्रेरित किया जा रहा है। क्योंकि झूठ बोलना पाप जो हुआ। लेकित एक उदाहरण से समझिए कि हमें किस परिस्थिति में क्या निर्णय लेना चाहिए? मान लीजिए कि कुछ गुंडे लोग किसी नारी के पीछे भाग रहे हैं। निश्चित् ही वे पापी लोगों की मंशा दूषित है। आप भी एक ऐसे स्थान पर खड़े हैं, जहाँ से सड़क दो हिस्सों में बँट जाती है, एक बाएँ और एक दाएँ। तभी वह पीड़ित नारी भागते-भागते दाईं और भाग जाती है। आप उसे देख पूछना भी चाह रहे थे, लेकिन नहीं पूछ पाये। तभी पाँच मिनट बाद उसी स्थान पर कुछ गुंडे आकर आप से पूछते हैं, कि एक स्त्री किस और गई है, दाईं और या बाईं और? ऐसे में आप बताईये, आपको क्या करना चाहिए? सत्य बोलेंगे, तो उस अबला नारी का स्तीत्व भंग होने की पूरी-पूरी संभावना है। ऐसे में निश्चित ही आपको असत्य ही बोलना चाहिए। क्योंकि ऐसा एक असत्य, सौ सत्यों से श्रेष्ठ है। श्रीहनुमान जी ने भी नारी रूप में बाधा बनी उस राक्षसी का वध करके इसी सिद्धांत का पालन किया। और अपनी यात्रा पर आगे निकल गए।

आगे क्या श्रीहनुमान जी सागर पार कर लंका पहुँच पाये, अथवा नहीं। जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम!

-सुखी भारती

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