Gyan Ganga: जब लक्ष्मणजी धनुष-बाण लेकर पहुँच गये तो सुग्रीव को हनुमानजी का ही सहारा था

Hanumanji
सुखी भारती । Jul 8 2021 3:40PM

श्री हनुमान जी ने तत्काल सुग्रीव के आदेश का पालन करते हुए समस्त दूतों को बुलाया और बहुत सम्मान करके भय और प्रीति की समस्त नीतियों का वर्णन करके आदेश से अवगत कराया। सभी वानरों ने श्री हनुमान जी की वाणी को बड़े ध्यान व गंभीरता से सुना।

सुग्रीव ने श्री हनुमान जी के श्रीमुख से जब यह हृदय घातक समाचार सुना कि श्रीलक्ष्मण जी तो धनुष बाण लिए, अतिअंत उग्र भाव से, किष्किंधा नगरी में प्रवेश कर चुके हैं, तो सुग्रीव ने देखा कि श्री हनुमान जी के सिवाय अब कोई ऐसा प्रतीत नहीं होता, जो इस विकट घड़ी मे सहायक होगा। सुग्रीव भय से कंपकंपाता हुआ, श्रीहनुमान जी के श्रीचरणों में गिड़गिड़ाने लगा, कि हे हनुमंत लाल! अब मेरी लाज आपके ही हाथों में है। मैंने विषयों के आधीन हो करके, स्वयं ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। लेकिन अब मैं क्या करूं? कारण कि श्रीलक्ष्मण जी का यूं क्रोधवत् यहाँ आना, स्वयं दर्शाता है कि पानी अब सिर से लाँघ चुका है। श्री लक्ष्मण जी का तीर अब धनुष के कंधों से छलाँग लगा मेरी ओर गतिमान है। श्रीलक्ष्मण जी द्वारा बाण चलाने का अर्थ है कि स्वयं मृत्यु ने मेरे कक्ष की राह पकड़ ली है। मैं कहाँ समर्थ कि कंकर होकर पर्वत का सामना कर पाऊँ। इसलिए हे हनुमंत देव! क्योंकि आप तो संत हैं और संत से भला संसार की कौन-सी व्याधि दो-दो हाथ कर सकती है। यह सुन श्री हनुमान जी ने कहा कि हे सुग्रीव महाराज! आप कुछ भी कहें, लेकिन स्थिति अब नियंत्रण से पूर्णतः बाहर है। पता नहीं अब क्या हो। यह सुन सुग्रीव अतिअंत भयभीत हो गया-

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‘सुनि सुग्रीवँ परम भय माना।

बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना।।’

माथे पर पसीना है, और पाँव की तलीयां भी गजब की तर थी। थुथलाती जुबाँ तो निर्णय ही नहीं कर पा रही थी, कि किन शब्दों को स्पर्श करना है, और किन शब्दों को नहीं। और श्रीहनुमान जी हैं कि कोई समाधान ही नहीं बता रहे थे। जितना समय व्यतीत होता जा रहा था, उतना ही श्रीलक्ष्मण जी के कदमों की आहट सुग्रीव के और समीप होती जा रही थी। सुग्रीव का प्रत्येक क्षण युगों के समान व्यतीत हो रहा था। लेकिन तब भी सुग्रीव की एक बात बड़ी आश्चर्य में डालने वाली थी, कि सुग्रीव श्री हनुमान जी को छोड़कर भाग नहीं रहा था। क्योंकि सुग्रीव की यह दृड़ प्रवृति थी, कि भय की स्थिति में जब कुछ भी रास्ता नहीं मिलता था, तो सुग्रीव को एक ही सूत्र हस्त सिद्ध था, कि वह तत्काल ही घटनास्थल से नौ दो ग्यारह हो जाता था। और परम आश्चर्य था कि सुग्रीव ने अभी तक यह सूत्र का प्रयोग नहीं किया था। क्यों? क्योंकि उसके हृदय में यह बात बड़े गहरे से विद्यमान थी, कि विपत्ति काल में जिसे भी छोड़ना हो, बेझिझक छोड़ दो, लेकिन भूले से भी कभी संत का दामन न छोड़ना। क्योंकि ईश्वर हमसे प्रसन्न न हों, तो चल जायेगा, क्योंकि आप भागकर संत के सान्निध्य में चलें जायें। निश्चित ही आपकी रक्षा होगी। और यह सर्व मान्य सत्य है कि ईश्वर आप को छू भी नहीं पायेंगे। आपको भयभीत होने की किंचित भी आवश्यक्ता नहीं। लेकिन कहीं गलती से भी संत रूठ जायें, और आप संत के प्रकोप से बचने हेतु ईश्वर की शरण में जाते हैं, तो ईश्वर आपकी तनिक-सी भी सहायता नहीं कर सकते। क्योंकि ईश्वर का प्रभुत्व, संत के संतत्व से कई गुणा गौण है। यहाँ तक कि वैदिक ग्रंथों से लेकर आज तक के मान्य धर्म ग्रथों में, कहीं भी आप देखेंगे, तो सब और यही पायेंगे कि ईश्वर के वचन तो पलट सकते हैं। लेकिन संत के वचन कोई नहीं पलट सकता। यहाँ तक कहा कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड पलट सकता है। किंतु संत के वचन नहीं-

‘संत वचन पलटें नहीं,

पलट जाये ब्रह्माण्ड।।’   

इसलिए सुग्रीव ने सोचा कि समाधान तो श्री हनुमान जी के श्रीमुख जी से ही निकलेगा। इसलिए अब तो बस श्री हनुमाान जी ही हैं, जिनके समक्ष रोना है और यहीं रोने से कुछ होना है। श्री हनुमान जी ने देखा कि सुग्रीव को प्रभु भय का प्रभाव ही दिखाना चाहते थे, गनीमत है कि सुग्रीव भयभीत तो अभी हो ही गया है। अर्थात प्रभु का सुग्रीव को लेकर जो वास्तविक उद्देश्य था, वो तो सध ही गया था। तो प्रभु श्रीराम श्री हनुमान जी के माध्यम से सुग्रीव को चारों विधि का ज्ञान प्रदान करते हैं-

‘चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा।।’   

चारों विधियों द्वारा समझाने का प्रभाव यह हुआ कि सुग्रीव तत्काल ही स्वयं को प्रभु की सेवा के लिए उपस्थित कर देता है। सुग्रीव उसी क्षण श्री हनुमान जी को निवेदन करता है कि हे पवनसुत देव! आप कृपया तत्काल धरती के समस्त वानरों को अपने दूत भेज कर आदेश पारित करो कि जहाँ-तहाँ वानरों के जूथ रहते हैं, उन्हें यह चेतावनी भरा समाचार दें, कि एक पखवाड़े के भीतर जो वानर यहाँ उपस्थित नहीं हुआ, उसका वध मैं स्वयं अपने हाथों से करूंगा।-

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‘अब मारूतसुत दूत समूहा।

पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा।

कहहु पाख महुँ आव न जोई।

मोरें कर ता कर बध होई।।’

श्री हनुमान जी ने तत्काल सुग्रीव के आदेश का पालन करते हुए समस्त दूतों को बुलाया और बहुत सम्मान करके भय और प्रीति की समस्त नीतियों का वर्णन करके आदेश से अवगत कराया। सभी वानरों ने श्री हनुमान जी की वाणी को बड़े ध्यान व गंभीरता से सुना। सभी ने अपना शीश निवाकर इस आदेश का अभिवादन किया। लग रहा था कि गाड़ी पटरी पर लौटने वाली है। लेकिन तभी श्रीलक्ष्मण जी भयंकर क्रोधावेश में वहाँ उपस्थित हो जाते हैं। उनकी उपस्थिति के प्रभाव का क्या वर्णन करें। चारों और वानरों में भगदड़ मच गई। वानर बिना दिशा के ज्ञान के ही यहाँ तहाँ दौड़ने लगे-

‘एहि अवसर लछिमन पुर आए।

क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए।।’

श्री लक्ष्मण जी ने धनुष पर बाण चढ़ा लिया और गर्जना करते हुए बोले कि मैं अभी पूरे नगर को जला कर भस्म कर दूंगा-धनुष चढ़ाइ कहा तब जारि करउँ पुर छार। पूरी किष्किंधा नगरी यूं डोल रही है, जैसे सागर में घने तूफान में फँसी एक नौका डगमग करती है। इधर तो यह घटनाक्रम घट रहा है। और दूसरी और श्री हनुमान जी को सुग्रीव छोड़ ही नहीं रहा है। उसको लगता है कि जब तक श्री हनुमान जी मेरे आस पास हैं, मैं निश्चित ही काल की परिधि से परे रहूंगा। उसका यह दृढ़ विश्वास है कि मेरे संग जब तक साधू की छत्र छाया है, तब तक मैं केवल जीवित ही नहीं, अपितु अमर हूँ। सच मानियेगा सज्जनों कि सुग्रीव का यही संसकार उसके लिए अब तक जीवन संजीवनी का कार्य किए जा रहा था। श्री हनुमान जी को प्रभु की पूरी योजना का भान था, कि कैसे सुग्रीव को पथ पर लाना है। यहाँ श्री हनुमान जी सुग्रीव को जो चारों विधियों का ज्ञान देते हैं, वह बड़ा विशेष व रहस्यपूर्ण हैं।

क्या हैं वे चारों विधियाँ? इस पर चर्चा करेंगे अगले अंक में...(क्रमशः...)...जय श्रीराम!

-सुखी भारती

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