कार्तिक शुक्ल की चतुर्थी को ''नहाय-खाय'' से शुरू होता है छठ पर्व

Chhath festival starts with Naha-Kha ritual
संजय तिवारी । Oct 24 2017 4:38PM

कार्तिक शुक्ल की चतुर्थी को ''नहाय-खाय'' होता है। इस द‍िन स्नान व भोजन ग्रहण करने के बाद शुरू होता है। दूसरे दिन पंचमी को दिनभर निर्जला उपवास और शाम को सूर्यास्‍त के बाद ही भोजन ग्रहण क‍िया जाता है।

यह मूल रूप से सनातन का वेद पर्व है। वेद के प्रतिपाद्य देवता नारायण हैं। वेदमाता के रूप में स्थापित गायत्री मंत्र के प्रतिपाद्य देवता भी वही नारायण हैं। गायत्री मन्त्र के- तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य- में जो सविता देवता हैं वह भगवान् सूर्य के आभामंडल के केंद्र में विराजमान भगवान् नारायण ही हैं। उन्हीं को समग्र रूप में सूर्यनारायण कहा जाता है। इसी क्रम में छठ पर्व के भी प्रतिपाद्य देवता भगवान् नारायण ही हैं। इस प्रकार यह व्यापक फलक पर वेद पर्व ही है जो लोकजीवन में अति पावन स्वरूप में सदियों से मनाया जा रहा है। यह पूर्णतः प्रकृति पर्व है। प्रकृति से इतर इसमें कुछ भी मान्य नहीं। पूजा की सामग्री भी विशुद्ध प्राकृतिक। गन्ना, मूली, केला, बोरो, सिंघाड़ा, शरीफा, नारियल, हल्दी, अदरक, गुड़, रसियाव, गुलगुला, ठेकुआ, धूप, दीप, नैवेद्य। पूजा स्थल भी कोई मंदिर नहीं।  केवल किसी जलाशय या नदी का तट। इसमें कुछ भी कृत्रिम नहीं है। सभी कुछ मूल प्रकृति के भाव में ही है। आरती, पूजा, आराधना, साधना और संसाधन तक सब के मूल प्राकृतिक रूप ही यहाँ प्रयुक्त हो रहे हैं। सबसे खास पक्ष यह कि इसमें किसी जाति, पंथ या मजहब को कहीं मनाही नहीं है। लोक का प्रत्येक अवयव, प्रत्येक समुदाय इसे एक हो स्वरूप में मना सकता है।

जिस स्वच्छता को लेकर आज देश की सरकार ने अपनी पूरी ताकत लगा रखी है, सोचिये कि बिना किसी सरकारी योजना के वह स्वच्छता अभियान हर साल छठ पूजा के समय हमारे लोकजीवन में सदियों से चलता रहा है। छठ का खयाल आते ही मन के किसी कोने से आध्यात्म की सरिता फूट पड़ती है। पर छठ की यही महिमा है कि इस आध्यात्म की धारा निराकार या अलौकिक न होकर लौकिक हो जाती है। प्रकृति की प्रतिष्ठा को स्थापित करने वाला यह त्योहार पर्यावरण को बचाने-संवारने को प्रेरित करता है।

पौराणिक मान्यताएं

कथाओं के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब देवता असुरों से हार गये थे, तो देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य में देव सेना छठी मैया की आराधना की थी। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर छठी मैया ने सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का उन्हें वरदान दिया था। षष्ठी देवी के वरदान से ही अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने आगे चल कर दानवों पर देवताओं को विजयश्री दिलायी। तभी से देव सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हुआ। कहते हैं कि तभी यहां छठ का चलन भी शुरू हो गया। हालांकि एक मान्यता यह भी है कि इस जगह का नाम कभी यहां के राजा रहे वृषपर्वा के पुरोहित शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के नाम पर देव पड़ा था। एक जानकारी यह भी है कि सतयुग में इक्ष्वाकु के पुत्र व अयोध्या के निर्वासित राजा ऐल एक बार देवारण्य (देव इलाके में तब स्थित जंगलों में) में शिकार खेलने आये थे। वह कुष्ठ रोग से पीड़ित व परेशान थे।

शिकार खेलने आये राजा ने जब यहां के एक पुराने पोखरे के जल से प्यास बुझायी और स्नान किया, तो उनका कोढ़ ठीक हो गया। वह इस चमत्कार पर हैरान थे। बाद में उन्होंने स्वप्न में देखा कि त्रिदेव रूप आदित्य उसी पुराने पोखरे में हैं, जिसके पानी से उनका रोग ठीक हुआ था। यह एहसास होते ही राजा ऐल ने देव में एक सूर्य मठ का निर्माण कराया। उसी पुराने पोखरे में उन्हें ब्रह्मा, विष्णु और शिव की मूर्तियां भी मिलीं।

बाद में अपने बनवाये मठ में इन मूर्तियों को स्थान देते हुए उन्होंने त्रिदेव स्वरूप आदित्य भगवान को स्थापित कर दिया। राजा ऐल के साथ हुई घटनाओं की समाज में काफी चर्चा हुई और साथ-साथ यहां भगवान सूर्य की पूजा-आराधना भी शुरू हो गयी, जो आगे चल कर छठ के व्यापक आयोजन के रूप में सामने आया।

देव के बारे में एक अन्य लोककथा में सुना जाता है कि एक बार भगवान शिव के भक्त माली व सोमाली सूर्यलोक जा रहे थे। यह बात सूर्य को रास नहीं आयी। उन्होंने इन शिवभक्तों को जलाना शुरू कर दिया। अपनी अवस्था खराब देख माली व सोमाली ने भगवान शिव से बचाने की अपील की। फिर क्या था, भगवान शिव अपने भक्तों की अवस्था पर नाराज हो गये। उन्होंने सूर्य को मार गिराया। तब सूर्य तीन टुकड़ों में पृथ्वी पर गिरे थे। जहां सूर्य के टुकड़े गिरे, उन्हें देवार्क, लोलार्क (काशी के पास) और कोणार्क के नाम से जाना जाता था।

पर्व की महत्ता

छठ पूजा प्रकृति के करीब पहुंचाती है और मन व शरीर होता है स्वस्थ। धार्मिक महत्व के साथ छठ का वैज्ञानिक महत्व भी कम नहीं है। इस पर्व का प्रकृति के साथ सबसे करीबी रिश्ता माना जाता है। सूर्य को अर्घ्य देने के लिए उपयोग में लाया जाने वाले हल्दी, अदरक, मूली और गाजर जैसे फल-फूल स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होते हैं। यही ऐसा त्योहार है जो सामूहिक रूप से लोगों को स्वच्छता की ओर उन्मुख करता है। यही नहीं, प्रकृति को सम्मान व संरक्षण देने का संदेश भी यह पर्व देता है। आज जबकि पूरी दुनिया में पर्यावरण को लेकर चिंता जतायी जा रही है, तब छठ का महत्व और जाहिर होता है। इस पर्व के दौरान साफ-सफाई के प्रति जो संवेदनशीलता दिखायी जाती है, वह लगतार बनी रहे तो पर्यावरण का भी भला होगा। छठ पूजा की प्रक्रिया के बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि इससे सेहत को फायदा होता है।

पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देने से शरीर को प्राकृतिक तौर पर कई चीजें मिल जाती हैं। पानी में खड़े होकर अर्घ्य देने से टॉक्सिफिकेशन होता है जो शरीर के लिए फायदेमंद होता है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि सूर्य की किरणों में कई ऐसे तत्व होते हैं तो प्रकृति के साथ सभी जीवों के लिए लाभदायक होते हैं। ऐसा माना जाता है कि सूर्य को अर्घ्य देने के क्रम में सूर्य की किरणें परावर्तित होकर आंखों पर पड़ती हैं। इससे स्नायुतंत्र सक्रिय हो जाता है और व्यक्ति खुद को ऊर्जान्वित महसूस करता है।

छठ गीतों की अमिट छाप

हम बच्चे थे। छठी मइया या सूर्य भगवान के बारे में कोई ज्ञान नहीं था। उस उम्र में इसकी जानकारी हो, यह जरूरी भी नहीं था। पर घर या आसपास से जब छठ के गीत सुनायी देते थे, तो बहुत अच्छा लगता था। गीतों को गाते हुए घर की महिलाओं के छठ घाटों पर जाने और अर्घ्य देने की प्रक्रिया को हम बड़े मनोयोग से देखा करते थे। तब हमें यही बताया गया था कि भगवान सूर्य से ही तमाम जीव-जंतुओं का जीवन चल रहा है। इसलिए सूर्य की हम पूजा करते हैं। बचपन के वे दिन थे। माहौल हम बच्चों के इतना फेवर में हुआ करता था कि कुछ गलती भी हो जाये, तो घर के बड़े-बुजुर्ग उसे नजरअंदाज कर देते थे। यह हमारे अति उत्साह का बड़ा कारण हो जाता था। इस अति उत्साह में हम खूब उछल-कूद करते। शाम से लेकर देर रात तक दादी-मां को हम कुछ दूरी से देखा करते थे।

हम मन ही मन सोचते कि दूसरे दिन छठ घाट जाना है। इस उत्साह में हमें पता ही नहीं चलता था कि हम कब सोए और कब जग गये। छठ गीत सुनने के साथ ही नींद कहीं दूर चली जाती थी। हम घाट पर जाने के लिए झटपट तैयार हो जाते। भोर होने से पहले ही हम घाटों पर पहुंच जाते थे।

छठ घाटों पर गीत गाते हुए महिलाओं को हम देखते थे। घाट के किनारे दीयों की लौ से फूटता अद्भुत नजारा हम भूल नहीं पाते। हम सब सूर्य के आगमन की प्रतीक्षा करते रहते थे। घाटों पर हम सुना करते थे- उग ना सूरज देव…यानी हम भगवान भास्कर से प्रार्थना करते थे कि आप हमारे बीच आयें ताकि यह सृष्टि चल सके। दिवाली समाप्त होने के साथ ही घर में छठ पूजा की तैयारी शुरू हो जाया करती थी। उसी समय से छठ के गीत भी घरों में गाये जाने लगते थे। हम बच्चों के लिए दिवाली से पहले ही कपड़े वगैरह की खरीदारी हो जाती थी। हम इससे भी खुश होते थे कि नया ड्रेस पहनने को मिलेगा।

लोक कथाओं में सूर्य पूजा

राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्ति के लिए महर्षि कश्यप ने एक यज्ञ कराया। उसे पुत्रेष्टि यज्ञ कहा गया। यज्ञ के उपरांत राजा की पत्नी को खीर दी गयी। इसके असर से रानी मालिनी को पुत्र प्राप्त हुआ। लेकिन वह मृत था। दुखी राजा प्रियवद अपने मृत बच्चे को लेकर श्मशान चले गये। पुत्र के वियोग में उन्होंने प्राण त्याग करने की ठान ली। उसी समय भगवान की मानस कन्या देवसेना अवतरित हुईं। 

सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न होने के चलते उन्हें पष्ठी कह कर पुकारा जाता है। देवसेना ने प्रियवद से कहा- राजन, तुम मेरा पूजन करो। दूसरों को ऐसा करने के लिए प्रेरित करो। यह सुन राजा ने पष्ठी का व्रत किया। इससे उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। राजा ने यह पूजा कार्तिक माघ के शुक्ल षष्ठी को की थी। 

दूसरी ओर, ऐसी भी मान्यता है कि छठ पूजा महाभारत काल में शुरू हुई थी। ऐसी मान्यता है कि दानवीर कर्ण ने सूर्य की उपासना शुरू की थी। वह भगवान सूर्य ने भक्त थे। हर दिन वह पानी में कमर तक खड़े होकर सूर्य की पूजा करते। उसी उपासना के फलस्वरूप कर्ण बड़े योद्धा बने। ऐसी भी मान्यता है कि पांडवों की पत्नी द्रौपदी भी सूर्य की पूजा करती थीं। वह बेहतर स्वास्थ्य और निरोग रहने के इरादे से सूर्य की पूजा किया करती थीं।

भगवान श्रीराम ने की थी पूजा

इस महापर्व को लेकर मान्‍यता है क‍ि छठ पूजा रामायण काल से होती आ रही है। जब भगवान राम अपना वनवास पूरा कर अयोध्‍या लौटे थे तब इसकी शुरुआत हुई थी। सूर्य वंशी श्रीराम और सीता जी ने अपना राज्‍यभ‍िषेक होने के बाद भगवान सूर्य के सम्‍मान में कार्ति‍क शुक्‍ल की षष्‍ठी को उपवास रखा और पूजा अर्चना की। इसके बाद से यह पूजा एक महापर्व के रूप में मनाई जाने लगी। 

कर्ण ऐसे करते थे सूर्य को खुश

महाभारत काल में कुंती के पुत्री कर्ण सूर्य देव के परम भक्त और उनके पुत्र भी थे। भगवान सूर्य को खुश करने के ल‍िए कर्ण रोजाना सुबह के समय घंटों तक पानी में खड़े रह कर उनकी पूजा करते थे। कर्ण के इस तरह से ध्‍यान करने से सूर्य देव की उन पर व‍िशेष कृपा होती है। इसल‍िए छठ पूजा में सूर्य देव को अर्घ्यदान देने की परंपरा जुड़ी है। 

द्रौपदी को म‍िला था खोया साम्राज्‍य 

महाभारत काल में इससे जुड़ा एक और कारण भी बताया जाता है। कहा जाता है क‍ि महाभारत काल में जब पांडव अपना सर्वस्व हार चुके थे। उनके पास कुछ नहीं रह गया था उस समय द्रौपदी यानी क‍ि पांचाली ने इस व्रत का अनुष्‍ठान कर पूजा की। इससे द्रौपदी और पांडवों को उनका पूरा साम्राज्‍य वापस म‍िल गया था। 

चार द‍िन का महापर्व

कार्तिक शुक्ल की चतुर्थी को 'नहा-खा' होता है। इस द‍िन स्नान व भोजन ग्रहण करने के बाद शुरू होता है। दूसरे दिन पंचमी को दिनभर निर्जला उपवास और शाम को सूर्यास्‍त के बाद ही भोजन ग्रहण क‍िया जाता है। तीसरे दिन षष्ठी पर डूबते सूर्य को अर्घ्य देने के अलावा और छठ का प्रसाद बनता है। चौथे दिन सप्तमी की सुबह उगते सूर्य को अर्घ्‍य देने के साथ उपवास खोला जाता है।

लोक, जिसका एक व्यापक अर्थ है। सूर्य के प्रति अपार आस्था छठ के केंद्र में है। किसानी करते हुए गांव को देखते-समझते हुए माटी के करीब इस लोक पर्व को अब करीब से जानने लगा हूं। ग्रामीण भारत का लोकमन माटी की तरह उर्वर और निर्मल होता है। छठ के घाटों से गुजरते हुए मन के भीतर कबीर बजने लगते हैं- कबीरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर...। यह पर्व पवित्रता से मनाया जाता है। साफ सफाई पर विशेष जोड़। सोचता हूं कि यदि हम हर रोज इतनी सफाई से रहें तो स्वच्छ भारत अभियान की जरुरत ही नहीं पड़ेगी। बिना किसी सरकारी सहायता से ग्राम-घरों में लोगबाग सड़क से लेकर घाटों तक की सफाई कर देते हैं। घर-आंगन की तो पूछिए मत। सबकुछ चकमक, सूरज की रोशनी की तरह।

मन के भीतर लालसाओं की तरह खेत पथार भी असंख्य फल-फूलों को उपजाती है, जिसे हम इस लोक पर्व में सूर्य को अर्पित करते हैं। लालसाओं के पीछे भागते मन को यह पर्व रोकने के लिए कहता है और संग ही यह भी संदेश देता है कि हम प्रकृति के समीप जाएं। कबीर की एक वाणी याद आ रही है- मन दाता, मन लालची., मन राजा, मन रंक। लोक जीवन के इस पर्व को एक किसान के तौर पर जब हम देखते हैं तो लगता है कि किसानी कर रहे लोग कितनी सहजता और प्रेम से सब कुछ भूलकर छठ पूजा में लग जाते हैं। खेत-खलिहान सब कुछ भूलकर। आलू-मक्का के नवातुर पौधों को प्रकृति के भरोसे छोड़कर छठ घाटों पर किसानों की चहलकदमी बढ़ जाती है। लोक जीवन के इस बृहद उत्सव के लिए जो सामान बटोरे जाते हैं वे सभी कृषि आधारित होते हैं। केला, नीबू, सिंघाड़ा, गन्ना, हल्दी, नारियल, अदरक...ये सभी प्रकृति के गोद से छठ पूजा के लिए तैयार घाट तक पहुंचते हैं। छठ पूजा के गीतों को यदि आप ध्यान सुनेंगे तो आप यह सब जान जाएंगे। मसलन इस गीत के शब्दों को पढ़िए- कवन देई के अइले जुड़वा पाहुन, केरा –नारियर अरघ लिहले। छठ गीतों का सांसकृतिक पक्ष भी अद्भुत है।

गीतों से जब हम आगे बढ़ते हैं तब गांव के उन टोलों पर नजर टिकती है जहां वे लोग आए हैं जो अपना घर-दुआर छोड़कर बाहर कमाने गए थे। छठ पूजा उनके लिए एक मौका है अपनी माटी से जुड़ने का। हम इस लोक पर्व को इस नजरिए से भी देख सकते हैं। छठ ही वो मौका है जब लाखों लोग अपने गांव घर की तरफ आते हैं। इन लोगों के कदम भर रखने से गांव-गांव खिल उठता है। इस खुशी के लिए ही वो इतनी तकलीफदेह यात्राएं करते हैं, इसका अंदाजा हर कोई नहीं लगा सकता। खाली आंगन चहक उठता है। कभी कभी तो लगता है कि छठ एक ऐसा मौका जिसमें गांव की रोनक लौट आती है। इसके लिए आपको गांवों को देखना होगा।

शहरों में चार दिनों के इस पर्व में आखिरी दो दिन ही ज्यादा चहल पहल वाले होते हैं। आज के शहरीकरण के कारण लोग अपने मूल शहर या गांव से अन्य शहरों में भी प्रवास करने लग गए हैं। छठ पूजा पर अनेक प्रवासी अपने अपने गांव घरों को जाने की कोशिश तो करते हैं, लेकिन प्रत्येक परिवार के लिए यह संभव नहीं हो पाता है। इसके अलावा हर बड़े महानगर में बहती नदी का भी अभाव है। जैसे दिल्ली में यमुना किनारे छठ पूजा के समय विशाल जनसमूह एकत्रित होता है। वैसे तो नदी में ही छठ मनाने की परंपरा है, लेकिन लोगों की भीड़ को देखते हुए आजकल शहरों में छोटी छोटी बावड़ी और तालाबों में लोग उतर जाते हैं। इससे पूजा की रस्म अदायगी मात्र होती है बाकी उन इलाकों में कूड़ा-करकट और जल प्रदूषण बढ़ जाता है। समुद्र और नदी की पवित्रता को बचाए रखने के लिए छठ पूजा के लिए विशेष घाट आदि का बंदोबस्त किया जाता है, लेकिन इन सबके बावजूद छठ का त्योहार उन सबके लिए एक जरूरी पर्व है, जिन्हें अपनी परंपराओं से प्यार है।

यह सब लिखते हुए कई यादें भी मन के भीतर कुलांचे मारने लगी है। याद आता है बचपन में घाट पर पांव का मिट्टी में धसना, गंगा में छपछप, सूरज उगने का इंतजार, अधिकाधिक सूप मे अर्घ्य देने की होड़, ईख चुसना, ठेकुआ खाना, पारन का प्रसाद खाना, ना जाने कितनी सौंधी महक वाली यादें हैं। छठ एक लोक पर्व है, जो अपने घरों में हैं वो घाटों पर पूजा की तैयारी में जुटे होंगे और जो अपने घर-द्वार से दूर होंगे वे यादों के सहारे सब कुछ याद कर रहे होंगे। यही है लोक पर्व की खूबसूरती।

- संजय तिवारी

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