''मांझी- द पूअर कॉमन मैन''
ऐसी खबरें रुला देने के लिए काफी हैं कि पैसे के अभाव में शव को दस किलोमीटर पैदल लेकर जाना पड़ा या फिर किसी महिला को अस्पताल में जगह नहीं मिली और अस्पताल के दरवाजे पर बच्चे का जन्म हुआ।
यह देख-सुनकर दुःख होता है कि आजादी के लगभग 70 साल बाद भी देश में ऐसी स्थिति बनी हुई है जबकि किसी गरीब को अपनी पत्नी के शव को कंधे पर डालकर दस किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ी क्योंकि पैसे के अभाव में वह एंबुलेंस का खर्चा नहीं उठा सकता था। आदमी, खासकर गरीब आदमी के जीवन का तो जैसे कोई महत्व ही नहीं है। ओडिशा से आई कुछ खबरों ने हर किसी को ना सिर्फ हैरान-परेशान किया है बल्कि हमारे समाज के सभ्य होने के दावों पर भी सवाल उठाया है। कहाँ हैं वो सरकारें, लालबत्ती में घूमते मंत्रिगण और कहाँ हैं सरकारी अधिकारी जिनका प्राथमिक कार्य समाज कल्याण है।
आज जब एक ओर चमकता भारत है तो दूसरी ओर सिसकता भारत भी है जहां ऐसी खबरें रुला देने के लिए काफी हैं कि पैसे के अभाव में शव को दस किलोमीटर पैदल लेकर जाना पड़ा या फिर किसी महिला को अस्पताल में जगह नहीं मिली और अस्पताल के दरवाजे पर बच्चे का जन्म हुआ। ओडिशा में दो महिलाओं के शवों के साथ जो कुछ हुआ वह निर्दयता का ही उदाहरण है। पहले मामले में कालाहांडी में एक आदिवासी महिला की जब अस्पताल में मृत्यु हो गयी तो उसके पति ने अपनी पत्नी के शव को गाँव तक पहुँचाने के लिए अस्पताल प्रशासन की मदद माँगी लेकिन जब कोई मदद नहीं मिली तो उसको अपनी पत्नी के शव को दस किलोमीटर कंधे पर उठाकर ले जाना पड़ा जबकि दूसरे मामले में सामने आया है कि एक शव को पोटली में बाँधने के लिए अस्पताल में शव की हडि्डयां तोड़ दी गयीं ताकि उसे पोटली में बाँधा जा सके। वह तसवीरें काफी परेशान करने वाली हैं जिसमें डंडे पर पोटली में बँधे शव को ले जाया जा रहा है।
मामला राजनीतिक रूप से गर्माया तो अस्पताल और सुरक्षाकर्मियों से गलती होने की बात स्वीकार करते हुए ओडिशा सरकार ने अब कहा है कि दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी जबकि पहले सरकारी रुख कुछ और ही था। दुख की बात यह भी है कि अस्पताल प्रशासन ने 24 अगस्त की इस घटना को लेकर मृतका के पति दाना मांझी पर ही दोषारोपण करना शुरू कर दिया कि वह बिना किसी को बताए ही पत्नी का शव वहां से लेकर चला गया जबकि मांझी का कहना है कि उसने सभी से मदद मांगी थी लेकिन किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। यही नहीं यह जानते हुए भी कि मौत के तीसरे दिन आदिवासी रीति रिवाज से अंतिम संस्कार करने की परम्परा है, मांझी को जिलाधिकारी ने मीडिया के सामने पेश करने के लिए बुला लिया और तर्क दिया कि जांच के लिए मांझी का बयान रिकार्ड करना जरूरी था। अलग-अलग घटनाओं में दो महिलाओं के शवों के साथ कथित तौर पर अमर्यादित व्यवहार के बारे में मीडिया की खबरों का स्वत: संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने ओड़िशा सरकार को नोटिस जारी कर एक महीने के अंदर रिपोर्ट सौंपने को कहा है। देखना होगा कि सरकार की रिपोर्ट आगे क्या कहती है।
फिलहाल तो मांझी के परिवार को मुआवजा देकर और उसकी बेटी की शिक्षा का प्रबंध कर राज्य सरकार आलोचनाओं को थामना चाहती है। दरअसल, मुआवजा ऐसा सरकारी 'अस्त्र' है जिसका इस्तेमाल हर सरकार मुश्किलों से उबरने के लिए करती रही है। सरकारों ने वैसे तो लोगों के भले के लिए विभिन्न घटनाओं के हिसाब से मुआवजा तय किया हुआ है लेकिन दुखद पक्ष यह है कि यह राशि भी कई बार मृतक के जाति, धर्म को देखकर घटा-बढ़ा दी जाती है और इसे हासिल करने के लिए कई बार पीड़ित परिवार को भ्रष्ट प्रशासन की मांगों के आगे झुकना पड़ता है।
मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को चाहिए कि वह इस मामले में हुई ढिलाई के मामले को सख्ती से लें। जनता ने उन्हें लगातार तीन बार से मुख्यमंत्री बनाये रखा है। यह उनकी पहली जिम्मेदारी है कि मानवाधिकारों की रक्षा हो और जनता को मूलभूत सुविधाएं मिलें। सिर्फ शहरी क्षेत्रों को चमकाना काफी नहीं है, दूरदराज के गाँवों, आदिवासी क्षेत्रों में भी सभी प्रकार की सुविधाएँ पहुँचाना जरूरी है ताकि फिर किसी मांझी को ऐसे दिन देखने नहीं पड़ें।
- नीरज कुमार दुबे
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