जातिवाद से परहेज की बात तो सभी करते हैं पर बढ़ावा भी देते हैं

विजय कुमार । Mar 30 2017 12:20PM

राजनीति का अर्थ है आंतरिक और बाहरी बाधाओं से अपने क्षेत्र की रक्षा करते हुए नागरिकों का जीवन सुखी बनाना। यहां नागरिकों का अर्थ सब लोगों से है, चाहे उनकी जाति, वंश, लिंग, आयु, रंग, क्षेत्र और काम कुछ भी हो।

राजनीति की परिभाषा देश और विदेश के विद्वानों ने कई तरह से की है। अरस्तू ने यों तो हर विषय पर अपने विचार व्यक्त किये हैं; पर उनकी ख्याति ‘पॉलिटिक्स’ नामक ग्रंथ से ही हुई है। भारत में मनु, चाणक्य, विदुर और भर्तृहरि की नीतियां राजनीति में आधार के रूप में प्रयोग की जाती हैं। सरल शब्दों में कहें, तो राजनीति का अर्थ है आंतरिक और बाहरी बाधाओं से अपने क्षेत्र की रक्षा करते हुए नागरिकों का जीवन सुखी बनाना। यहां नागरिकों का अर्थ सब लोगों से है, चाहे उनकी जाति, वंश, लिंग, आयु, रंग, क्षेत्र और काम कुछ भी हो। 

परिभाषाएं तो अपनी जगह हैं; पर शासक और उसके आसपास के लोगों के स्वभाव के कारण कुछ भेदभाव सदा से ही होता रहा है। पहले लोग इसे राजतंत्र की एक अनिवार्य बुराई मानते थे। इसलिए आजादी के बाद जब लोकतंत्र की स्थापना हुई, तो भारतवासियों को लगा कि अब शायद देश की राजनीति से जाति और क्षेत्रवाद का विष समाप्त हो जाएगा; पर 70 साल बीतने के बाद लगता है कि समाप्त होना तो दूर, ये बीमारी लगातार बढ़ रही है। यहां तक कि इनमें संतुलन बनाकर रखना ही राजनीति में सफलता की गारंटी है। उत्तर प्रदेश के ताजे चुनाव इसे बहुत स्पष्ट करते हैं। 

उ.प्र. में भारतीय जनता पार्टी को रिकार्डतोड़ बहुमत मिला है। चुनाव की तैयारी के दौरान भा.ज.पा. की रणनीति बनाने वाले समझ गये थे कि चाहे जो हो, पर प्रदेश की जनसंख्या के दस प्रतिशत यादव वोट मुख्यतः अखिलेश के पाले में ही जाएंगे। इसी प्रकार दस प्रतिशत जाटव बिरादरी पूरी तरह मायावती के साथ है। 20 प्रतिशत जनसंख्या वाले मुस्लिम वोटरों के बारे में काफी समय से यह मान्यता है कि वे चाहे कुएं में वोट डाल दें, पर भा.ज.पा. के साथ नहीं जाएंगे। इन बिन्दुओं के आधार पर ही भा.ज.पा. ने रणनीति बनायी और उसके परिणाम से मायावती, अखिलेश और राहुल बाबा के सपने ध्वस्त हो गये।

भा.ज.पा. ने जहां एक ओर संगठन में (यादव रहित) पिछड़े वर्ग तथा (जाटव रहित) अनु. जाति आदि को महत्व दिया, वहां टिकट वितरण में भी इनका पूरा ध्यान रखा। चुनाव से पूर्व उसने दूसरे दलों से चुन-चुनकर इन जातियों के प्रमुख लोगों को तोड़कर अपने साथ मिलाया। इससे अन्य दलों का मनोबल टूटा तथा भा.ज.पा. की जातीय गोलबंदी मजूबत हुई। उसने पिछड़े वर्ग के 123 प्रत्याशियों को चुनाव लड़ाया; पर उनमें यादवों की संख्या केवल आठ थी। इसी प्रकार उसने अनुसूचित जाति और जनजाति की सुरक्षित सीटों पर 85 प्रत्याशी उतारे, जिनमें केवल 20 जाटव थे। 

उ.प्र. में यादव समाज संख्या, लाठी, खेतीहर जमीन के साथ ही शिक्षा से भी लैस है। आरक्षण तथा सुरक्षा कानूनों के कारण जाटव भी काफी आगे बढ़े हैं। स.पा. और ब.स.पा. के शासन में सत्ता का वरदहस्त भी इन्हीं दोनों वर्गों पर रहता आया है। अतः इनकी दंबगई और प्रगति से दुखी शेष पिछड़े वर्ग के साथ ही अनुसूचित जाति और जनजाति के वे सब लोग खुलकर भा.ज.पा. के साथ आ गये, जो इनके कारण स्वयं को उपेक्षित अनुभव करते थे। 

इसी रणनीति के अन्तर्गत भा.ज.पा. ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया। यद्यपि विरोधियों द्वारा इसकी बहुत आलोचना हुई। राजनाथ सिंह और उमा भारती जैसे बड़े नेताओं ने भी चुनाव प्रचार के दौरान दबी जुबान से इसे अनुचित कहा; पर अमित शाह के नेतृत्व में काम कर रहे चुनाव के रणनीतिकार अपनी नीति पर दृढ़ रहे। मुसलमान जहां एक ओर भ्रमित होकर मायावती और अखिलेश के पाले में बंट गये, वहां ‘तीन तलाक’ के शरीयती नियमों से दुखी महिलाओं ने चुपचाप बड़ी संख्या में भा.ज.पा. का साथ दिया। मुस्लिम युवा भी मजहबी फतवेबाजों को ठुकरा कर विकास पुरुष मोदी के पक्ष में आ गये। इससे बाजी पलट गयी। अब मायावती, अखिलेश और राहुल बाबा मूढ़ पकड़कर कागज पर अपने वोटों को जोड़ और घटा रहे हैं। पर ‘‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत।’’ जातीय आंकड़ों की सीढ़ी चढ़कर सत्ता पाने वाले भूल गये कि अब उनके सामने नरेन्द्र मोदी और अमित शाह जैसे चतुर खिलाड़ी हैं। इन दोनों ने जातिवाद का जहर फैलाने वाले दलों को उनके अखाड़े में उनके ही दांव से मात दे दी। 

चुनाव प्रचार में भी भा.ज.पा. ने जातीय संरचना का ध्यान रखा। राजनाथ सिंह, योगी आदित्यनाथ, सिद्धार्थनाथ सिंह (क्षत्रिय), कलराज मिश्र, दिनेश शर्मा (ब्राह्मण), केशव प्रसाद मौर्य, स्वामी प्रसाद मौर्य (पिछड़े), उमा भारती (लोध), संतोष गंगवार, अनुप्रिया पटेल (कुर्मी), संजीव बालियान (जाट).. आदि नेताओं को उनके प्रभाव वाली सीटों पर प्रचार के लिए भेजा गया। इसका मतदाताओं में अच्छा संदेश गया। दूसरी ओर स.पा. में अखिलेश यादव, ब.स.पा. में मायावती तथा कांग्रेस में राहुल के अलावा कोई अन्य नेता प्रचार के लायक ही नहीं समझा गया। अतः एक नेता वाले ये दल धराशायी हो गये और चहुंदिश भगवा पताका फहरा गयी।

मुख्यमंत्री बनाते समय भी भा.ज.पा. ने जातीय संतुलन का ध्यान रखा। गोरखनाथ मठ के महंत योगी आदित्यनाथ की छवि प्रखर और उग्र हिन्दू की है। संभवतः इसीलिए उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया। पर वे क्षत्रिय वर्ग से भी हैं, अतः उनके साथ पिछड़े वर्ग से केशव प्रसाद मौर्य तथा दिनेश शर्मा (ब्राह्मण) को उपमुख्यमंत्री बनाया गया है। कैसा आश्चर्य है कि जातिवाद का विरोध करने वाले सभी दल चुनाव आते ही जातीय जोड़तोड़ में लग जाते हैं। ऐसे में जातिवाद को ‘राजनीति की अनिवार्य बुराई’ कहना शायद ठीक ही होगा।  

- विजय कुमार

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