अशिक्षित आदिवासियों के भोलेपन का फायदा उठाने वालों की गिरफ्तारी सही

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अब ताकत के बूते समाजवाद लाने का तिलिस्म तिनके की तरह लगातार टूट रहा है। नक्सलियों के कथित हितैषियों के हौसले पस्त हो रहे हैं। देश का आंतरिक सुरक्षा तंत्र लगातार मजबूत हो रहा है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या की साजिश के आरोप में गिरफ्तार छह आरोपियों पर अदालत में बेशक आरोप साबित नहीं हों किन्तु यह सच है कि कथित बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका आज भी आतंकी, नक्सली माओवादियों के जरिए समाजवाद का सपना पाले हुए है। देश के संविधान और लोकतंत्र में आस्था के विपरीत कल्पना में जी रहे नक्सलियों के पैरोकारों को लगता है कि हिंसा के जरिए ही समाजवाद कायम किया जा सकता है। इन पैरोकारों की बुनियादी सोच में ही त्रुटि है। तमाम कमियों−कमजोरियों और अभावों के बावजूद हिंसा के जरिए सवा अरब लोगों के लोकतांत्रिक देश में बदलाव संभव नहीं है। बदलाव तभी संभव है जब लोकतांत्रिक तरीकों से देश के लोगों के सामने अपना पक्ष रखा जाए। 

भाजपा जैसी धुर दक्षिणपंथी पार्टी तक को अपना रास्ता बदलने के लिए विवश होना पड़ गया। सत्ता की खातिर उसे भी लोकतंत्र के छाते की नीचे ही आना पड़ा। अयोध्या मुद्दे पर नकार दिए जाने के बाद सत्ता में आने के लिए पार्टी ने अपनी सोच और रीति−नीति में बदलाव किया। देश के सामने विकास का मॉडल पेश किया गया। इसे मतदाताओं ने स्वीकार भी किया। जिसके परिणामस्वरूप भाजपा केंद्र के साथ आज कई राज्यों में सत्ता में है। इसके विपरीत नक्सलियों के हिमायतियों की देश के संविधान और समाज में आस्था नहीं है। इनको न्यायपालिका तक पर भरोसा नहीं है। जबकि आजादी के बाद देश का इतिहास गवाह है कि उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट ने सैंकड़ों जनहित याचिकाओं के जरिए देश के पिछड़े, गरीब, आदिवासी और दमित लोगों को न्याय दिलाया है। 

यहां तक कि गलत तरीके से चुनी हुई सरकारों को हटाया है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इसका उदाहरण है, जिनका निर्वाचन न्यायालय ने रद्द कर दिया था। श्रीमती गांधी ने भी नक्सलियों की तरह देश को आपातकाल से हांकने की कोशिश की थी, अंततः उनको भी मात खानी पड़ी। आखिरकार लोकतांत्रिक पद्धति से चुनाव के जरिए ही वापस सत्ता नसीब हो सकी। देश का लोकतांत्रिक ढांचा कमजोर बेशक हो किन्तु इतना भी मजबूर भी नहीं कि उसे ताकत के बल पर धकेला जा सके। चुनी हुई सरकारें तक कानून के दायरे से बाहर जाकर मनमर्जी से नहीं चल सकतीं। इसकी पहरेदारी के लिए संविधान में न्यायपालिका के साथ ही स्वतंत्र मीडिया भी खड़ा है। 

नक्सलियों के खैरख्वाहों को शायद इस बात का अंदाजा नहीं है कि विश्व में समाजवाद अपनी मृत्युशैय्या पर आखिरी सांसें गिन रहा है। कम्युनिज्म विलुप्त होने के कगार पर है। लोकतंत्र आने के बाद कभी कम्युनिज्म के प्रमुख केंद्र रहे मास्कों तक से इसके प्रतीक चिन्हों तक को मिटाया गया। विश्व में लोकतंत्र की बयार बह रही है। अरब देश तक इससे अछूते नहीं रह सके। क्यूबा के तानाशाह और कथित समाजवादी फिदेल कास्त्रो को कम्युनिज्म पर बड़ा गुमान था। यही गुरूर क्यूबा को ले डूबा। अमरीका को झुकाने के इरादे में क्यूबा खुद ही भटक कर पटरी से उतर गया। वहां के आर्थिक हालात बेहद शोचनीय हैं। रूस और दूसरे देशों का समाजवादी मुखौटा भी उतर गया। 

इस सिस्टम की सबसे बड़ी खराबी यही रही कि अभिव्यक्ति के अधिकार पर ताले लगा दिए गए। रूस और जर्मनी जैसे देशों को आखिरकार साम्यवाद त्याग कर लोकतांत्रिक सिस्टम अपनाना पड़ा। समाजवादी सैन्य तानाशाह चीन में भी कभी−कभी लोकतंत्र की पदचाप सुनी जा सकती है। लंबे अर्से तक चीन भी पूरी दुनिया से अलग−थलग नहीं रह सकता। कभी न कभी इसका कथित समाजवादी ढांचा भी ढहेगा। यही चीन में भी हो रहा है। चीन नक्सलियों के मामले में सीधा हस्तक्षेप बेशक नहीं करे किन्तु अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के चलते उसी तरह की सहानुभूति रखता है, जिस तरह कश्मीर के मामले में पाकिस्तान से। कश्मीर चूंकि दो देशों का मामला है, इसलिए चीन पाकिस्तान की पैरवी करते हुए सीधे दखलंदाजी करने की कोशिश करता है पर नक्सली अंदरूनी मामला होने से सीधे हस्तक्षेप से बचता रहा है। 

यह निश्चित है कि कठिन भौगोलिक हालात का फायदा उठा कर छिपते फिर रहे नक्सली लंबे अर्से से तक कानून के हाथों से बच नहीं सकेंगे। उनके खैरख्वाह का भी वही अंजाम होगा, जैसा कि हिंसा में लिप्त भटके युवाओं का हो रहा है। देश में नई व्यवस्था लागू करने के सपने बंदूक की नोंक पर कभी पूरे नहीं होंगे। अशिक्षित आदिवासियों के भोलेपन का फायदा उठा कर उन्हें हिंसा के रास्ते पर झोंका गया है। उसी तरह से जैसे कश्मीर के युवकों को कठमुल्ला झोंक रहे हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में भ्रष्टाचार चरम पर रहा। सरकारी कारिन्दों ने आदिवासियों का शोषण करने में कसर बाकी नहीं रखी। जंगल−जमीन से उन्हें बेदखल करने की साजिश की जाती रही। इन्हीं हालातों ने नक्सलवाद को पनपने का मौका दिया। समाजवाद के नाम पर युवाओं को गुमराह करके हथियार थमाए गए। स्वर्ग दिखाने वाली एक काल्पनिक विचारधारा को ठीक उसी तरह उनके दिल−दिमाग में भरा गया, जैसा कि कश्मीर में आतंकी युवाओं का ब्रेनवाश किया जा रहा है। 

अब ताकत के बूते समाजवाद लाने का तिलिस्म तिनके की तरह लगातार टूट रहा है। नक्सलियों के कथित हितैषियों के हौसले पस्त हो रहे हैं। देश का आंतरिक सुरक्षा तंत्र लगातार मजबूत हो रहा है। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा बलों की भारी मौजूदगी और सरकारी विकास के गति पकड़ने से दिग्भ्रमित युवाओं का मोह भंग हो रहा है। इससे इनके पैरोकारों में खलबली मची हुई है। केन्द्रीय गृहमंत्रालय 126 जिलों में से 44 को नक्सलवाद मुक्त घोषित कर चुका है। नक्सली हिंसा की घटनाओं में भी 20 प्रतिशत कमी आई है। कई बड़े नक्सली नेता सुरक्षा बलों के सामने आत्समर्पण करके समाज की मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं। इसके बावजूद नक्सलियों के पैरोकार बुद्धिजीवी अभी भी आतंक के जरिए समाजवाद के ख्वाब पाले हुए हैं। देश का कानून लगातार मजबूत और व्यावहारिक होता जा रहा है। इससे युवाओं को बहका कर हिंसा के रास्ते पर लाने वाले नक्सलियों के निजामों के सपने कभी पूरे नहीं होंगे। 

-योगेन्द्र योगी

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