महिला आरक्षण विधेयक को पारित करवाने का भी साहस दिखाएँ मोदी

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मेरी एक ही उम्मीद है कि विधेयक को संसद में पास कराने के लिए मोदी वैसे ही संकल्पवान बने रहेंगे जैसे वह आज हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह कदम 2019 के आम चुनावों में सिर्फ महिलाओं का वोट लेने के लिए है।

कुछ कारणों, मुख्य रूप में पुरूष−सत्तावाद, से महिला आरक्षण विधेयक को संसद में पारित नहीं किया जा सका है। इसे पहली बार 1996 में लोकसभा में पेश किया गया था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री देवेगौड़ा पद पर थे। 2010 में एक ऐतिहासिक कदम के जरिए कानून बनने के रास्ते में इसकी पहली बाधा दूर होने तक, अतीत की तरह, संसद की हर यात्रा में इस विधेयक को जबर्दस्त नाटक और बाधा का सामना करना पड़ा।

विधेयक लोकसभा तथा राज्य विधान सभाओं की 33 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं को आरक्षण देने का प्रावधान करता है। विधेयक के मसविदे के मुताबिक, लाटरी निकाल कर सीटों को बारी−बारी से इस तरह आरक्षित किया जाएगा कि कोई भी सीट लगातार आने वाले तीन आम चुनावों के दौरान सिर्फ एक बार आरक्षित हो। मसविदे के मुताबिक, महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण संशोधन विधेयक लागू होने के 15 साल बाद खत्म हो जायगा।

वास्तव में, 108वां संशोधन विधेयक या जो महिला आरक्षण विधेयक के नाम से लोकप्रिय है, ने पिछले सप्ताह 12 सितंबर को अपनी मौजूदगी के 21 साल पूरे किए हैं। इतने सालों में, इसे सिर्फ राज्य सभा की सहमति मिली है। पिछले दो दशकों में विधेयक ने संसद के दोनों सदनों में काफी नाटक देखा है जिसका साफ उद्देश्य इस कदम को रोकना था। कुछ सदस्यों ने विधेयक को पेश होने से रोकने के लिए राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी पर शारीरिक रूप से हमले की कोशिश भी की।

विभिन्न सरकारें अलग−अलग कारणों से विधेयक को पारित कराने बहस के लिए लाती रहीं, लेकिन उन्हें विफलता ही हाथ लगी क्योंकि गुस्सा दिखाने की सांसदों की मानसिकता और आपसी वाक्युद्ध, जो कभी−कभी शारीरिक स्तर पर भी चला आता है, के कारण लोकसभा में महिलाओं को अधिक प्रतिनिधित्व दिलाने की लड़ाई पर लगातार विराम लगता रहा।

लेकिन विधेयक को सदन की स्वीकृति नहीं मिली और इसके बदले उसे संयुक्त संसदीय समिति में भेज दिया गया। समिति ने जल्द ही अपनी रिपोर्ट दे दी और 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी, जो पहली नेशनल डेमोक्रेटिक अलाएंस सरकार के मुखिया थे, ने विधेयक को लोकसभा में फिर से पेश किया। कानून मंत्री थंबीदुरई ने विधेयक को पेश किया तो राष्ट्रीय जनता दल के एक सदस्य ने लोकसभा अध्यक्ष से इसे छीनकर टुकड़े−टुकड़े कर दिए। इसके बाद 1999, 2002 तथा 2003 में हर बार लोकसभा का सत्र खत्म होने के साथ ही विधेयक सदन के सामने से हट गया और इसे दोबारा पेश करना पड़ा।

दुर्भाग्य से, इन सालों में कई पुरूष सांसदों ने विधेयक के पारति होने का विरोध किया है जिस कारण यह मौजूदा स्थिति में ही पड़ा है। इसके बावजूद कि कांग्रेस, वामपंथी पार्टियां तथा भाजपा इसे खुला समर्थन व्यक्त करती रही हैं, यह लोकसभा में पारित नहीं हो पाया। बेशक, जैसा कि राजनीतिक जानकारों का मानना है कि 1998 में वाजपेयी सरकार टिके रहने के लिए कई पार्टियों के समर्थन पर निर्भर थी और इसी वजह से वह जोर लगाने की स्थिति में नहीं थी।

हालांकि 1999 के मध्यावधि चुनाव के बाद नेशनल डेमोक्रेटिक अलाएंस (एनडीए) 544 में से 303 सीटें लेकर बहुमत पा गया और वाजपेयी सत्ता में आ गए। इस बार वे ऐसी परिस्थिति में धकेल दिए गए थे कि उन्हें सभी पार्टियों को इकट्ठा रखना था। लेकिन कांग्रेस तथा वामपंथी पार्टियों के समर्थन से सदन में इसे पारित कराया जा सकता था, अगर विधेयक पर औपचारिक रूप से वोट कराया जाता। लेकिन ऐसा नहीं होना था।

2004 के लोकसभा चुनावों के ठीक पहले, वाजपेयी ने कांग्रेस पर विधेयक को रोकने का आरोप लगाया और कहा कि अगर चुनावों में भाजपा तथा उसकी सहयोगी पार्टियों को जनमत मिल गया तो वे इसे पारित कर देंगी। 2004 में, यूपीए सरकार ने इसे साझा न्यूनतम कार्यक्रम में शामिल कर लिया था जिसमें कहा गया, ''विधान सभाओं तथा लोकसभा में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने के लिए विधेयक पेश करने में यूपीए सरकार अगुआई करेगी।'' 2005 में, भाजपा ने विधेयक को पूर्ण समर्थन देने की घोषणा की।

2008 में, मनमोहन सिंह सरकार ने राज्यसभा में विधेयक पेश किया। दो साल बाद, 9 मार्च 2010 को उस समय एक बड़ी राजनीतिक बाधा दूर हो गई, जब काफी नाटक और सदस्यों के बीच झगड़े के बावजूद सदन ने इसे पारित कर दिया। भाजपा, वामपंथी पार्टियां और कुछ अन्य पार्टियां ऊपरी सदन में विधेयक को पास करने के लिए सत्ताधारी कांग्रेस के साथ आ गर्इं।

उस क्षण के सात साल बीत गए जब तीन प्रमुख राजनीतिक पार्टियों की शीर्ष महिला नेताओं− सोनिया गांधी, सुषमा स्वराज तथा वृंदा करात ने इस ऐतिहासिक क्षण पर स्वतःस्फूर्त जश्न मनाने के लिए एक दूसरे के हाथ में हाथ डालकर मीडिया फोटोग्राफरों को एक दुर्लभ अवसर प्रदान किया। लेकिन, 2017 में, यह अभी तक अस्तित्व में नहीं आ पाया है, सिर्फ इसलिए कि इसे कानून बनाने के लिए नीचे के सदन में राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं है। यूपीए−दो सरकार लोकसभा में 262 सीटों के बावजूद इसे संभव नहीं कर पाई और उसने गठबंधन में होने का वही बहाना बनाया।

सौभाग्य से, भाजपा को यह लाचारी नहीं है। पार्टी के पास विधेयक पारित करने की ताकत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी संकल्प कर रखा है कि विधेयक उनके पास पहुंचे। लेकिन अगर विधेयक कानून बन जाता है तो मुझे अचरज ही होगा। किसी भी पार्टी के पुरूष सांसद महिलाओं के साथ सत्ता साझा नहीं करना चाहते हैं। जब वे घर में ही उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं करते तो वे यही मानते हैं कि महिलाओं को एक सीमा से ज्यादा ताकत नहीं मिलनी चाहिए।

सच है, मोदी ने महिला को पहली बार रक्षा मंत्री बनाया है। यह पहले के मुकाबले काफी हटकर है। यहां तक कि अत्यंत शक्तिशाली इंदिरा गांधी भी केवल विदेश मंत्रालय रखती थीं। लेकिन विदेश और रक्षा, दोनों को महिलाओं के पास देना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से उठाया गया एक साहसिक कदम है। यह मोदी की सकारात्मक सोच के संकेत हैं।

मेरी एक ही उम्मीद है कि विधेयक को संसद में पास कराने के लिए मोदी वैसे ही संकल्पवान बने रहेंगे जैसे वह आज हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह कदम 2019 के आम चुनावों में सिर्फ महिलाओं का वोट लेने के लिए है। कोई भी कारण हो, अगर लोकसभा में वे पर्याप्त सख्ंया में होती हैं तो वे भारत के प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा पाएंगी। 

- कुलदीप नैय्यर

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