सुप्रीम कोर्ट से केंद्र को लगा जोर का झटका धीरे से

Supreme Court
ANI

दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के जरिए किसी की गिरफ्तारी के लिए पुलिस के सामने एक साफ-साफ लकीर खींच दी है। कोर्ट ने साफ कहा कि गिरफ्तारी के वक्त पुलिस को इसका आधार लिखित तौर पर देना होगा।

देश की शीर्ष अदालत ने दो मामलों में केंद्र सरकार को जोर का झटका धीरे से देते हुए यह जाहिर कर दिया कि कानूनों की मनमानी व्याख्या अपनी सुविधा के हिसाब से नहीं की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट के ईडी की गिरफ्तार करने की शक्तियों को सीमित करने के  साथ ही दूसरे मामले में एक वरिष्ठ पत्रकार की गिरफ्तारी को अवैध करार देने से केंद्र को यह झटका लगा है। इन दोनों मामलों में दिए गए फैसलों से बेशक केंद्र की भाजपा सरकार को व्यापक राजनीतिक नुकसान नहीं हो किन्तु इसके दूरगामी परिणाम अवश्यंभावी होंगे। परिणाम यह होगा कि ईडी अब आसानी से किसी के खिलाफ गिरफ्तारी की कार्रवाई नहीं कर सकेगी। इसी तरह पुलिस खिलाफ खबर पर किसी पत्रकार को भी आसानी से गिरफ्तार नहीं कर सकेगी। ईडी की कार्रवाई में कितने कानूनी तथ्य हैं, यह देखने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अधिनस्थ अदालतों को रैफ्री की भूमिका दी है। गौरतलब है कि लंबे अर्से से विपक्षी दल केंद्रीय एजेंसियों पर भेदभाव के आरोप लगाती रहीं हैं। विपक्षी दलों का आरोप है केंद्र सरकार राजनीतिक रंजिशवश इन एजेंसियों को दुरुपयोग कर रही है। एक याचिकाकर्ता ने दिसंबर 2023 में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के एक आदेश को चुनौती दी थी। 

याचिकाकर्ता का सवाल था कि अगर विशेष अदालत ने मनी लॉन्ड्रिंग मामले में व्यक्ति विशेष के आरोपों को संज्ञान में ले लिया है, तो क्या तब भी उसे बेल के लिए सेक्शन 45 की दोहरी शर्तों को पूरा करना होगा। इस मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद धन-शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (पीएमएलए) प्रावधानों के तहत जमानत की कड़ी शर्तों को संतुष्ट करने की जरूरत नहीं है। अगर आरोपी समन द्वारा विशेष अदालत के समक्ष पेश होता है, तो यह नहीं माना जा सकता कि वह हिरासत में है। अगर अदालती समन के चलते पेश होने के बाद ईडी आरोपी की हिरासत चाहती है, तो उसे विशेष अदालत में आवेदन देना होगा। अदालत केवल उन कारणों के साथ हिरासत देगी, जो संतोषजनक हो और जिनमें हिरासत में लेकर पूछताछ की जरूरत हो। जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस उज्जल भुइयां की बेंच ने यह फैसला सुनाया है। बेंच ने कहा है कि अगर किसी मामले में ईडी ने किसी आरोपी को गिरफ्तार किए बिना चार्जशीट दाखिल की और अदालत ने इस पर संज्ञान लेकर उसे समन किया तो ऐसे व्यक्ति को पीएमएलए के तहत जमानत के लिए दोहरी शर्तों को पूरा करने की आवश्यकता नहीं है।

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पीएमएलए को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान 2002-03 में लाया गया था। बाद में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान 1 जुलाई, 2005 को इसे लागू किया गया। उस वक्त इस कानून को ब्लैक मनी के फ्लो को रोकने के उद्देश्य से बनाया गया था। पीएमएलए कानून के तहत सबसे पहले झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री सीएम मधु कोडा के खिलाफ कार्रवाई की गई थी। इसके बाद साल 2010 में 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कोयला घोटाला समेत कई बड़े घोटालों में इस कानून के तहत कार्रवाई हुई। फिर साल 2012 में तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने इसमें संशोधन भी किया था। बीते कुछ सालों में इस एक्ट में और भी कई बदलाव किए गए हैं। ईडी की शक्तियां सीमित करने के साथ केंद्र सरकार को दूसरा झटका लगा न्यूज क्लिक के फाउंडर संपादक प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी को लेकर। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद न्यूज क्लिक के फाउंडर प्रबीर पुरकायस्थ को  रिहा कर दिया गया। न्यूजक्लिक फाउंडर पुरकायस्थ को पोर्टल के माध्यम से राष्ट्र-विरोधी प्रचार को बढ़ावा देने के लिए कथित चीनी फंडिंग के मामले में गिरफ्तार किया गया था। पुरकायस्थ के खिलाफ आरोप लगाया गया कि न्यूजक्लिक को चीन के पक्ष में प्रचार के लिए कथित तौर पर धन मिला था। देश की सबसे बड़ी अदालत ने यूएपीए मामले में उनकी गिरफ्तारी और रिमांड को गलत माना। कोर्ट का यह फैसला अपने आप में एक नजीर है। इसका असर आने वाले दिनों में दूसरे फैसलों पर भी दिख सकता है। 

दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के जरिए किसी की गिरफ्तारी के लिए पुलिस के सामने एक साफ-साफ लकीर खींच दी है। कोर्ट ने साफ कहा कि गिरफ्तारी के वक्त पुलिस को इसका आधार लिखित तौर पर देना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 20, 21 और 22 के तहत सबसे अटूट मौलिक अधिकार है। इसे भी किसी तरह नजरअंदाज या अनदेखा नहीं किया जा सकता है। सुनवाई के दौरान कोर्ट की कही इस बात का स्पष्ट संदेश है कि हर नागरिक के लिए जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार की अपनी विशेष अहमियत है। इस मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यूएपीए या अन्य कानून के तहत किसी भी शख्स की गिरफ्तारी से पहले अब पुलिस को पहले लिखित में ये बताना जरूरी होगा कि उसकी गिरफ्तारी किस आधार पर की जा रही है। इसके लिए लिखित में भी सूचित करना होगा। कोर्ट ने सुनवाई के दौरान ये भी साफ कर दिया है कि किसी भी इंसान के लिए कानूनी कार्रवाई एक जैसी होनी चाहिए और उसे किसी हाल में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। 

न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि गिरफ्तारी के ऐसे लिखित आधारों की एक कॉपी गिरफ्तार किए गए शख्स को बिना किसी अपवाद के जल्द से जल्द दी जानी चाहिए। कोर्ट की इस टिप्पणी से ये साफ हो गया कि गिरफ्तार शख्स को हर हाल में जल्द से जल्द गिरफ्तारी के लिखित आधारों की एक कॉपी मिलनी चाहिए, ताकि उसे अपने खिलाफ हो रही कार्रवाई की पूरी जानकारी हो। जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई झिझक नहीं है कि लिखित रूप में गिरफ्तारी के लिए रिमांड कॉपी नहीं दी गई, जिसके चलते गिरफ्तारी अवैध है। जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने जो कहा उससे इस बात की रिमांड की कॉपी ना मिलने पर गिरफ्तारी को भी अवैध साबित किया जा सकता है। कोर्ट ने मौलिक अधिकार पर अतिक्रमण करने के किसी भी प्रयास को अस्वीकार कर दिया। 

कोर्ट ने कहा कि इस प्रकार, संविधान के अनुच्छेद 20, 21 और 22 द्वारा ऐसे मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने के किसी भी प्रयास से सख्ती से निपटना होगा। कोर्ट की इस टिप्पणी से भी साफ हो रहा है कि अगर ऐसा होता है तो उसे इंसान के मौलिक अधिकार का हनन माना जाएगा। फैसला लिखते हुए, न्यायमूर्ति मेहता ने कहा कि पुरकायस्थ की गिरफ्तारी, उसके बाद पिछले साल 4 अक्टूबर का रिमांड आदेश और दिल्ली उच्च न्यायालय का 15 अक्टूबर का रिमांड को वैध करने का आदेश, कानून के विपरीत था और इसलिए इसे रद्द कर दिया गया। इस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यूएपीए या अन्य अपराधों के आरोप में गिरफ्तार किए गए किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार के बारे में लिखित रूप में सूचित किया जाना मौलिक और वैधानिक अधिकार है। किसी को भी ऐसे ही नहीं उठा सकते।   

सुप्रीम कोर्ट के इन दोनों आदेशों से स्पष्ट है कि पुलिस और केंद्रीय एजेंसियां आंख बंद करके कोई कार्रवाई नहीं कर सकेंगी। न्यूज क्लिक के फाउंडर की गिरफ्तारी के अवैध करार देने से यह भी साफ हो गया है कि सरकार विरोधी खबरें लिखने-दिखाने पर राजनीतिक दल सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल दुर्भावनावश नहीं कर सकती। शीर्ष कोर्ट के इस फैसले से निश्चित तौर पर प्रेस की आजादी से एक बड़ा डर समाप्त हो गया है।

- योगेन्द्र योगी

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