एशियाई खेलों में अपने रिकॉर्डों पर खुश होने की बजाय जरा चीन को देखें

china-make-more-records-in-asian-games

जकार्ता में सम्पन्न एशियाई खेलों में भारत ने बेशक कई स्पर्धाओं में रिकॉर्ड तोड़ने के साथ ही पदकों का नया रिकॉर्ड बनाया हो किन्तु सवा अरब की आबादी वाले देश के लिए यह उपलब्धि बौनी ही नजर आती है।

जकार्ता में सम्पन्न एशियाई खेलों में भारत ने बेशक कई स्पर्धाओं में रिकॉर्ड तोड़ने के साथ ही पदकों का नया रिकॉर्ड बनाया हो किन्तु सवा अरब की आबादी वाले देश के लिए यह उपलब्धि बौनी ही नजर आती है। चीन जैसा पड़ोसी देश दशकों से एशियाई खेलों का सरताज बना हुआ है। भारत के खेल संगठन और सरकारें आखिर कब आत्मचिंतन करेंगी कि एशियाई या विश्व स्तर के खेलों के आयोजन में भारत अपनी आबादी के हिसाब से सम्मानजनक स्थान हासिल कर सकेगा। खेलों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भद्द पिटवाने के बाद भी देश का आत्मसम्मान और राष्ट्रवाद क्यों नहीं जागता है। 

निराशाजनक को संतोषजनक कहने पर भरी जाने वाली आहें आखिर देशभक्ति से क्यों नहीं जुड़तीं। एशियाई खेलों में हासिल पदकों से साफ है कि भारत ने एकल स्पर्धाओं में ही बाजी मारी है। इनमें ज्यादातर पदक खिलाड़ियों ने अपने बलबूते जीते हैं। टीम वाले खेल अलबत्ता तो कहीं नजर ही नहीं आये, रही−सही कसर हाकी की महिला और पुरूष टीमों ने पूरी कर दी। टीम स्पर्धाओं में भारत की एकमात्र आशा इन्हीं पर टिकी हुई थी। इन्होंने भी निराश किया। महिला हॉकी टीम फाइनल में पहुंचने के बाद भी जापान से हार बैठी। पुरूष टीम ने महिला टीम से भी ज्यादा निराश किया। महिला हॉकी ने जहां रजत जीता वहीं पुरूष टीम को पेनल्टी शूटआउट में मलेशिया से हार कर कांसा ही हाथ लगा। अब गोल्ड मेडल नहीं जीतने से हॉकी टीम को ओलम्पिक के क्वालीफाई दौर से गुजरना पड़ेगा। 

टीम स्पर्धाओं में सिर्फ हाकी की टीमों का प्रदर्शन ही संतोष करने लायक मानना मजबूरी है। अन्य सामूहिक प्रदर्शन करने वाले खेलों में तो हालात शर्मनाक रहे। पूरे एशियाई खेलों में बॉस्केटबाल, वॉलीबाल, फुटबाल और हैंडबाल की टीमें नजर ही नहीं आईं। खेलों के नाम पर इससे ज्यादा किरकिरी क्या हो सकती है कि फुटबाल की टीम ने तो भाग ही नहीं लिया। फुटबाल की पुरूष और महिला टीमें प्रतिस्पर्धा में शामिल होने के निर्धारित मानदंडों को पूरा नहीं कर सकीं। इससे टीम वाले खेलों में भारत का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा है। यह सिलसिला दशकों से चला आ रहा है। भारत समूह वाले खेलों में एशिया स्तर पर पिछड़ा हुआ है। विश्व स्तर की बात तो दूर रही बल्कि एशिया के स्तर पर चीन, जापान और कोरिया और अन्य देशों के लगातार आगे रहने से अफसोस जताने से ज्यादा कुछ नहीं किया जा सका। टीम वालों खेलों में भी वाटर पोलो जैसे खेलों की तो अभी भारत में कल्पना ही की जा सकती है। एशियाई खेलों के प्रदर्शन से जाहिर है कि एकल स्पर्धाओं वाले खेलों के प्रदर्शन में ही लगातार सुधार हो रहा है। नौकाचालन, एथलेटिक्स, बॉक्सिंग, टेनिस, टीटी और कुश्ती में भारत आगे बढ़ रहा है। दरअसल एकल खेलों में खेल संगठनों को दखलंदाजी करने का ज्यादा मौका नहीं मिलता। इसमें खिलाड़ी की व्यक्तिगत उपलब्धि ही उसे आगे ले जाती है। एकल र्स्पधाओं में खिलाड़ी को अपने स्तर ही पर ही प्रदर्शन करना होता है, जबकि टीम स्तर पर पूरी टीम पर ही दारोमदार होता है। 

एकल स्पर्धाओं में एशियाई खेलों में पदक जीतने वाले कई खिलाड़ियों की संघर्ष की दास्तान मीडिया की सुर्खियां बनीं। 400 मीटर में रजत जीतने वाली हिमा दास का परिवार मामूली पशुपालन और कृषि पर आधारित है। ऐसी ही संघर्षभरी दास्तानें अन्य खिलाड़ियों की भी हैं। देश के युवा खिलाड़ी स्वप्ना बर्मन से सीख ले सकते हैं। रिक्शा चालक पिता और चाय बेच कर गुजारा करने वाली मां ने भी स्वप्ना के हौसले कमजोर नहीं पड़ने दिए। अनफिट जूतों और जबड़े के दर्द से जूझने के बाद भी स्वप्ना ने हेप्पटाथलन में स्वर्ण पदक जीत कर देश का नाम रौशन कर दिया। हिमा और स्वप्ना के जुझारूपन से जाहिर है कि साधन और सुविधाओं का अभाव भी जज्बे में बाधा नहीं बन सकता। बशर्ते हौसले कमजोर नहीं किए जाएं। 

खिलाड़ियों के प्रति खेल संगठनों की मानसिकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 200 मीटर की दौड़ में रजत जीतने वाली धावक ओडिशा की दुत्ती चंद को भारतीय एथलेटिक्स संघ ने वर्ष 2014 के राष्ट्रमंडल और एशियाई खेलों में नहीं जाने दिया। संघ की मनमानी के खिलाफ उसे अदालत की शरण में जाकर राहत लेने को विवश होना पड़ा। केंद्र हों या राज्यों की सरकारें, खिलाड़ियों की आर्थिक मदद के पैकेज की घोषणा तभी करती हैं, जब एशिया या विश्व स्तर पर कोई उपलब्धि हासिल हो। इस स्तर तक पहुंचने के लिए खिलाड़ियों को अपने बलबूते ही साधन−संसाधन जुटाने पड़ते हैं। घोषित राशि का कुछ हिस्सा यदि प्रतिभावान खिलाड़ियों को पहले मिल जाए तो उनकी राहें आसान हो सकती हैं। 

एकल स्पर्धाओं में खिलाड़ियों के राष्ट्रीय या विश्व स्तर पर किए गए प्रदर्शन को कमतर आंकना आसान नहीं होता। इनमें से ज्यादातर की उपलब्धियों का सीधा संबंध माप या खिलाड़ी के टाइमिंग से होता है। खेल संगठन चाह कर भी इनके रिकार्ड से छेड़छाड़ नहीं कर सकते। इसके विपरीत सामूहिक स्पर्धा वाले खेलों में दखलंदाजी की पूरी गुंजाइश रहती है। इनमें किसी एक खिलाड़ी का बेहतर प्रदर्शन काम नहीं आता। समूची टीम को ही जीत हासिल करनी होती है। बस यहीं से गड़बड़ी की शुरुआत होती है। कमजोर प्रदर्शन करने वालों को भी टीम में शामिल होने का मौका मिल जाता है। एकल खेलों के प्रदर्शन से यह भी साफ हो गया है कि कम सुविधाओं और संघर्षों के बावजूद जीत सुनिश्चित की जा सकती है। सरकार और खेल संगठनों के भरोसे नहीं बैठा जा सकता। 

इसके विपरीत सामूहिक स्पर्धा के खेलों में चयन की डोर खेल संगठनों के हाथ में रहती है। टीम में किस खिलाड़ी को शामिल किया जाएगा और किसे नहीं, यह पूरी तरह खेल ऐसोसिएशन तय करती है। यह निश्चित है कि जब तक खेल संगठनों की दखलंदाजी और खिलाड़ियों के चयन में भेदभाव खत्म नहीं होगा, तब तक फुटबाल, वॉलीबाल, हैंडबाल और बॉस्केटबाल जैसे समूह वाले खेलों में भारत को वैश्विक स्पर्धाओं में एशियाई खेलों की तरह शर्मिंदगी का सामना करना पड़ेगा।

-योगेन्द्र योगी

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़