जीत की खुशी में कांग्रेस दो राज्यों में हुए अपने सफाये को ही भूल गयी

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कांग्रेस सिर्फ उन्हीं राज्यों में मजबूत है जहां भाजपा से उसका सीधा मुकाबला है। जिन-जिन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां हावी हैं वहां कांग्रेस की हालत पतली है और उसे सहयोगियों की बैसाखी की सख्त जरूरत है।

छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस को मिली जीत इतनी बड़ी है कि अन्य लोगों की तो छोड़ दीजिये कांग्रेस का भी ध्यान शायद इस बात की ओर नहीं गया कि इन दो राज्यों में पार्टी की करारी हार हुई है। मिजोरम में तो कांग्रेस लगातार दो बार से सत्ता में थी वहां पार्टी की ना सिर्फ करारी हार हुई है बल्कि यह हार कई मायनों में ऐतिहासिक भी है। मिजोरम में कांग्रेस सरकार का नेतृत्व करते रहे मुख्यमंत्री ललथनहावला जोकि 2013 में हुए विधानसभा चुनावों में लगातार 9वीं बार विधायक चुने गये थे और एक साथ दो सीटों से विधायक बने थे, वह ललथनहावला इस बार दोनों सीटों पर अपना चुनाव खुद हार गये। मिजोरम में कांग्रेस की हार के बड़े कारणों में दस साल की सत्ता विरोधी लहर के अलावा कांग्रेस सरकार की मद्य नीति भी है। जनता ने शायद उदार मद्य नीति की वजह से ललथनहवला को नकार दिया।

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उत्तर-पूर्व हो गया कांग्रेस मुक्त

यही नहीं मिजोरम की सत्ता गँवाते ही कांग्रेस भारत के उत्तर-पूर्व भूभाग से पूरी तरह साफ हो गयी है क्योंकि इस क्षेत्र का यही एकमात्र राज्य था जहाँ कांग्रेस की सरकार बची हुई थी। छत्तीसगढ़ में भाजपा का सूपड़ा साफ होने की बात कहने वालों की नजर जरा मिजोरम पर भी जानी चाहिए जहां 40 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के पास पिछली बार 34 सीटें थीं वहीं अब वह मात्र 5 पर सिमट गयी है। जो विश्लेषक कांग्रेस की मिजोरम में करारी हार को गंभीरता से नहीं ले रहे उन्हें यह पता होना चाहिए कि उत्तर-पूर्व में लोकसभा की 21 सीटें हैं और इन सभी सीटों पर पार्टी एक तरह से कमजोर हो गयी है।

क्षेत्रीय दलों के प्रभुत्व वाले राज्यों में कांग्रेस कमजोर

2019 में कांग्रेस का काम सिर्फ पंजाब, राजस्थान, पुडुचेरी, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश से नहीं चलेगा बल्कि उसे देश के हर भूभाग में अच्छा प्रदर्शन करना पड़ेगा। लेकिन ऐसा करने के लिए कांग्रेस को कड़ी मेहनत करनी होगी क्योंकि अभी जो राजनीतिक हालात हैं, कांग्रेस सिर्फ उन्हीं राज्यों में मजबूत है जहां भाजपा से उसका सीधा मुकाबला है। जिन-जिन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां हावी हैं वहां कांग्रेस की हालत पतली है और उसे सहयोगियों की बैसाखी की सख्त जरूरत है। ऐसे राज्यों में जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड, केरल और उत्तर-पूर्व के राज्य शामिल हैं।

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तेलंगाना में कांग्रेस की हार के बड़े कारण

इसके अलावा तेलंगाना में कांग्रेस ने बड़ा निर्णय करते हुए आंध्र प्रदेश में अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी तेलुगू देशम पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा था लेकिन कुछ काम नहीं आया। तेलंगाना में तो संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी तक ने पार्टी के लिए रैली की थी जबकि वह अन्य चार राज्यों में एक भी रैली को संबोधित करने नहीं गईं। यही नहीं राहुल गांधी और तेदेपा अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू ने एक मंच से चुनावी सभा को संबोधित किया लेकिन केसीआर के नेतृत्व वाली तेलंगाना राष्ट्र समिति सरकार की लहर में यह गठबंधन कहीं टिक नहीं पाया। कांग्रेस जहाँ उत्तर भारत में हिंदूवादी राजनीति कर रही थी वहीं तेलंगाना में तो उसने अपने घोषणापत्र में मुस्लिमों के लिए अलग से जो सहुलियतें देने की घोषणा की थी उससे उसका तुष्टिकरण की राजनीति करने वाला चेहरा ही उजागर हुआ था। लेकिन यह सब कुछ काम नहीं आया और कांग्रेस को 28.4 प्रतिशत मतों से संतोष करना पड़ा। इसके अलावा कांग्रेस का कमजोर संगठन भी यहां पार्टी की हार के कारणों में प्रमुख रहा।

राहुल गांधी का तेलंगाना में फैसला गलत साबित हुआ

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का तेलंगाना में तेदेपा के साथ गठबंधन का फैसला कांग्रेस के लिए आत्मघाती साबित हुआ क्योंकि इससे तेलंगाना की जनता में गलत संदेश गया। दरअसल तेदेपा अलग तेलंगाना राज्य के गठन की विरोधी थी और इसी कारण यहाँ की जनता में उसके खिलाफ नाराजगी है। लेकिन भाजपा को सबक सिखाने का जुनून राहुल गांधी पर इस कदर हावी है कि उन्होंने तेलंगाना में कांग्रेस की पांच साल की मेहनत पर पानी फेर दिया और दोबारा से केसीआर की सरकार बनवा दी। कांग्रेस को चंद्रबाबू नायडू से सावधान रहना चाहिए क्योंकि यदि आज वह उसके साथ खड़े नजर आ रहे हैं तो सिर्फ अपने स्वार्थ की वजह से। उनका इतिहास रहा है कि वह सत्ता के लिए पाला बदलते रहते हैं और कभी भी किसी एक के नहीं रहे।

केसीआर की आंधी में उड़ गयीं सब पार्टियां

तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव की अगुवाई वाली टीआरएस ने राज्य में 88 सीटों पर जीत हासिल की है और इसने कांग्रेस-तेदेपा के नेतृत्व वाले ‘पीपुल्स फ्रंट’ की चुनौती को ध्वस्त कर दिया है। इस गठबंधन में टीजेएस और भाकपा भी शामिल थी। चुनाव आयोग द्वारा मुहैया कराये गये आंकड़ों के मुताबिक, टीआरएस को 2014 के चुनाव में 63 सीटें मिली थीं और उसे करीब 34.3 प्रतिशत वोट मिला था। इस बार कांग्रेस को 28.4 प्रतिशत वोट मिला और उसने 19 सीटें हासिल की जो पिछले बार हासिल की गयी सीटों की संख्या से दो कम है। तेदेपा को केवल दो सीटें मिली जबकि 2014 में उसे कुल 15 सीटें मिली थी। गठबंधन के दो अन्य सहयोगी तो खाता खोलने में भी विफल रहे। भाजपा को सात प्रतिशत, तेदेपा को तीन प्रतिशत और असादुद्दीन ओवैसी की अगुवाई वाली एआईएमआईएम को 2.7 प्रतिशत वोट मिला।

बहरहाल, यह साफ है कि सत्ता के सेमीफाइनल में मिली विजय ने यदि कांग्रेस में अति-आत्मविश्वास भर दिया तो यह पार्टी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। कांग्रेस को पिछली गलतियों से सबक लेकर आगे बढ़ना होगा और उन राज्यों पर खास ध्यान देना होगा जहां उसकी भाजपा से सीधी लड़ाई नहीं है। दक्षिण में पाँव जमाने के लिए भी कांग्रेस को सही रणनीति की जरूरत है और अचानक से प्रतिद्वंद्वियों को दोस्त बनाना जनता को भाता नहीं, यह संदेश तेलंगाना की जनता ने दे दिया है।

-नीरज कुमार दुबे

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