देश आजाद कराने का श्रेय लेने वाली कांग्रेस ने असल में देश बांटा

Congress responsible for partition of the country
तरुण विजय । Jul 24 2017 12:05PM

जो कांग्रेसी आज कह रहे हैं कि देश उनकी वजह से आजाद हुआ उनको बताना चाहिए कि उनकी वजह से देश बंटा, आजाद हुआ तो सुभाष बोस और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के कारण जो कभी कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण नहीं रहे।

जनस्मृति बहुत क्षीण होती है। जो कांग्रेसी आज कह रहे हैं कि देश उनकी वजह से आजाद हुआ उनको बताना चाहिए कि उनकी वजह से देश बंटा, आजाद हुआ तो सुभाष बोस और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के कारण जो कभी कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण नहीं रहे। 15 अगस्त 1947 को खंडित एवं निर्दोष भारतीयों के रक्त से स्नात भारत अभी संभला भी न था कि सितंबर में पाकिस्तान ने हमला किया और फिर चीन ने अक्साई चिन हड़प लिया। नेहरू के कारण भारत ने 1.25 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि पाकिस्तान और चीन के हाथों जाने दी।

आश्चर्य होता है कि सत्तर वर्ष बीत गए लेकिन कभी नेहरू वंशीय कांग्रेस को कठघरे में खड़ा कर यह सीधा सवाल नहीं पूछ गया कि स्वतंत्र भारत की सवा लाख वर्ग किमी जमीन जो चीन और पाकिस्तान के हाथों गंवा दी उसके बारे में कांग्रेस पार्टी ने कितने प्रस्ताव पारित किए, कितने चुनाव घोषणा पत्रों में उस भूमि को वापस लेने का संकल्प व्यक्त किया गया और जब कांग्रेस नेता चीन यात्रा पर गए तो क्या उन्होंने चीनी नेताओं से वार्ता के समय उस भूमि के बारे में चर्चा की? यह तो केवल श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रधानमंत्रित्व काल में सीमा विवाद चर्चा के माध्यम से हल करने का आयोग बनाया गया। वरना कांग्रेस तो इसे 'भूला हुआ विजय' मान बैठी थी।

कांग्रेस के समय पंडित नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में भारतीय जनसंघ के प्रथम अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का श्रीनगर में रहस्यमय परिस्थिति में देहांत हुआ। इस पर लोकसभा में चर्चा करते हुए पं. अटल बिहारी वाजपेयी ने उसे नेहरू-शेख अब्दुल्ला दुरभि संधि से हुई 'हत्या' बताया था। नेहरू के समय संसद में हुई तमाम चर्चाओं एवं भाषणों में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु सदा 'हत्या' ही निरूपित की गयी।

नेहरू की चीन के साथ मायावी मित्रता का भी भारत को बहुत खामियाजा उठाना पड़ा। 1948 में भारत को सुरक्षा परिषद की सदस्या मिल रही थी, लेकिन कम्युनिस्ट चीन से मित्रता के लोभ में पं. नेहरू ने न केवल राष्ट्र संघ की सदस्यता हेतु चीन का समर्थन किया बल्कि सुरक्षा परिषद की जीत चीन को दिलवाई। ऐसी 'पंचशील' घनिष्ठता हुई कि चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई एक वर्ष में छह बार भारत यात्रा पर आए और लाल किले में उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया गया।

नतीजा? 1962 और तैयारी ऐसी कि जवानों के पास न तो सर्दी के जूते और जुराबें और न ही हथियार। जनरल कौल की अध्यक्षता और पं. नेहरू की अव्यावहारिक नीति ने नेफा और लद्दाख में चीनी शिंकजे को कसने दिया और हारे हुए मन से नेहरू ने आल इंडिया रेडियो से असम के तेजपुर निवासियों को विदा ही दे दी थी। उस युद्ध में भारतीय सेना जीती, मेजर शैतान सिंह का शौर्य, राइफल मैन जसबत सिंह रावत था। पराक्रम रक्त से लिखी गौरव गाथा है। हारा था तो दिल्ली का राजनीतिक नेतृत्व।

स्वतंत्र भारत का पहला भ्रष्टाचार कांड जीप घोटाला नाम से प्रख्यात है। पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया था, सेना के पास जीपें नहीं थीं। तुरन्त किसी भी कीमत पर जीपें खरीदने का आदेश दिया गया। तब लंदन में भारतीय उच्चायुक्त टीटी कृष्णपाचारी थे। विली मार्का जीपें खरीदी गयीं। युद्ध समाप्त होने के अठारह माह बाद जीपें आयीं। संसद उस कांड से हिल उठी थी। यह भी नेहरू की देन है।

हिंदू मन और हिंदू जीवन पद्धति से इतनी घृणा कि नेहरू वाद वस्तुतः अहिन्दूवाद में तब्दील हो गया। तत्कालीन मीडिया पर नेहरू का इतना एकाधिकारवादी शिकंजा था कि नेहरू समर्थक विचार के अलावा और कुछ छपता ही न था। यही कारण रहा कि राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री मा. स. गोलवलकर ने देश की विभिन्न भाषाओं में राष्ट्रीयता के विचारों को महत्व देने वाली पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन को आरंभ करवाया। वास्तव में तत्कालीन वैचारिक स्टालिनवाद एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नेहरूवादी आघात के विरुद्ध पांचजन्य, आर्गेनाइजर, स्वदेश, राष्ट्रधर्म, साधना, केसरी, जन्मभूमि, राष्ट्रदीप, स्वास्तिका, जागृति, विक्रम, आदि का प्रकाशन भारतीय मुक्त विचार की परम्परा का शंखनाद ही था। नेहरू 'लिबरल' विचारक नहीं बल्कि भिन्न विचार के प्रति असहिष्णु शासक थे।

असहिष्णुता का यह अहंकार कांग्रेस की राजनीति में हर कदम पर दिखा। कांग्रेस ने कभी राष्ट्र द्वारा सम्मानित एवं जन मन में लोकप्रिय कांग्रेसी नेताओं को अपनी नक्षत्र-धारा का अंग ही नहीं बनाया।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल, पुरुषोत्तम दास टंडन, डॉ. सम्पूर्णानंद, क.मा. मुंशी, लाल बहादुर शास्त्री जैसी अनेक विभूतियां केवल प्रखर राष्ट्रीयता के भाव के कारण जनप्रिय हुईं एवं उन्हें असीम जन-सम्मान मिला परंतु नेहरू वंशीय कांग्रेसी नेतृत्व ने उन्हें नकार दिया। कभी भी उन्हें नेहरू गांधी खानदानी नेतृत्व के समकक्ष सम्मान नहीं दिया।

नेहरू गांधी वंश के नेतृत्व ने न केवल भारत की भूमि शत्रुओं के हाथों गंवायी, बल्कि भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप दिया। जीप घोटालों, मूंघड़ा घोटाला, बीमा घोटाला, नागर वाला कांड, ललित नारायण मिश्रा हत्याकांड, कश्मीर समस्या का जन्म, धारा 370 लगाना, जम्मू कश्मीर को दूसरे ध्वज की अनुमति, विदेशी धन और मन पर पले कम्युनिस्टों से दोस्ती और देशभक्त राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध, आपातकाल लगाकर अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता को कुचलना और लोकतंत्र के प्रहरियों पर अमानुषिक अत्याचार, बोफोर्स घोटाला, पनडुब्बी घोटाला, अंतरिक्ष कम्पनी घोटाला, कोयला खदानों का भयानक घोटाला, 2जी, 3जी घोटाला... यह सूची अनंत है। यह सब केवल और केवल नेहरू गांधी वंशजों के सत्ता सुख के लिए देश पर किए गए आघात हैं।

इस देश की राजनीतिक काया भले ही सेकुलर राजनीति की हो, लेकिन भारत का मन शुद्ध, प्रबुद्ध हिन्दू है। कांग्रेस ने इस हिंदू मन पर आघात किए। समस्त शासकीय, मायने, शिष्टाचार की पद्धतियां और शिक्षा प्रणाली हिंदू एवं पश्चिमी मानस की दास बनाकर रखीं। हिन्दू बहुल देश में हिंदू जीवन और प्रतीकों की चर्चा अपराध बना दी गयी।

यह हिंदू मानस की उदारता का ही परिचय है कि विदेशी मूल की एक ईसाई सत्ता शिखर पर रहे- यह भी स्वीकार हो गया। किसी अन्य देश में तो यह अकल्पनीय हो होगा। इसके बावजूद हिन्दू जीवन पद्धति एवं हिन्दू धर्मावलम्बियों के प्रति कांग्रेस के नेहरू वंशीय नेतृत्व की वितृष्णा और दृष्ट-दृष्टि सदैव प्रभावी रही। इसी के विरुद्ध जनमानस में जिस राष्ट्रीयता के प्रबल प्रवाह का उद्रेक हुआ, उसने नेहरू कांग्रेस को हाशिए पर ठिठकी जल-कुंभी में बदल दिया है- जो जहां जाती है वहीं कांग्रेस का भविष्य सुखाती है। इसी के लिए एक शायर ने लिखा था-- 'तेरे लब पे है इराकी शामो मिस्त्रो रोमों चीं (चीन), लेकिन अपने ही वतन के नाम से वाकिफ नहीं'।

- तरुण विजय

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