भारत का संविधान तो सर्वश्रेष्ठ है पर लोकतंत्र को श्रेष्ठ बनाने की दिशा में काम करना होगा

Narendra Modi

इतने बड़े राष्ट्र को यह संविधान सम्हाले हुए है, इसीलिए भारत में आज तक कोई फौजी या राजनीतिक तख्ता-पलट नहीं हुआ। जरा हम किसी भी दक्षिण एशिया के राष्ट्र का नाम बताएं, जहां इतने शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता-परिवर्तन होता रहा हो।

यह तथ्य है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है लेकिन क्या यह सत्य है कि वह सबसे अच्छा लोकतंत्र भी है? वह सबसे बड़ा तो सिर्फ इसलिए है कि उसकी जनसंख्या किसी भी बड़े से बड़े लोकतंत्र से पांच गुनी या दस गुनी है। संख्या-बल हमारे लोकतंत्र को अनुपम तो बनाता ही है, उसकी विविधता भी उसे विलक्षण रूप प्रदान करती है। अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देश अपने-अपने लोकतंत्र को अतिविशिष्ट बता सकते हैं लेकिन क्या उनके यहां भारत के समान दर्जनों धर्म, संप्रदाय, भाषाएं, रीति-रिवाज और हजारों जातियां हैं? क्या वे लोकतांत्रिक देश भारत की तरह सैंकड़ों वर्ष विदेशियों की गुलामी में कभी पिसते रहे हैं?

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भारत की तरह सात-आठ दशक पहले आजाद हुए एशिया और अफ्रीका के राष्ट्रों से तुलना करें तो हमें मालूम पड़ेगा कि भारत एक बेजोड़ राष्ट्र है। ज़रा हम अपने पड़ौसी देशों पर पहले नजर डालें। लगभग सभी राष्ट्रों के संविधान बदल चुके हैं। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार आदि देशों में कई-कई नए संविधान आ चुके हैं लेकिन भारत का मूल संविधान आज भी ज्यों का त्यों है। वह दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है। उसे वैसा होना ही था, क्योंकि वह इतने विविधतामय राष्ट्र को सम्हालने के लिए बनाया गया था। वह ज्यों का त्यों है लेकिन वह इतना लचीला भी है कि उसमें लगभग सवा सौ संशोधन हो चुके हैं।

इतने बड़े राष्ट्र को यह संविधान सम्हाले हुए है, इसीलिए भारत में आज तक कोई फौजी या राजनीतिक तख्ता-पलट नहीं हुआ। जरा हम किसी भी दक्षिण एशिया के राष्ट्र का नाम बताएं, जहां इतने शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता-परिवर्तन होता रहा हो। इंदिरा गांधी ने आपातकाल थोपने का दुस्साहस 1975 में जरूर किया था लेकिन अगले दो साल पूरे होने के पहले ही भारत की जनता ने उन्हें सूखे पत्ते की तरह फूंक मारकर उड़ा दिया। एक-दो राष्ट्रपतियों और सेनापतियों के बारे में ये अफवाहें जरूर सुनने में आई थीं कि वे कुछ दुस्साहस करना चाहते थे लेकिन भारतीय लोकभय ने लोकतंत्र की रक्षा की और वे अपनी मर्यादा में रहने को मजबूर हुए।

भारतीय लोकतंत्र सामाजिक और धार्मिक विविधता को साधे रखने में तो सफल हुआ ही है, वह राजनीतिक विविधता का संतुलन बनाए रखने में भी कुशल सिद्ध हो रहा है। वह जमाना गया, जब केरल की कम्युनिस्ट सरकार को नेहरू काल में और इंदिरा व मोरारजी-काल में विरोधियों की प्रांतीय सरकारों को अकारण ही बर्खास्त कर दिया जाता था। अब केंद्र की कांग्रेस और भाजपा सरकार काफी मजबूत होते हुए भी राज्यों की विपक्षी सरकारों को बर्दाश्त करती रहती हैं।

जहां तक मतदान से सत्ता-परिवर्तन का सवाल है, इस मुद्दे पर हारी हुई पार्टियां कुछ न कुछ गड़बड़ी का इल्जाम जरूर लगाती हैं लेकिन भारत की जनता न तो उससे प्रभावित होती है और न ही वे पार्टियां कभी अपने आरोपों को सिद्ध कर पाती हैं।

इन सब खूबियों के बावजूद क्या हम अपने लोकतंत्र की वर्तमान दशा से संतुष्ट हो सकते हैं? क्या हम उसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र कह सकते हैं? फिलहाल तो नहीं कह सकते लेकिन हमारी जनता और नेता कोशिश करें तो सचमुच भारत दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र बन सकता है। इसके लिए जरूरी है कि हम हमारे लोकतंत्र की कमियों को खोजें और उनका निवारण करें। भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमी तो यह है कि आजादी के बाद देश में एक भी सरकार ऐसी नहीं बनी कि जिसे भारतीय मतदाताओं का न्यूनतम स्पष्ट बहुमत भी मिला हो। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सरकारों को संसद में सीटें तो 400 तक भी मिलीं लेकिन उनसे पूछिए कि आपको कुल मतदान के कितने प्रतिशत वोट मिले? आज तक किसी भी सरकार को 50 प्रतिशत तक वोट कभी नहीं मिले। नरेंद्र मोदी सरकार को स्पष्ट बहुमत जरूर मिला लेकिन वह सिर्फ सीटों का बहुमत था, वोटों का नहीं। वोट तो उसे 2019 में सिर्फ 38 प्रतिशत ही मिले। 2014 में उसे सिर्फ 31 प्रतिशत वोट मिले थे। हमारी चुनाव-पद्धति में ऐसे मौलिक परिवर्तन की जरूरत है कि कम से कम 51 प्रतिशत वोटों के बिना कोई भी सरकार न बन सके।

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हमारे दर्जन भर से भी ज्यादा प्रधानमंत्री हो गए हैं लेकिन कितने प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें अपने निर्वाचन-क्षेत्र में 51 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले हैं? पीवी नरसिंहराव और नरेंद्र मोदी के अलावा किसी भी प्रधानमंत्री को इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। नेहरू और इंदिरा गांधी को भी नहीं। यही हाल हमारी संसद का भी है। संसद के लगभग साढ़े पांच सौ सदस्यों में से 50 भी प्रायः ऐसे नहीं होते, जिन्हें अपने चुनाव-क्षेत्र में 51 प्रतिशत वोट मिले होते हैं। दूसरे शब्दों में हमारे नेता और सांसद ठोस बहुमत से ही चुने जाने चाहिए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संविधान-दिवस पर ठीक ही कहा कि भारतीय लोकतंत्र को परिवारवाद ने लंगड़ा कर दिया है। हमारे देश में भाजपा और माकपा के अलावा सभी पार्टियाँ अब पार्टियाँ कहां रह गई हैं? वे प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गई हैं। कोई माँ-बेटा पार्टी है, कोई बाप-बेटा पार्टी है, कोई भाई-भतीजा पार्टी है तो कोई भाई-भाई पार्टी है। जो पार्टियाँ ऐसी नहीं हैं, क्या उनमें भी आंतरिक लोकतंत्र है? क्या उनके मंत्रिमंडलों, पार्टी-मंचों और विधानसभाओं व लोकसभाओं में उनके सदस्य खुलकर अपनी बात रख पाते हैं? उनके पदाधिकारियों की नियुक्तियां मुक्त चुनाव से होती हैं? अपने लोकतंत्र को स्वस्थ बनाने के लिए इस कमी को दूर करना जरूरी है।

भारतीय लोकतंत्र को भेड़तंत्र बनाने का सबसे ज्यादा दोष जातिवाद को है। सभी पार्टियाँ थोक वोट पटाने के लिए जातिवाद का सहारा लेती हैं। चुनावों से जातिवाद को खत्म करने का एक तरीका यह भी है कि किसी खास चुनाव क्षेत्र से किसी खास उम्मीदवार को खड़ा करने की बजाय पार्टियां अपने उम्मीदवारों की सामूहिक सूचियां जारी करें और चुनाव परिणाम आने के बाद जीते हुए उम्मीदवारों को अलग-अलग चुनाव क्षेत्र सौंप दें। इसके कारण मतदाता अपना वोट अपनी जाति के उम्मीदवार की बजाय उसकी पार्टी की विचारधारा और नीति को देंगे। जर्मनी में इसे सानुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था कहते हैं।

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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