राजस्थान में भाजपा के हाथ मौके तो कई लगे, लेकिन एकता के अभाव में सब गँवा दिये

Vasundhara Satish Poonia

कैलाश मेघवाल की चिट्ठी से प्रदेश भाजपा की राजनीति में खलबली मच गई। 1977 में पहली बार विधायक व कैबिनेट मंत्री बनने वाले मेघवाल केंद्र की वाजपेयी सरकार में भी मंत्री व कई बार सांसद रह चुके हैं। वो राजस्थान में भी कई बार मंत्री व विधानसभा अध्यक्ष रह चुके हैं।

राजस्थान के छह जिलों में संपन्न हुए जिला प्रमुखों व पंचायत समिति के प्रधानों के चुनाव जीतने की खुशी मना रही भाजपा के रंग में उन्हीं की पार्टी के बड़े नेता कैलाश मेघवाल ने भंग डाल कर जीत का मजा किरकिरा कर दिया। चुनावी नतीजों में भाजपा सिर्फ सिरोही जिला परिषद में ही बहुमत में थी। इसके बावजूद जोड़-तोड़ कर पार्टी नेताओं ने सिरोही के साथ जयपुर व भरतपुर में भी अपना जिला प्रमुख जिता लिया था। इसी तरह 78 में से मात्र 14 पंचायत समितियों में भाजपा को बहुमत मिला था। मगर प्रदेश नेतृत्व ने 25 पंचायत समितियों में भाजपा के प्रधान बनवा दिये।

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इससे प्रफुल्लित होकर भाजपा नेता अपनी जीत का जश्न मना रहे थे। इसी दौरान पूर्व विधानसभा अध्यक्ष व शाहपुरा से विधायक कैलाश मेघवाल ने विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया को पद से हटाने की मांग करते हुये पत्र लिख कर धमाका कर दिया था। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के नजदीकी माने जाने वाले कैलाश मेघवाल ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को पत्र लिखकर राजस्थान में नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया को उनके पद से हटाने की मांग करते हुए आरोप लगाया कि गुलाबचंद कटारिया द्वारा अलग-अलग मौके पर दिए गए बयानों के कारण भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा है।

मेघवाल ने बताया कि कटारिया ने 13 अप्रैल को राजसमंद में एक चुनावी सभा में महाराणा प्रताप को लेकर बयान दिया था। उनके चलते राजसमंद में पार्टी को वोटों का खासा नुकसान हुआ। इस बयान का मामला ठंडा पड़ा भी नहीं था कि उन्होंने भगवान राम पर टिप्पणी कर दी कि भाजपा नहीं होती तो भगवान राम समु्द्र में होते। कटारिया के इन बयानों की वजह से समाज में तीखी प्रतिक्रियाएं हुयी थीं। उनकी टिप्पणी ने पार्टी को बचाव की मुद्रा में ला दिया था।

कटारिया के बयान के चलते ही पार्टी तीन में से दो सीटों पर चुनाव हार गई तथा राजसमंद सीट पर भी बहुत कम वोटों के अंतर से जीत पाई थी। अपने नेताओं को आईना दिखाते हुये मेघवाल ने आरोप लगाया था कि कटारिया की छत्रछाया में पार्टी पद और टिकट बंटवारे में लाखों-करोड़ों रुपए की हेराफेरी होती रही है। कटारिया अनर्गल बयान बाजी कर पार्टी को नुकसान पहुंचा रहे हैं। मेघवाल ने अपने पत्र की प्रति भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनियां सहित पार्टी के सभी विधायकों को भी भेजी थी। मेघवाल ने तो विधानसभा सत्र से पहले होने वाली विधायक दल की बैठक में कटारिया के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की भी धमकी दी थी।

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कैलाश मेघवाल की चिट्ठी से प्रदेश भाजपा की राजनीति में खलबली मच गई। 1977 में पहली बार विधायक व कैबिनेट मंत्री बनने वाले मेघवाल केंद्र की वाजपेयी सरकार में भी मंत्री व कई बार सांसद रह चुके हैं। वो राजस्थान में भी कई बार मंत्री व विधानसभा अध्यक्ष रह चुके हैं। अनुसूचित जाति से आने वाले मेघवाल के पत्र से हुए नुकसान को कंट्रोल करने के लिए भाजपा आलाकमान ने तुरंत ही प्रदेश के प्रभारी महासचिव अरुण सिंह को जयपुर भेजा। जयपुर पहुंचते ही अरूण सिंह ने सबसे पहले मेघवाल को पार्टी कार्यालय में बुलाकर कटारिया के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाने के लिये मनाया। उन्होंने मेघवाल से बयान भी दिलवाया कि वह पार्टी के साथ हैं और ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे पार्टी को नुकसान पहुंचे।

हालांकि मेघवाल ने विधायक दल की मीटिंग में और उसके बाद कटारिया के खिलाफ किसी तरह की बयानबाजी नहीं की। लेकिन उनके पत्र से भाजपा में चल रही आपसी गुटबाजी खुलकर सामने आ गई है। मेघवाल के पत्र लिखने से सत्तारुढ़ कांग्रेस को भी भाजपा पर हमला करने का मौका मिल गया। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा ने भी भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर जमकर हमला बोलते हुये उन्हें कटघरे में खड़ा किया।

प्रदेश में भाजपा के बड़े नेताओं द्वारा आपस में एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करने व एक दूसरे की टांग खिंचाई से भाजपा विपक्षी दल की भूमिका निभाने की बजाय आपसी लड़ाई में ही उलझी हुई है। प्रदेश में कांग्रेस के पौने तीन साल के शासन में भाजपा ऐसा कोई बड़ा जनहित का मुद्दा नहीं उठा पाई है, जिससे कांग्रेस को कटघरे में खड़ा किया जा सके। भाजपा में चल रही आपसी गुटबाजी के चलते कांग्रेस सरकार बिना किसी बाधा के काम कर रही है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ सचिन पायलट द्वारा इतनी बड़ी बगावत करने के बाद भी भाजपा उसका कोई फायदा नहीं उठा पायी। उल्टे आपसी लड़ाई के चलते भाजपा ही हमेशा बचाव की मुद्रा में रहती है।

राजस्थान भाजपा दो खेमों में बंटी हुई है। एक खेमे का नेतृत्व पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे कर रही हैं। वहीं दूसरे खेमे में प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनियां के साथ नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत और राजेंद्र राठौड़ जैसे बड़े नेता हैं। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला, राज्यवर्धन राठौड़ किसी गुट में शामिल नहीं हैं। प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनियां को केंद्रीय नेतृत्व का भी पूरा समर्थन प्राप्त है। इस कारण वसुंधरा राजे खेमा प्रदेश की राजनीति में गौण हो रहा है। राजे की मर्जी के खिलाफ उनके धुर विरोधी सतीश पूनियां को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। पूनियां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए हैं तथा वर्षों से संगठन में काम कर रहे हैं।

अपनी उपेक्षा से नाराज होकर वसुंधरा राजे अपने समर्थक नेताओं से समय-समय पर संगठन के खिलाफ बयानबाजी करवाती रहती हैं। पिछले दिनों वसुंधरा के निकट सहयोगी व पूर्व मंत्री डॉ. रोहिताश्व शर्मा को पार्टी से निकाले जाने के बाद उनके खेमे द्वारा संगठन के खिलाफ बयानबाजी बंद कर दी गई थी। मगर अचानक कैलाश मेघवाल ने चिट्ठी लिखकर भाजपा की राजनीति को हिला दिया था। चर्चा है कि कैलाश मेघवाल ने वसुंधरा राजे के इशारे पर ही कटारिया पर निशाना साधा था ताकि तीन जिला परिषदों में मिली जीत पर पानी फेरा जा सके।

वसुंधरा राजे चाहती हैं कि एक बार फिर उनको नेता प्रोजेक्ट कर अगला विधानसभा चुनाव लड़ा जाए। मगर केंद्रीय नेतृत्व वसुंधरा को फिर से मौका देने के मूड में नहीं है। इसी के चलते भाजपा में लगातार आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलते रहता है। कुछ दिनों पूर्व ही वसुंधरा राजे ने वसुंधरा राजे समर्थक राजस्थान (मंच) के नाम से एक संगठन बनवाकर प्रदेश के सभी जिलों में कार्यकारिणी का गठन करवाने का काम शुरू किया है ताकि आलाकमान को अपनी ताकत दिखा कर दबाव में लिया जा सके। मगर अभी तक ना तो वसुंधरा राजे खुद उस मंच से जुड़ी हैं ना ही कोई बड़ा नेता अभी तक मंच का पदाधिकारी बना है। कुछ छुटभैया किस्म के ऐसे नेता जिनको मूल भाजपा संगठन में महत्व नहीं मिला वो ही उस मंच से जुड़े हैं।

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राजस्थान में राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि अब वसुंधरा राजे का प्रभाव नहीं रहा है। केंद्र में नरेंद्र मोदी के रहते वसुंधरा राजे का राजनीतिक पुनर्वास संभव नहीं है। पिछले विधानसभा चुनाव में उनको नेता प्रोजेक्ट कर फ्री हैंड दिया गया था। फिर भी राजस्थान में भाजपा सरकार नहीं बचा पायी थी। मुख्यमंत्री रहते वसुंधरा राजे का प्रदेश में इतना विरोध हो गया था कि उनके द्वारा प्रदेश भर में निकाली गयी गौरव यात्रा को भी बीच में ही स्थगित करना पड़ा था। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि वसुंधरा राजे का विरोध उन्हीं के राजपूत समाज के लोग कर रहे थे।

भाजपा में चल रही आपसी लड़ाई के चलते राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत आश्वस्त नजर आते हैं। उनको पता है कि जब तक भाजपा एकजुट होकर नहीं लड़ेगी तो कांग्रेस का मुकाबला करना मुश्किल है। कांग्रेस से मुकाबना करने के स्थान पर भाजपा के नेता आपसी लड़ाई में ही उलझे हुए हैं। इससे पार्टी का जनाधार कमजोर हो रहा है। भाजपा की कलह से आम मतदाता में गलत संदेश जा रहा है। जिसका खामियाजा भाजपा को अगले चुनाव में उठाना पड़ सकता है।

-रमेश सर्राफ धमोरा

(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके लेख देश के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।)

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