मोदी की इजराइल यात्रा राजनीतिक ''साहस'' की नयी मिसाल

Israel trip of Narendra Modi is new example of political courage

वस्तुतः यह हमारी विदेश नीति के निर्माताओं की कमजोरी थी। राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव था। वह फिलिस्तीन, अरब मुल्क और इजराइल से एक साथ अच्छे सम्बन्ध रखने पर विचार नहीं कर सके।

भारतीय विदेश नीति में नया अध्याय जुड़ा। 70 वर्षों में पहली बार कोई भारतीय प्रधानमंत्री इजराइल की यात्रा पर गया। सात समझौतों ने सात दशक की कसर पूरी कर दी। दूरियां नजदीकियां बन गईं। जल, थल और नभ तक सहयोग का विस्तार हो गया। यह सामान्य यात्रा नहीं थी। भारतीय राजनीति को देखते हुए इस संबंध में निर्णय करना आसान नहीं था। इसके लिए इच्छाशक्ति व साहस की जरूरत थी। नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक नफा नुकसान का आकलन नहीं किया। उन्होंने राष्ट्र के हित को वरीयता दी। इसके चलते ही वह इजराइल जाने का निर्णय कर सके। 

राष्ट्रीय हित विदेश नीति का स्थायी तत्व होता है। अन्य तत्वों का स्थान इसके बाद आता है। इसके पहले प्रधानमंत्री नरसिंह राव और अटल बिहारी बाजपेयी ने इजराइल से मित्रता का महत्व समझा था। नरसिंह राव के समय 1992 में इजराइल से कूटनीतिक सम्बद्ध की शुरुआत की गई। 1950 में इजराइल को भारत द्वारा दी गई सीमित मान्यता का यह अगला चरण था। अटल बिहारी बाजपेयी ने इसे आगे बढ़ाया। उनके समय में इजराइली प्रधानमंत्री एरियल शेरोन भारत आये थे। अटल जी 24 दलों की गठबंधन सरकार चला रहे थे। उनके सामने व्यवहारिक सीमा थी। फिर भी उन्होंने जो प्रयास किये वह कम नहीं थे। कांग्रेस की सरकारों ने इस मामले में सदैव संकोच किया। उन्होंने सियासत को महत्व दिया। मोदी के कार्य करने का अंदाज अलग है। वह कहते भी हैं कि उनको सवा सौ करोड़ देशवासी अपने साथ नजर आते हैं। इसलिए वह अनेक ऐसे निर्णय लेने की सामर्थ्य दिखाते हैं, जिनसे पहले की सरकारें बचती थीं।

वस्तुतः यह हमारी विदेश नीति के निर्माताओं की कमजोरी थी। राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव था। वह फिलिस्तीन, अरब मुल्क और इजराइल से एक साथ अच्छे सम्बन्ध रखने पर विचार नहीं कर सके। अमेरिका सहित कई देश इस प्रकार की विदेश नीति पर अमल करते रहे हैं। इजराइल का मध्यपूर्व में अस्तित्व एक हकीकत है। इसे अरब देश भी मान चुके हैं। फिलिस्तीन में भी निर्वाचित सरकार है। भारत के उनके साथ भी अच्छे सम्बन्ध हैं। मोदी ने इस नीति को मजबूत बनाया है। गाजा पट्टी, पश्चिमी तट और शरणार्थी समस्या का समाधान होना चाहिये। लेकिन यह कार्य इजराइल के अस्तित्व को नकार के नहीं हो सकता। न ही हमास जैसे आतंकी संगठनों के दबाव को इजराइल मंजूर करेगा। इजराइल की आतंकवादी, पत्थर बाजी से निपटने की नीति बहुत स्पष्ट है, वह तौल के हिसाब बराबर करता है। 1967 के युद्ध में उसने गाजा व पश्चिमी तट के इलाकों पर कब्जा जमाया था। यासिर अराफात के नेतृत्व में लम्बा संघर्ष चला। लेकिन इजराइल ने सुरक्षा की गारंटी मिले बिना किसी हिस्से को खाली करने से इंकार कर दिया था। शायद भारत के उदाहरण पर उसने ध्यान दिया हो। भारत ने शांति की गारंटी के बिना ताशकंद और शिमला समझौते किये थे। जो पाकिस्तानी जमीन हमारे जवानों ने खून बहा कर जीती थी उसे समझौते की मेज पर वापस कर दिया गया था। लेकिन पाकिस्तान नहीं सुधरा क्योंकि उसे सबक नहीं मिला था। भारत आज तक सीमापार का आतंकवाद झेल रहा है। यही वह सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, पर भारत को इजराइल का बेहतर सहयोग मिल सकता है।

इजराइल की आतंकवाद विरोधी रणनीति विश्व में सर्वाधिक कारगर मानी जाती है। इसी के बल पर उसने अपनी सुरक्षा को मजबूत बनाया है। यहूदी राष्ट्र मात्र 70 वर्ष पहले का नहीं है। इस जमीन पर उनका दावा ही सबसे पुराना है। उनको यहां से पलायन करना पड़ा था। यह सही है कि यहूदी, ईसाई और मुसलमान सभी की मजहबी आस्थाओं व पवित्र स्थलों का सम्मान होना चाहिये। इसका शांतिपूर्ण समाधान इन्हीं लोगों को निकलना चाहिए। यह मध्यपूर्व के मुल्क समझ गये हैं कि इजराइल आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं करता। भारत और इजराइल की यह साझा समस्या है। इसके अलावा कृषि, ऊर्जा आदि क्षेत्रों में इजराइल की तकनीक को बेहतर माना जाता है। मोदी की इजराइल यात्रा ने दोनों देशों के रिश्तों को मजबूत बनाया है। इससे अनेक क्षेत्रों में सहयोग आगे बढ़ेगा।

मुसीबत में साथ देने वाले को सच्चा मित्र माना जाता है। निजी जीवन की ऐसी अनेक बातें विदेश सम्बन्धों पर लागू होती हैं। रिश्तों में गर्मजोशी न होने के बावजूद पाकिस्तानी हमलों के समय उसने हमेशा भारत का साथ दिया। प्रत्येक युद्ध में उसने सहायता दी, समर्थन किया। जबकि अरब देशों का समर्थन व सहानुभूति पाकिस्तान की तरफ होती थी। ऐसे में इजराइल के साथ संबंधों में बहुत पहले ही बड़ा सुधार करना चाहिए था। इस दौरान मिस्र जैसे कई अरब देशों ने भी इजराइल से सम्बन्ध बहाल किये थे। इजराइल तो भारत के साथ सच्ची दोस्ती का निर्वाह कर रहा था। कारगिल के समय भी उसने बोफोर्स तोपो के लिए अपने स्टॉक से गोला बारूद भेजा था। इस समय चीन की तरफ से तनाव है 1962 के चीनी हमले के समय भी उसने भारत को सामरिक सहायता दी थी। ये बातें कभी भुलाई नहीं जा सकतीं। अब तो इजराइल की सामरिक क्षमता बहुत आधुनिक मानी जाती है। वह जीडीपी का साढ़े पांच प्रतिशत से ज्यादा धनराशि रक्षा पर खर्च करता है। इसके अलावा अब तक दोनों देशों के बीच कृषि, जल प्रबंधन, विज्ञान, तकनीक पर सहयोग चल रहा है। भारत अभी 70 से 100 अरब रुपये की सैन्य सामग्री आयात करता है। मोदी सरकार की नीति के तहत ही राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इजराइल यात्रा की थी। इजराइली राष्ट्रपति भी भारत आये थे। नरेंद्र मोदी की यात्रा को लेकर वहां जबरदस्त माहौल था। मोदी को अमेरिकी राष्ट्रपति से ज्यादा सम्मान मिलना अद्भुत था। इससे पता चलता है इजराइल भी भारत से सम्बन्ध बढ़ाने को बहुत उत्सुक था। 

यह प्रश्न केवल भारत में विरोधी नेता उठा रहे हैं कि मोदी फिलिस्तीन क्यों नहीं गए। 70 वर्षों के बाद यह पहला अवसर था। ऐसे में एक तो इसी यात्रा पर फोकस रहना चाहिए था। दूसरी बात यह कि नरेंद्र मोदी प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर चुके थे कि उनकी सरकार फिलिस्तीन व अरब जगत पर भारत की परम्परागत नीति में कोई बदलाव नहीं करेगी। यह बात भारत यात्रा पर आये इजराइली व  फिलिस्तीनी राष्ट्रपति को भी बता दी गई थी। इजराइल के पहले मोदी कई अरब मुल्कों की यात्रा कर चुके हैं। अरब और फिलिस्तीन मोदी की यात्रा से खुश हैं। विश्व में ऐसे देशों की संख्या कम है जिनके इजराइल के साथ ही अरब मुल्कों व फिलिस्तीन से भी अच्छे सम्बन्ध हों। भारत को यहां बड़ी भूमिका में देखा जा रहा है। यह विश्वास रखना चाहिए कि मोदी भविष्य में फिलिस्तीन भी जाएंगे। अभी मोदी की इजराइल यात्रा को सफल माना जा सकता है। सहयोग का कोई भी महत्वपूर्ण क्षेत्र छूटा नहीं है। खासतौर पर वह विषय जिसमें इजराइल ने विशिष्ट प्रगति की है। इसमें आतंकवाद विरोधी रणनीति, खुफिया तंत्र की तकनीक, इसके लिए उपयोगी हथियार, कृषि, जल प्रबंधन, अंतरिक्ष विज्ञान, नदियों की सफाई आदि शामिल है। इजराइल की जमीन उपजाऊ नहीं है। इफरात पानी भी नहीं है, खारे पानी की भी समस्या है।

इनसे निपटने को उसने विशेष तकनीक विकसित की। कम पानी से अधिक उत्पादन, खारे को मीठा बनाने की तकनीक, गंगा सफाई आदि सभी क्षेत्रों में समझौते हुए। मेक इन इंडिया के साथ मेक विद इजराइल पर अमल की सहमती बनी। अब व्यापारिक, आर्थिक रिश्ते मजबूत होंगे। 1992 में दोनों देशों के बीच बीस करोड़ डॉलर का व्यापार था। 2016 में यह चार अरब डॉलर से ज्यादा हो गया। मोदी की यात्रा से इसमें और भी उछाल आएगा। पिछले दो वर्षों में भारत को हथियार आपूर्ति करने वाला इजराइल तीसरा सबसे बड़ा देश रहा है। अब उसकी यह साझेदारी आगे बढ़ेगी। प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने आतंकवाद पर भारतीय रुख को खुला समर्थन दिया। उन्होंने पाकिस्तान को आतंकवाद संचालित करने वाला मुल्क बताया। इतना बेबाक समर्थन कम ही देश देते हैं। हमने इसे समझने में देरी की है। समझौतों से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि दोनों देशों के बीच पहली बार इस स्तर की विश्वास बहाली हुई है। इसका दूसरा पहलू यह है कि फलस्तीन व अन्य अरब देशों ने मोदी की यात्रा को सकारात्मक रूप में लिया है। भारत में विरोध करने वाले एक बार फिर संकुचित मानसिकता उजागर करते दिखे। इजराइल में 18 प्रतिशत मुसलमान बिना भेदभाव के रहते हैं। मतलब इजराइल मुस्लिम विरोधी नहीं है लेकिन वह अपनी सुरक्षा से कोई समझौता नहीं करता।

- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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