सहारनपुर में इसलिए आना पड़ा मायावती और राहुल गांधी को

विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद ऐसे नेताओं को अपनी जमीन की चिंता सताने लगी है। इनका सियासी आधार दरक गया है। यही चिंता इन्हें सहारनपुर खींच लायी थी। इस समय इनकी यात्रा कोई औचित्य नहीं था।

कानून व्यवस्था को दुरुस्त रखना प्रदेश सरकार की अहम जिम्मेदारी होती है। फिर भी यह मानना होगा कि जातीय तनाव के मसले संवेदनशील होते हैं। खास तौर पर जब जाति आधारित संगठन वैमनस्य को बढ़ाने का कार्य कर रहे हों। ऐसे तनावग्रस्त क्षेत्र में नेताओं की भूमिका व यात्रा दोनों पर विचार करने की आवश्यकता है। यदि कोई बड़ा नेता ऐसे इलाकों में अपनी सियासी जमीन तलाशने जा रहे हो तो उसे कदापि उचित नहीं माना जा सकता। इस प्रकार की यात्राओं पर कठोरता से प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है क्योंकि इनसे स्थिति को संभालने में बाधा उत्पन्न होती है।

सहारनपुर में बसपा प्रमुख मायावती व राहुल गांधी पहुंचे थे। इस सूची में अगले कुछ दिनों में कई अन्य नाम भी जुड़ सकते हैं। विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद ऐसे नेताओं को अपनी जमीन की चिंता सताने लगी है। इनका सियासी आधार दरक गया है। यही चिंता इन्हें सहारनपुर खींच लायी थी। इस समय इनकी यात्रा कोई औचित्य नहीं था। जिस समय पुलिस फोर्स को तनावग्रस्त इलाकों में रहना चाहिये, उस समय सैंकड़ों सुरक्षाकर्मियों को इन नेताओं की यात्रा के मद्देनजर लगाना पड़ता है। जिस अधिकारी को गश्त पर रहना चाहिये था, वह राहुल गांधी से बहस में उलझ जाता है। मतलब इस बहस से राहुल गांधी या किसी अन्य नेता का राजनीतिक उद्देश्य तो पूरा हो जाता है, लेकिन स्थिति को सामान्य बनाने में बाधा उत्पन्न होती है। सबने देखा कि राहुल गांधी स्थानीय अधिकारियों से उलझे हुए थे। अधिकारी उन्हें आगे नहीं जाने देते। राहुल पूछते हैं कि उन्हें किस नियम के तहत रोका जा रहा है। जाहिर है राहुल की राजनीति हो गयी। लेकिन कानून व्यवस्था में लगे अधिकारियों का समय बर्बाद हुआ। ऐसे मामलों को गंभीरता से लेना चाहिये। ऐसे अवसर पर राजनीतिक रोटी सेंकने की इजाजत किसी को नहीं होनी चाहिये।

यह भी गौरतलब है कि राहुल सहारनपुर तब आये, जब यहां जनजीवन सामान्य होने लगा था। ऐसे में वह कुछ दिन और रुक जाते तो अच्छा था। लेकिन नेताओं को लगता है कि तवा गरम रहे तभी धमकना ठीक रहता है। ठंडा होने के बाद क्या फायदा। इसके पहले मायावती गयी थीं। उन्होंने तो बाकायदा वहां भाषण दिया। ऐसा लग रहा था कि उन्होंने अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल कर लिया है। इसका संतोष दिखाई दे रहा था। हिंसक संघर्ष की चिंता दिखाई नहीं दी। उन्होंने कहा भी कि वह हेलीकॉप्टर से आना चाहती थीं लेकिन प्रशासन ने उन्हें अनुमति नहीं दीं। इसलिये सड़क मार्ग से आयीं। इसका उन्हें राजनीतिक फायदा मिला। मायावती के जाने के तत्काल बाद एक बार फिर जातीय संघर्ष छिड़ गया।

इस संबंध में एक अन्य समस्या है। विपक्ष में ऐसा कोई नेता नहीं जिसकी यात्रा जातीय तनाव या वैमनस्य को कम कर सके। इसके विपरीत उसमें बढ़ोत्तरी की ही आशंका रहती है। मयावती जब सहारनपुर गयीं तो माना गया कि वह दलित−मुस्लिम गठजोड़ को साधना चाहती हैं। जबकि विधानसभा चुनाव में इस फार्मूले ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा था। फिर भी पार्टी का अस्तित्व बचाने के लिये हाथ−पैर मारे जा रहे हैं। राहुल गांधी भी यहां निराशा से उबरने का अवसर तलाश रहे थे। विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद पहली बार उन्होंने अपने अंदाज में सीधे नरेन्द्र मोदी पर हमला बोला। उन्होंने कहा कि पूरे देश में गरीबों को दबाया जा रहा है। वैसे राहुल के पास इसका जवाब नहीं था कि इसके बावजूद कांग्रस राष्ट्रीय स्तर पर क्यों दबी जा रही है। क्यों क्षेत्रीय दलों की गोद में बैठकर चुनावी समर में उतरने का प्रयास करना पड़ रहा है। ये नेता उच्च श्रेणी की सुरक्षा में रहते हैं। जहां स्थिति तनावपूर्ण रहती है, वहां इनको जाने से वैसे भी बचना चाहिये। इससे प्रशासन के सामने भी बड़ी समस्या होती है। मायावती के जाने के बाद उनकी पार्टी का प्रतिनिधिमंडल मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलने पहुंच गया। इनका कहना था कि मायावती की सुरक्षा में लापारवाही हुई है लेकिन इस शिकायत से पहले इन्हें खुद से सवाल करना चाहिये था। मायावती को यहां आने की जरूरत ही क्या थी। बाद में मायावती के भाई के तार भी यहां के विवाद में जुड़ते दिखाई दिये थे। इसका खुलासा खुफिया रिपोर्ट में किया गया।

इस समय तो विपक्ष में खुलकर जातीय समीकरण बैठाने की चर्चा हो रही है। वोटबैंक को जोड़कर आकलन हो रहा है। प्रत्येक क्षेत्रीय दल के पीछे एक खास जाति को देखा जा रहा है। रणनीति बन रही है कि बिहार की तर्ज पर इनको जोड़ा जाए, तो मुस्लिम वोट भी जुड़ जायेगा। ऐसा हुआ तो सरकार बन जाएगी। भले ही वह सरकार बिहार की तर्ज पर भ्रष्टाचार व कुशासन की शिकार बन जाए।

जाति विशेष के ऐसे नेता जब तनाव वाले इलाकों में जाते हैं, तो नुकसान ही होता है। उनमें वह नैतिक बल नहीं होता है कि सभी पक्षों को समझा सके। उनके आने से एक पक्ष अति उत्साही हो जाता है, दूसरे पक्ष में आक्रोश उत्पन्न होता है। इससे तनाव बढ़ता है। लेकिन सियासी जमीन तलाशने के लिए सहारनपुर जैसे इलाकों को बेहतर माना जाता है।

जबकि यह नेता भारतीय समाज की मूल भावना को समझने का प्रयास नहीं करते। कुछ दिन के अप्रिय तनाव के बाद सहारनपुर के गांव में दलित परिवार के घर विवाह में क्षत्रिय समाज के लोग सहयोगी बने। नेता सियासी रोटी तलाश रहे थे। दलित−मुस्लिम गठजोड़ बना रहे थे, यहां समाज सद्भाव की तरफ लौट रहा था। ऐसा ही कुछ वर्ष पहले बिसहड़ा में हुआ था। यहां उन्मादी भीड़ ने बीफ के आरोप में एक मुसलमान की हत्या कर दी थी। नेता फिर सियासी रोटी सेंकने निकल पड़े थे। पूरे देश में असहिष्णुता अभियान शुरू हो गया था इसमें कलाकार, साहित्यकार, फिल्मी सितारे, उनकी बेगम तक कूद गए। लेकिन इसी बिसहड़ा में सद्भाव लौट रहा था। मुस्लिम परिवार की दो बेटियों के विवाह में हिंदुओं ने मेजबानी की। पहले लड़के वालों ने बिसहड़ा में बरात लाने से इंकार कर दिया था।  लेकिन गारंटी ली हिंदू नौजवानों ने। उन्होंने कहा कि उनके जीते जी बरातियों का बाल बांका नहीं होगा। सभी जिम्मेदारी हिंदू युवकों ने संभाली और सकुशल निकाह संपन्न हुआ।

यह भारत की मूल भावना है। यह भारत की साहिष्णुता है। विश्व के किसी भी मुल्क में ऐसी समरसता वाली संस्कृति नहीं है। यह सही है कि कुछ अप्रिय घटनाएं कलंक लगाती हैं। इनको रोकने के लिए समाज व सरकार दोनों को जिम्मेदारी का निर्वाह करना होगा। खुफिया तंत्र को मजबूत बनाना होगा। जाति के नाम पर बनने वाले अराजक व हिंसक संगठनों को पनपने से रोकना होगा। किसी के साथ तनावग्रस्त इलाकों में सियासी रोटी की तलाश में निकलने वाले नेताओं के साथ भी सख्ती करनी होगी।

- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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