मोदी की चीन यात्रा निरर्थक रही, चीन के जाल में आखिर फँस ही गया भारत

modi china visit fails

ऐसा एक भी मुद्दा सुलझा नहीं, जिसने भारत और चीन के संबंधों में उलझन और कटुता बनाकर रखी है। न सीमा, न दोकलाम, न तिब्बत, न व्यापारिक असंतुलन, न परमाणु सप्लायर्स ग्रुप की सदस्यता, न मसूद अजहर के आतंकी होने की घोषणा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन-यात्रा कैसी रही? सार्थक या निरर्थक? मैं कहूंगा दोनों ही। सार्थक इसलिए कि उसका प्रचार डटकर हुआ, यात्रा के पहले और बाद में भी किसी भी प्रचारमंत्री के लिए यही बड़ी उपलब्धि है। कहा गया कि ऐसी यात्रा किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री ने मोदी के पहले कभी नहीं की। यह बिलकुल सही कहा, क्योंकि यह यात्रा अनौपचारिक थी। इसमें न तो कोई समझौता होना था, न इसमें कोई खास मुद्दे थे, न दोनों देशों के अफसरों को यात्रा में कोई बात करनी थी और न ही कोई संयुक्त वक्तव्य जारी होना था।

इस यात्रा के लिए चीन से कोई निमंत्रण आया था या हमारे प्रधानमंत्री खुद ही लद लिए थे, कुछ ठीक से पता नहीं। जून में वे फिर चीन जाएंगे लेकिन वे अप्रैल के अंत में ही चीन चले गए तो इसका कारण काफी रहस्यमय है। कोई ऐसी बेहद जरूरी बात जरूर रही होगी, जिसके कारण वे एक-डेढ़ माह तक रूक नहीं सके। इसमें शक नहीं कि चीनी नेता शी चिनफिंग ने मोदी का भाव-भीना स्वागत किया। यह ठीक है कि औपचारिक संयुक्त वक्तव्य जारी नहीं हुआ लेकिन शी और मोदी ने अकेले में कई बार बात की। साथ में कोई भी अफसर नहीं थे। दोनों तरफ दुभाषिए जरूर थे, क्योंकि शी को अंग्रेजी नहीं आती होगी और मोदी को चीनी। मोदी का बस चलता तो दुभाषिए भी बीच में नहीं रहते। मोदी हिंदी में बोले, यह अच्छा किया। दोनों देशों ने अलग-अलग बयान जारी किए। भारत ने 903 शब्दों का और चीन ने 714 का।

इन दोनों बयानों को अगर आप मोटा-मोटा पढ़ें तो आपको लगेगा कि भारत-चीन संबंध अब सातवें आसमान पर पहुंचने वाले हैं। दोनों देश आतंकवाद से मिलकर लड़ेंगे, सीमा पर मुठभेड़ नहीं होगी, व्यापार और निवेश बढ़ेगा, दोनों की फौजें आपसी संपर्क बढ़ाएंगी, दोनों महान नेता बार-बार मिलते रहेंगे। शी ने नेहरू और चाउ के पंचशील का जिक्र किया और मोदी ने इधर-उधर के पांच शब्दों की अपनी तुकबंदी को पेल दिया। लेकिन इन दोनों बयानों और विदेश सचिव विजय गोखले के जवाबों में आप जरा गहरे उतरें तो आपको पता चलेगा कि यह यात्रा निरर्थक रही। क्योंकि ऐसा एक भी मुद्दा सुलझा नहीं, जिसने भारत और चीन के संबंधों में उलझन और कटुता बनाकर रखी है। न सीमा, न दोकलाम, न तिब्बत, न व्यापारिक असंतुलन, न परमाणु सप्लायर्स ग्रुप की सदस्यता, न मसूद अजहर के आतंकी होने की घोषणा और न ही कश्मीर में से रेशम महापथ (ओबोर) का मामला।

हां, एशियाई सदी की गप्प जरूर लगाई गई। नेपाल, श्रीलंका और मालदीव में आपसी सहयोग की बात मोदी को नहीं सूझी लेकिन अफगानिस्तान में भारत-चीन सहयोग के जाल में शी ने मोदी को फंसा लिया। हमारे प्रचारमंत्री जी को हम नादान क्यों कहें, हमारे विदेश मंत्रालय के सुयोग्य अफसरों को क्या पता नहीं कि अफगानिस्तान में चीन के साथ मिलकर काम करने का अर्थ यह है कि आपने 'ओबोर' को गले लगा लिया और अपने आप को पाकिस्तान के मातहत कर दिया? वहां अब जो भी होगा, उसे अगली सरकार भुगतेगी। इस सरकार का लक्ष्य पूरा हुआ। प्रचारमंत्रीजी गदगद् हैं।

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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