मोदी सरकार की रणनीति के चलते अंतिम सांसें गिन रहे हैं नक्सली

modi government''s big attack on naxals
राकेश सैन । Apr 30 2018 12:08PM

लाल आतंकवाद अंतिम सलाम कर रहा है परंतु अभी पिंडदान का समय नहीं आया है। याद रहे कि नक्सलवादी पलटवार में सिद्धहस्त हैं, इसलिए सावधान रहने व लड़ाई को तब तक जारी रखने की आवश्यकता है जब तक इसकी सांसें रुक नहीं जाती।

राष्ट्रीय जांच एजेंसी की आर्थिक नाकाबंदी व सुरक्षा बलों की सख्ती से कश्मीर के बाद अब नक्सलवाद को लेकर आंतरिक सुरक्षा को लेकर अच्छी खबर सुनने को मिल रही है कि कई दशकों से देश के विभिन्न हिस्सों में कत्लोगारत मचा रहा लाल आतंकवाद अब अंतिम सांसें गिन रहा है। साल 2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स. मनमोहन सिंह ने इसे देश की सुरक्षा के लिए सबसे अधिक खतरनाक बताया था परंतु इस दशक का अंत आते-आते यह समस्या अब समाप्त होने को है। देश में पहले खालिस्तानी आतंकवाद के बाद यह दूसरी दहशतगर्दी की समस्या होगी जिसको निपटने में हम सफल होंगे। लाल आतंकवाद अंतिम सलाम कर रहा है परंतु अभी पिंडदान का समय नहीं आया है। याद रहे कि नक्सलवादी पलटवार में सिद्धहस्त हैं, इसलिए सावधान रहने व लड़ाई को तब तक जारी रखने की आवश्यकता है जब तक इसकी सांसें रुक नहीं जाती।

नक्सलवाद उस वामपंथी हिंसक आंदोलन का नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के गाँव नक्सलबाड़ी से हुई है जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 में सत्ता के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की। मजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से था इसलिए इसे मोआवाद भी कहा जाता है। इनका मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और फलस्वरूप कृषितंत्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया है। इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है। 1967 में नक्सलवादियों ने एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई। इन लाल आतंकियों ने औपचारिक तौर पर स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के खिलाफ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। 1971 के आंतरिक विद्रोह और मजूमदार की मृत्यु के बाद यह आंदोलन विभक्त होकर कदाचित अपने लक्ष्य और विचारधारा से विचलित हो गया। सामाजिक जागृति के लिए शुरु हु्ए इस आंदोलन पर कुछ सालों के बाद राजनीति का वर्चस्व बढ़ने लगा और आंदोलन जल्द ही अपने मुद्दों और रास्तों से भटक गया। बिहार में इसने जातिवादी रूप ले लिया।

1972 में आंदोलन के हिंसक होने के कारण चारु माजूमदार को गिरफ्तार कर लिया गया और कारावास के दौरान ही उसकी मौत हो गई। कानू सान्याल ने आंदोलन के राजनीति का शिकार होने के कारण और अपने मुद्दों से भटकने के कारण तंग आकर 23 मार्च, 2010 को आत्महत्या कर ली। गरीबों, वनवासियों व गिरीवासियों के अधिकारों के नाम पर अस्तित्व में आए नक्सलवादी या माओवादी आजकल हत्या, फिरौती, रंगदारी, लेवी वसूली, सामुहिक दुष्कर्म, नक्सली शिविरों में बच्चियों के यौन शोषण, विकास में बाधक, गरीबों का शोषण करने के लिए कुख्यात हैं।

आज से दस-बारह साल पहले देश के 12 राज्यों के 165 जिले इस आतंकवाद की चपेट में आगए थे। यह समय था यूपीए सरकार के कार्यकाल का जिसमें वामपंथी दल कांग्रेस के साथ मिल कर केंद्रीय सत्ता का संचालन कर रहे थे। चाहे मुख्यधारा के वाम नेता इसे स्वीकार नहीं करते परंतु वामपंथी दलों के प्रभाव में नक्सलवाद को फलने-फूले का खूब मौका मिला और इनके खिलाफ कार्रवाईयों में ढिलाई आने लगी। यूपीए सरकार ने इनके खिलाफ वायु सेना के प्रयोग का प्रस्ताव रखा तो वामपंथियों ने इसका विरोध किया। कहने को तो नक्सल प्रभावित इलाकों में केंद्रीय व राज्य के सुरक्षा बलों को भेजा गया परंतु साधनों के अभाव और राजनीतिक इच्छा शक्ति कमजोर होने के चलते सुरक्षा बल कुछ अधिक नहीं कर पा रहे थे। यही कारण था कि नक्सली हमलों में अधिकतर नुक्सान सुरक्षा बलों का ही होता रहा। वर्तमान सरकार ने इस समस्या को गंभीरता से लिया। केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का स्पष्ट आदेश था कि गोरिल्लाओं के साथ गोरिल्ला की तरह लड़ा जाए। रोचक बात यह है कि नक्सलवाद को खत्म करने में सबसे अधिक सहयोग मनरेगा योजना ने दिया। इसे नक्सल प्रभावित इलाकों में प्रभावी ढंग से लागू करने का लाभ यह मिला कि स्थानीय लोगों को रोजगार मिलने लगा और वे नक्सलवाद से दूर होने लगे।

छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार ने गरीबों के लिए सस्ता अनाज योजना शुरू की जो घर-घर अनाज पहुंचाने लगी। ग्रेहाऊंड व कोबरा जैसे सुरक्षा बल तैयार किए गए और राज्य पुलिस प्रशासन को चुस्त दुरुस्त किया गया। पहले सुरक्षा बलों की कार्रवाई केवल गश्त तक सीमित थी और वे आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करके वापिस कैंपों में पहुंच जाते। इससे नक्सलियों को फिर से खोई हुई जमीन प्राप्त करने व वहां शुरू किए जाने वाले विकास कार्यों को ध्वस्त करने का मौका मिल जाता।

वर्तमान सरकार ने सत्ता में आने के बाद रणनीति बदली। अब जिन इलाकों को सुरक्षा बल मुक्त करवाते वे वहीं टिक जाते और वहीं नया कैंप बनाने लगे। इससे स्थानीय लोगों में सरकार के प्रति विश्वास बढ़ा और सरकार की विकास संबंधी योजनाएं उन तक पहुंचनी शुरू हो गईं। सुरक्षा बलों को आधुनिक हथियारों के साथ-साथ नवीनतम तकनोलोजी से लैस किया गया। इससे सुरक्षा कर्मी अपनी बैरकों में बैठे-बैठे पूरे इलाके की निगरानी करने लगे। नक्सली इलाकों में विकास कार्यों को गति दी गई।

एनआईए ने आर्थिक नाकाबंदी कर नक्सलियों के धन के स्रोतों पर लगाम लगाई और नोटबंदी ने नक्सलियों की आर्थिक तौर पर कमर तोड़ दी। सबसे अधिक प्रभाव देश-दुनिया से वामपंथी विचारधारा के लगभग लुप्तप्राय: होने का पड़ा और युवाओं का इससे मोहभंग होने लगा। आज हालात यह है कि बहुत कम युवा वामपंथी विचारधारा ग्रहण करते हैं। जेएनयू में जिस तरह से वामपंथी दलों से जुड़े विद्यार्थियों ने देश विरोधी नारेबाजी की उसका प्रभाव भी नक्सलवाद के वैचारिक खात्मे के रूप में देखने को मिला। कुल मिला कर सभी प्रयासों का परिणाम यह निकल कर सामने आया कि 165 में से केवल 30 के करीब जिले ही अब इस समस्या से ग्रसित हैं। हाल ही में नक्ल के गढ़ गढ़चिरौली, बस्तर, सुकमा में नक्सलियों का सफाया किया गया और थोक भाव में नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है उससे आशा बंधने लगी है कि शीघ्र ही देश इस समस्या से निजात पा लेगा।

-राकेश सैन

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