मुजफ्फरपुर में मारे गये बच्चों, श्रीदेवी बड़ी हस्ती थीं देश अभी उनके गम में है

Nine student killed in road acident in muzaffarpur bihar but country is busy in sridevi

समय सही चुनते तो शायद तुम्हारी मौत पर भी कुछ लोग, लोकतंत्र के पहरूए कुछ संवेदना बयां करते। समाज की राजनीतिक हस्तियां कुछ लिखतीं और बोलतीं। मगर तुम एक साधारण परिवार में जन्मे।

नमन। ग़मज़दा हूं। दुखी भी। दोनों ही मौतें हैरान और दुखी करने वाली हैं। एक ओर फिल्मी अदाकारा श्रीदेवी की असामयिक मृत्यु और दूसरी तरफ तुम नौ बच्चों की अकाल मृत्यु। ग़लत समय में मरे तुम। समय का चुनाव सही नहीं था। जब श्रीदेवी की मौत हुई तब तुम्हें नहीं मरना था। समय सही चुनते तो शायद तुम्हारी मौत पर भी कुछ लोग, लोकतंत्र के पहरूए कुछ संवेदना बयां करते। समाज की राजनीतिक हस्तियां कुछ लिखतीं और बोलतीं। मगर तुम एक साधारण परिवार में जन्मे। साधारण से राज्य के एक शहर मुज़फ्फरपुर के सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। मरना ही था तुम्हें। ट्रक या कोई भी वाहन आसानी से कुचल कर भाग सकता है जो भाग गया। जिस राज्य में तुमने सांसें लीं। जन्म लिए। पढ़ने का हौसला रखा उस राज्य के मुखिया ने एक शब्द भी तुम्हारी मौत पर नहीं कहा। लेकिन अदाकारा की मौत पर मरसिया ज़रूर पढ़ आए। 

तुम्हारी मौत भी असामयिक ही थी। बल्कि ज़्यादा दर्दनाक। सड़क पर तुम छटपटाते रहे होगे। लेकिन मालूम नहीं तुम्हारी सहायता के लिए कितने लोग आए होंगे। लेकिन उधर उनकी मौत पर लोकतंत्र के तीनों प्रमुखों ने अपनी गहरी संवेदना अभिव्यक्त की। उन्हें शायद यह खबर भी न मिली हो। क्योंकि तुम्हारी मौत से ठीक बाद उनकी मौत की खबर आ गई। निश्चित ही दूसरी वाली खबर बड़ी और वजनी थी। उस खबर की रफ्तार में तुम्हारी मौत की खबर पिछड़ गई। मुझे अब तक नहीं मालूम कि उस राज्य के शिक्षामंत्री, गृह राज्यमंत्री या किसी अधिकारी ने अपनी संवेदना प्रकट की है। बच्चों तुम्हें तो मरना ही था। या तो अकाल मृत्यु के शिकार होते या फिर भूख से मरते। यदि इन सब से बच भी जाते तो तुम्हें हम जीवन भर मारते रहते। तरीके कुछ भी हो सकते थे। 

तुम्हें हम हर पल मारते हैं और उफ!!! तक नहीं करते। क्योंकि तुम न तो वोट बैंक हो और न ही नागर समाज की चिंता के केंद्र में। ज़्यादा होगा तो राष्ट्रीय बाल आयोग संज्ञान लेकर कोई जांच समिति गठित कर दे। उस समिति की रिपोर्ट आते आते तुम्हारे मां−बाप के आंसू सूख चुके होंगे। वैसे भी इस आयोग के पास कानूनन कदम उठाने का अधिकार नहीं है सो उम्मीद मत करना कि दोषी को यह आयोग कोई सज़ा सुनाएगी। 

कुपोषण, जन्मते मौत तुम्हारी ही तो होती है। ऐसे लाखों बच्चे अकाल मौत के शिकार हो जाते हैं। और हम नागर समाज विकास की बात करते नहीं अघाते। हो भी क्यों न आज दुनिया में वही लोग ज़्यादा कामयाब हैं जो बातें करना जानता है। यानी बात करने, कहने और सुनने का जिनके पास कौशल है। वे बातों की ही खाते हैं। तुम्हारे पास तो न कहने का हुनर था और न अपनी बात सुनने के लिए तुम्हारे पास मीडिया सो तुम्हारी बात तो अनसुनी होनी थी। तुम्हारी ज़रूरत तब पड़ती है जब कोई नेता, अभिनेता, राजनेता स्कूल या शहर में आने वाले होते हैं। तुम्हीं तो हो जो नाच गाकर उनका दिल बहलाया करते हो। वो कहते नहीं थकते कि तुम्हीं देश के कर्णधार हो। मगर होता क्या है उनके जाने के बाद तुम्हें कोई नहीं पूछता।

तुम कहां नहीं मरते हो। स्कूल के बाथरूम से लेकर कॉरिडोर में या फिर स्कूल की कक्षा में बंद कर दिए जाते हो। वहीं या तो दम तोड़ देते हो या फिर किसी तरह तुम्हें बचाया जाता है। दूसरी एक बात और कि तुम खाने की चाह में स्कूल जाते हो ताकि कम से कम दोपहर को भोजन मिलता है। एक जून की रोटी तो मिल जाती है। लेकिन खाना खाकर भी तो मरते हो। कभी छिपकली गिरती है तो कभी कोई और कीट। मगर मरते तो खाना खाकर तुम्हीं हो। क्या होता है तुम्हारे मरने पर या फिर प्रिंसिपल या फिर खाना बनाने वाली नौकरी से निकाल दी जाती है या फिर कुछ समय केस चलकर फिर सब कुछ शांति शांति है। कहने को तुम्हारी एक बड़ी संख्या स्कूलों से बाहर है, बताने वाले बताते हैं कि तकरीबन 7 करोड़ से ज़्यादा तुम्हारी तदाद है। मगर हमें इसका एहसास नहीं है कि तुम्हें हम किस कदर बरबाद कर रहे हैं। 

जब बात बरबाद करने की चली ही है तो बताता चलूं कि तुम्हें तुम्हारे बचपन से दूर करने के लिए पूरा बाजार तैयार है। बड़ी ही साफगोई से तुम्हें तुम्हारे बचपन से बेखबर किया जाता है। तर्क यह दिया जाता है कि यह बच्चे का सर्वांगीण विकास है। बच्चा मंच पर नाचे, गाये, धूम मचाए इससे बच्चों का व्यक्तित्व विकसित होता है। कई सारे कार्यक्रम तुम्हें ही केंद्र में रख कर बनाए जा रहे हैं जिसमें कुछ चेहरे साफ देखे जा सकते हैं जो इस उस प्रोग्राम में फिरते हैं। यह गाने का कार्यक्रम हो या नाचने का। तुम्हें मालूम भी नहीं चलने दिया जाता कि बाजार कैसे तुम्हें तुम्हारी पढ़ने की ललक को कमतर करता चलता है। तुम्हारे मां−बाप खुश हो रहे होते हैं कि तुम मंच पर दिखाई दे रहे हो। सच पूछो तो जब मंच पर तुम हारते हो और लोर से तुम्हारी आंखें डबडबा जाती हैं तब सच में मैं ज़ार ज़ार रोता हूं। रोता हूं क्योंकि जानता हूं छुटपन में हार या निकारे जाने की पीड़ा क्या होती है।

अब तो लगता है मरना और मौत भी फैशनेबल होनी चाहिए। जब आप मरें तो वह वक़्त भी माकूल हो। कोई बड़ा व्यक्ति न मरा हो। बजट का मौसम न हो। कोई बड़ी घटना न घटी हो। तब तो मरना फलेगा वरना मरे भी और चर्चा भी न हो। यह भी मरना कोई मरना है। बच्चों तुम तो तभी चर्चा में रहते हो जब या तो स्कूल में मरते हो, खाकर मरते हो, शौचालय में हत्या हो जाती है, या फिर मास्टर की मार से मरते हो। पूरी मीडिया तुम्हारी मौत पर मातम मनाती है। नागर समाज भी मोमबत्तियां लेकर कर शहर शहर, नगर नगर घूमते हैं। 

- कौशलेंद्र प्रपन्न

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