नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह से दूर रहकर विपक्ष ने एक बड़ा अवसर खो दिया
निश्चित ही खटकने वाली बात रही कि ऐसे महत्वपूर्ण मौके पर विपक्ष ने समझदारी का परिचय न देते हुए अपनी जिम्मेदारी का अहसास कराने की बजाय उन्होंने विरोध की राजनीति को आकार देने के लिये इस राष्ट्रीय-अनुष्ठान को विरोध के लिये चुना।
आजादी के अमृतकाल की एक महत्वपूर्ण, ऐतिहासिक एवं अविस्मरणीय घटना है नये संसद भवन का देश को भारतीय संस्कृति के अनुरूप अनुष्ठानपूर्वक मिलना। निश्चित रूप से देश के लोकतांत्रिक इतिहास का यह एक यादगार पल है, जिससे लोकतंत्र समृद्ध होते हुए देश को शुद्ध लोकतांत्रिक सांसें देगा। सदियों तक लोकतंत्र के माध्यम से सुशासन दिया जायेगा। इस अनूठी घटना के साथ चिन्तनीय पल भी जुड़े जब सभी प्रमुख विपक्षी दलों को इस अद्भुत अवसर का साक्षी बनना चाहिए था तब अनेक विपक्षी दलों ने नकारात्मकता, संकीर्ण राजनीतिक सोच का परिचय देते हुए संसद के नए भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करना उचित समझा। ऐसा करके उन्होंने एक महान अवसर को न केवल गंवाने एवं धुंधलाने का काम किया बल्कि लोकतंत्र की बुनियाद से अपनी दूरी बनायी है। जितना भव्य एवं ऐतिहासिक यह समारोह आयोजित हुआ, उतना ही घृणित, निन्दनीय एवं राजनीतिक अपरिपक्वता का उदाहरण बना विपक्ष का विरोध-बहिष्कार। देश की अपनी स्वतंत्र छाप और लोकतंत्र की नई कहानी कहने के लिए नया संसद भवन अगली शताब्दियों के लिए एक नया मजबूत लोकतांत्रिक रूप गढ़ने को तैयार है। जनता के लिए नए फैसले, नये भारत की बुनियाद को मजबूती देने की योजनाएं एवं नीतियां अब इसी भवन से निकलकर आएंगी। लोकतंत्र का प्रतीक नया संसद भवन केवल सत्ताधारी दल या विपक्षी दलों का नहीं है, यह देश की धरोहर है और यह हर भारतीय का है। यह बात विपक्षी दलों की समझ में क्यों नहीं आयी?
निश्चित ही खटकने वाली बात रही कि ऐसे महत्वपूर्ण मौके पर विपक्ष ने समझदारी का परिचय न देते हुए अपनी जिम्मेदारी का अहसास कराने की बजाय उन्होंने विरोध की राजनीति को आकार देने के लिये इस राष्ट्रीय-अनुष्ठान को विरोध के लिये चुना। प्रतीत होता है देश विभाजन का जो आधार रहा, वह विभाजन के साथ समाप्त नहीं हुआ, अपितु अदृश्य रूप में विभाजन का बड़ा रूप लेकर तथाकथित विपक्षी दल रूपी अलोकतांत्रिक दिमागों में घुस गया है। नया संसद भवन किसी एक दल का नहीं, समूचे राजनीतिक दलों का मंच है, फिर क्या सोच कर विपक्ष ने इससे दूरी बनायी। यह दुराव एवं बिखराव की सोच सदियों तक दर्ज रहेगी, जब भी इन्हीं विपक्षी दलों में समझदार लोगों का वर्चस्व स्थापित होगा, उस वक्त आज के नेताओं की यह गलत सोच उन्हें परेशान करेंगी। क्योंकि संसद भवन जैसी ऐतिहासिक इमारत सदियों में बनती है। नयी संसद भवन का बनना और उसका उद्घाटन होगा, भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती एवं महत्ता को नये शिखर देने का अवसर था। इस बहिष्कार के कारणों से सहमति-असहमति हो सकती है, लेकिन बड़ी बात यह है कि वे कारण दूर होने चाहिए थे।
इसे भी पढ़ें: विपक्ष ने देश की संसद से ज्यादा अपनी एकजुटता को तवज्जो दी
भारतीय लोकतंत्र की यह खूबी रही है कि तमाम मतभेदों और असहमतियों के होते हुए भी हमारा राजनीतिक नेतृत्व जरूरत पड़ने पर उनसे ऊपर उठने के उदाहरण प्रस्तुत करता रहा है। ऐसे हर मौके पर उसने यह बात साबित की है, जहां भारत की एकता एवं अखण्डता का प्रश्न आया, सभी एक छतरी के नीचे आकर देश को मजबूती देते रहे हैं। यह संभवतः पहला ऐसा बड़ा मौका है जिसने दुनिया के सामने हमारी एकता को तार-तार किया है, लोकतंत्र के मन्दिर को विपक्षहीन चेहरा देकर बड़ी भूल की है। ऐसा करके उन्होंने न केवल एक महान अवसर को गंवाने का काम किया, बल्कि यह भी प्रकट किया कि वह देश को गौरवान्वित करने वाले अवसरों पर भी अपनी क्षुद्रता एवं संकीर्णताओं से ऊपर उठने के लिए तैयार नहीं हो पाते।
लोकतंत्र में असहमति एवं आलोचना एक स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है और इसे उसी रूप में लेने की जरूरत है, लेकिन हठधर्मिता एवं विध्वंसात्मक नीति से लोकतंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। लोक राज्य, स्वराज्य, सुराज्य, रामराज्य का सुनहरा स्वप्न ऐसे अलोकतांत्रिक विपक्ष की नींव पर कैसे साकार होगा? यहां तो सभी दल अपना-अपना साम्राज्य खड़ा करने में लगे हैं। हालांकि विपक्षी दलों के तमाम अलोकतांत्रिक विरोध एवं उच्छृंखल रवैये के सकारात्मक पहलू यह है कि इस संसद भवन के उद्घाटन समारोह की जो तस्वीर दुनिया के सामने गई वह भारतीय लोकतंत्र को मजबूती देने वाली एवं भाजपा सरकार की स्थिति को सुदृढ़ करने वाली है। बेहतर होता यदि इसके उद्घाटन को लेकर सियासत नहीं होती। तब पूरे विश्व में एकजुटता का संदेश जाता। भारत के लोगों के लिए देश को नई संसद का मिलना एक भावनात्मक राष्ट्रीय मुद्दा है, इससे उनका स्वाभिमान बढ़ा है और भारतीय अपने स्वाभिमान के लिए जाने जाते हैं। उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि है। अन्य सभी मुद्दे उनके लिए इस अवसर पर गौण हैं।
लगभग एक सदी पुरानी इस संसद भवन की इमारत को मरम्मत और विस्तार से अब तक काम चल गया, लेकिन धीरे-धीरे यह भी स्पष्ट हो गया कि अब सर्वथा नई इमारत अपेक्षाकृत ज्यादा बड़ी, आधुनिक सुविधायुक्त इमारत की जरूरत है। उस लिहाज से कोविड जैसी प्रतिकूलताओं के बीच जितनी कम अवधि में यह पूरी इमारत तैयार कर ली गई, वह निश्चित रूप से काबिले तारीफ है। हालांकि यह सच है कि इसके निर्माण के समय और तरीके को लेकर शुरू से ही असहमतियां भी रहीं, लेकिन एक जीवित लोकतंत्र में यह कोई अनोखी बात नहीं है। सर्वविदित है कि संसद के नए भवन का निर्माण आवश्यक था, इस तथ्य से परिचित होने के बावजूद भी विपक्ष के किसी नेता ने कहा कि उसकी आवश्यकता ही क्या थी तो किसी अन्य ने उसकी तुलना ताबूत से करने की धृष्टता करने में भी शर्म नहीं की। टिप्पणियां तो इससे भी ज्यादा लज्जाजनक एवं शर्मनाक आईं और विपक्षी नेताओं को अपने इस तरह के घोर नकारात्मक रवैये पर शर्मिंदा होना चाहिए था, तब वे अपने कुतर्कों की तलाश में लगे रहे। इस भारतीय लोकतंत्र के बड़े सपने के आकार देने के महान अवसर से दूरी बनाने के लिए किसी सस्ते बहाने की तलाश करते हुए उन्होंने इसमें खोज निकाला कि उद्घाटन राष्ट्रपति के हाथों क्यों नहीं कराया जा रहा है? यह एक बहाना था और इसका उद्देश्य केवल येन-केन प्रकारेण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कठघरे में खड़ा करना और एक पावन अवसर पर खलल डालना था एवं उसकी गरिमा को धुंधलाना था। क्या इससे विचित्र और कुछ हो सकता है कि जो विपक्षी दल अंग्रेजों के बनाए संसद भवन में बैठने को तैयार थे, वे स्वतंत्र भारत में निर्मित संसद के उद्घाटन में शामिल होने को तैयार नहीं हुए? ऐसे लोगों की राष्ट्रीयता सहज ही शंका एवं संदेह में है।
नया संसद भवन का लोकार्पण समय की शिला पर लिखा गया एक अमिट आलेख है। यह एक सपने को सच में बदलने का अवसर कुछ के लिये गर्व करने का माध्यम बनेगा, वहीं कुछ के लिये अपनी ऐतिहासिक भूलों के लिये पश्चाताप का कारण बनेगा। अस्तित्व को पहचानने, दूसरे के अस्तित्वों से जुड़ने, राष्ट्रीय पहचान बनाने, लोकतंत्र को समृद्ध-शक्तिशाली बनाने और अपने अस्तित्व को राष्ट्र के लिये उपयोगी बनाने के लिये यह स्वर्णिम अवसर था। क्योंकि इस दिन संसद के नए भवन के उद्घाटन के साथ ही एक नए इतिहास का निर्माण हुआ। स्वतंत्र भारत की संसद के नए भवन को जो महत्ता और गरिमा प्रदान की गई, वह समय की मांग थी। संसद के नए भवन का रिकॉर्ड समय में निर्माण और उसका भारतीयता से पगे विभिन्न धर्मों की प्रार्थनाओं के माहौल में उद्घाटन ने आत्मनिर्भर और आत्मविश्वास से भरे भारत की एक नई झलक पेश की। वास्तु, विरासत, कला, संस्कृति, समृद्ध इतिहास, बलिदानी भारत-निर्माताओं के साथ संविधान की छवियों को समेटे संसद के नए भवन के भव्य उद्घाटन ने यह विश्वास पैदा करने का काम किया कि अमृतकाल में भारत नई ऊंचाइयां स्पर्श करेगा और उन सपनों को साकार करेगा, जो हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने देखे थे। भारत समृद्ध भी होगा, विश्व गुरु भी होगा और शक्तिशाली भी होगा।
-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
अन्य न्यूज़