गूगल पर निर्भर होते जा रहे हैं छात्र, सामान्य ज्ञान की भी है कमी, क्या ऐसे ही हम बनेंगे विश्व गुरु?

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उन छात्रों से जब सामान्य ज्ञान या समकालीन विषयों से कुछ सवाल पूछा तो उनका एक ही जवाब था, सर, गूगल तो है ना..अंतर इतना था कि किसी की आवाज धीमी रही तो किसी को थोड़ी तेज। मुझे करीब आठ साल पहले का एक वाकया याद आ गया।

हाल ही में एक बड़े सरकारी मीडिया संस्थान में इंटर्नशिप कर रहे छात्रों से मुखातिब होने का मौका मिला। संस्थान ने योजना शुरू की है..इंटर्नशिप के लिए आए छात्रों को हर हफ्ते कुछ सत्र विषय विशेषज्ञों से मिलाना और उनका व्याख्यान कराना। इसी सिलसिले में मुझे भी बुलावा मिला। मेरी एक आदत है। मीडिया के छात्रों से मिलते ही उनकी पढ़ाई-लिखाई के साथ ही उनके पसंदीदा अखबार-पत्रिका, टीवी कार्यक्रम आदि की जानकारी प्राप्त करना मेरी आदत में शुमार है। लगे हाथों कुछ सामान्य ज्ञान और समकालीन विषयों से जुड़ी जानकारियों को लेकर पूछताछ भी कर लेता हूं। सो, इस बार भी वैसा ही किया। मीडिया के छात्रों के जवाब आश्चर्यजनक रहे। किसी की आदत में अखबार पढ़ना शामिल नहीं था। ना अंग्रेजी का, ना ही हिंदी का। यहां यह जान लेना होगा कि इंटर्नशिप कर रहे छात्रों में तकरीबन पूरे भारत का प्रतिनिधित्व था। इलाहाबाद, मोतिहारी, बेंगलुरू, मुंबई, भोपाल, चंडीगढ़ जैसी जगहों के एक-एक या दो-दो छात्र थे। दिल्ली के एक प्रतिष्ठित महिला कॉलेज की छात्रा भी इंटर्न के उस समूह में शामिल थी। बेंगलुरू वाले छात्र तो वहां के एक प्रतिष्ठित कॉलेज से थे, जो अब डीम्ड यूनिवर्सिटी बन गया है। किसी को नियमित रूप से अपने इलाके के अखबार पढ़ने की आदत नहीं थी। किसी खबरिया चैनल का कोई प्रोग्राम भी उनका पसंदीदा नहीं था। अलबत्ता सभी मीडिया के ही छात्र थे।

उन छात्रों से जब सामान्य ज्ञान या समकालीन विषयों से कुछ सवाल पूछा तो उनका एक ही जवाब था, सर, गूगल तो है ना..अंतर इतना था कि किसी की आवाज धीमी रही तो किसी को थोड़ी तेज। मुझे करीब आठ साल पहले का एक वाकया याद आ गया। तब मैं एक टीवी चैनल का मध्यक्रम का पत्रकार था। शुरुआती स्तर के लिए पत्रकारों की जरूरत थी। इसलिए उन दिनों दिल्ली के कुछ छात्रों को साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था। साक्षात्कार के दौरान एक लड़की से जब सामान्य जानकारी से जुड़े कुछ सवाल पूछे गए तो उनका वह जवाब तक नहीं दे पाई। वह भी दिल्ली के किसी प्रतिष्ठित कॉलेज की छात्रा रह चुकी थी। जब उसके कॉलेज की प्रतिष्ठा की याद दिलाई गई तो उसने तपाक से जवाब दिया था, सर गूगल है न..जरूरत पड़ी तो उससे किसी भी सवाल का जवाब पूछ सकते हैं।

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पत्रकारिता के प्रोफेशन में आने वाले लोगों से उम्मीद की जाती है कि उनका सामान्य ज्ञान, उनकी भाषा और उनकी सोच औरों से बेहतर होगी। बेशक वे किसी एक विषय के अगाध विद्वान ना हों, लेकिन कम से बुनियादी स्तर का उनके पास बाकियों की तुलना में ज्यादा ज्ञान होगा। लेकिन अब स्थितियां बदल रही हैं। उनसे उम्मीद की जाती है कि कम से कम दो या दो से ज्यादा अखबार वे नियमित रूप से पढ़ेंगे। टेलीविजन के किसी विशेष चैनल आदि के समाचार आधारित कार्यक्रम जरूर देखेंगे। लेकिन अब ऐसे हालात नहीं रहे। वैसे तो टेलीविजन चैनल देखकर आप अपना सामान्य ज्ञान उस स्तर तक अपडेट नहीं कर सकते, जैसे अखबार पढ़कर या किसी वेबसाइट को पढ़कर। टेलीविजन चैनल तो चमत्कार, कुकुरझौंझ और हंगामे के प्रतीक बन चुके हैं। तमाशा कल्चर उनका प्रमुख तत्व है। रही बात आज के दिग्गज यू ट्यूबरों की, तो वे पत्रकार कम, पक्षकार ज्यादा है। उनकी अपनी पसंद और ना पसंद उनके यू ट्यूब चैनल पर हावी रहती है।

आज कल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआई की खूब चर्चा हो रही है। कहा जा रहा है कि इससे पत्रकारिता की नौकरियां खत्म हो जाएंगी। लेकिन सवाल यह है कि इस स्थिति को लाने में क्या पत्रकारिता का योगदान नहीं है? निश्चित तौर पर इसका भी योगदान है और इसके सबसे बड़ी वाहक बनी है पत्रकारिता की शिक्षा और समाचार चैनलों की सौंदर्यशास्त्रीयता से युक्त कुकुरझौंझ। तकनीक और संचार के विकास ने पत्रकारिता की दुनिया को आसान बनाया है। लेकिन यह आसानी बढ़ते-बढ़ते मेधा को पंगु करने तक पहुंच गई है। एक तरह से अब इंटरनेट पर निर्भरता बढ़ गई है। यह निर्भरता अब कक्षाओं में भी दिखने लगी है। जिन कक्षाओं में फोन रखना संभव है, उन कक्षाओं में अध्यापक या प्रोफेसर का व्याख्यान शुरू हुआ नहीं कि छात्र गूगल कर खोल बैठ जाते हैं और प्रोफेसर के ज्ञान को सर्च इंजन में डाल जांचने लगते हैं।

पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाने के अवसर मुझे अक्सर मिलते रहते हैं। लेकिन मैं छात्रों से उस वक्त कड़ाई से पेश आता हूं। सबका फोन बंद करा देता हूं, इस सुझाव के साथ कि मेरे द्वारा दी गई जानकारी को नोट करें और उसकी सत्यता की जांच बाद में करें। कक्षा में व्याख्यान के साथ गूगल को चलाने से छात्र कक्षा में अपना ध्यान नहीं लगा पाता और अध्यापक का भी ध्यान भंग होता है। तकनीक का विस्तार पूरी दुनिया में हुआ है। संचार क्रांति भी पूरी दुनिया में आई है। लेकिन जिन्हें अब विकसित देश मानते हैं, जो समृद्धि में हमसे कोसों आगे हैं, जिन्होंने ज्ञान आधारित समाज बनाया है, वहां कक्षाओं में फोन और गूगल पर बंदिश है। लेकिन हमारी व्यवस्था ठहरी अति लोकतांत्रिक, अगर ऐसी बंदिशें यहां लगाई जाएं तो सोशल मीडिया के दौर में हंगामा हो सकता है, सवाल उठ सकता है। ऐसे में छात्र भला क्यों ध्यान लगाने लगे। वे फिर कहेंगे ही, गूगल तो है ना।

-उमेश चतुर्वेदी

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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