इस तरह स्पीकर बने थे बालयोगी, देखते हैं आगे क्या होता है?
तब लोकसभा में टीडीपी के नेता होते थे के येरन नायडू। नायडू वाजपेयी सरकार में मंत्री बने। इस बीच चंद्रबाबू नायडू ने बालयोगी को स्पीकर बनाने का फैसला ले लिया। लेकिन इसकी जानकारी बालयोगी को नहीं मिल पाई। तब इतने फोन नहीं होते थे।
मार्च 1998 के दूसरे हफ्ते की कोई तारीख..नौ मार्च को चुनाव के नतीजे आ चुके थे..इंद्रकुमार गुजराल सरकार के इस्तीफे के बाद हुए चुनाव की मतगणना 9 और दस मार्च को हो चुकी थी.. तब अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन 265 सीटों के साथ सबसे बड़ा समूह बनकर उभर चुका था, फिर भी वह बहुमत के जादुई आंकड़े से सात सीटें दूर था..
चुनाव मैदान में बाजी मार चुके सांसदों का दिल्ली पहुंचना शुरू हो गया था..इस बीच दिल्ली के इंदिरा गांधी हवाई अड्डे पर बार-बार हिंदी और अंग्रेजी में एक उद्घोषणा हो रही थी..एक नवनिर्वाचित सांसद के लिए बार-बार एनाउंसमेंट हो रहा था. वे खास जगह पर पहुंचें और वहां मौजूद व्यक्ति से संपर्क करें...
जिनके लिए चर्चा हो रही थी, उनके कानों में आवाज पड़ी तो तकरीबन भागते हुए पहुंचे...दरअसल नवनिवार्चित सांसदों को ठहराने का इंतजाम लोकसभा का सचिवालय देखता है। जिनके घर नहीं होते या जो पहली बार चुने जाते हैं, उनके ठहरने का इंतजाम सचिवालय ही करता है। उन्हें हवाई अड्डे या रेलवे स्टेशन से रिसीव करके वहां ले जाया जाता है..वह नवेले सांसद सोच रहे थे कि शायद सचिवालय वाले ही उन्हें खोज रहे हैं..
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यही सोचते हुए वह नवेले सांसद बताई हुई जगह पर पहुंचे..लेकिन वहां का माहौल उनकी सोच से कुछ अलग ही था..उनके सामने लोकसभा स्पीकर के नामांकन के तीन- चार सेट रखे हुए थे। काउंटर पर मौजूद लोग बीजेपी के कार्यकर्ता थे, उन्होंने जल्दी-जल्दी उनसे उन नामांकन पत्रों पर हस्ताक्षर कराया और फिर कार में बैठाकर उन्हें ले उड़े।
वह सांसद थे, आंध्र प्रदेश की अमलापुरम् सीट से चुने गए गंति मोहन चंद्र बालयोगी, जिन्हें बाद में इतिहास जीएमसी बालयोगी नाम से याद करता है..
बहुमत के आंकड़े से दूर रह गए एनडीए को तेलुगू देशम ने समर्थन देने का ऐलान कर दिया था.. दरअसल बहुमत ना मिलने के बाद बीजेपी और एनडीए ने बातचीत के रास्ते खोल रखे थे..एनडीए के संयोजक जार्ज फर्नांडिस का तेलुगू देशम के प्रमुख नारा चंद्रबाबू नायडू अच्छे रिश्ते थे..बात बन गई और बारह सांसदों वाली नायडू की अगुआई वाली तेलुगू देशम पार्टी यानी टीडीपी ने वाजपेयी की अगुआई वाली भावी सरकार को समर्थन देने का फैसला कर लिया...
टीडीपी ने बदले में मंत्रीपद के साथ ही अपने लिए लोकसभा अध्यक्ष का पद भी मांगा। जयललिता तब एनडीए में शामिल थीं, लेकिन उन्होंने समर्थन पत्र देने में इतनी देर लगाई थी कि उन्हें लेकर बीजेपी सशंकित हो गई थी..इसलिए समर्थन के बदले नायडू की शर्तों को उसने स्वीकार करने के लिए तकरीबन मजबूर होना पड़ा..
तब लोकसभा में टीडीपी के नेता होते थे के येरन नायडू। नायडू वाजपेयी सरकार में मंत्री बने। इस बीच चंद्रबाबू नायडू ने बालयोगी को स्पीकर बनाने का फैसला ले लिया। लेकिन इसकी जानकारी बालयोगी को नहीं मिल पाई। तब इतने फोन नहीं होते थे। शायद वे दिल्ली के रास्ते में थे, इसलिए उन तक सूचना पहुंच नहीं पाई। लोकसभा का अध्यक्ष के लिए नामांकन की अधिसूचना जारी हो चुकी थी, इसमें देर ना हो, इसीलिए बालयोगी का हवाई अड्डे पर बेसब्री से इंतजार हो रहा था। बालयोगी के लिए नामांकन पत्र के कई सेट तैयार रखे गए थे। हवाई अड्डे पर ही उन पर बालयोगी के हस्ताक्षर कराकर एक दल सीधे उन्हें लेकर संसद पहुंचा और उनका नामांकन दाखिल कराया गया। इसके बाद उन्हें करोलबाग के उस खास दर्जी के पास ले जाया गया, जो राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और लोकसभा स्पीकर के लिए खासतौर पर सूट तैयार करता था..
बालयोगी ऐसे स्पीकर रहे, जिन्हें नामांकन पत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद पता चला कि वे देश की सबसे बड़ी पंचायत के प्रमुख बनने जा रहे हैं। उन्हें इसके पहले तक इसकी भनक तक नहीं लगी थी।
बालयोगी हालांकि लोकसभा के लिए पहली 1991 में चुने जा चुके थे, लेकिन 1996 में वे हार गए । इसके बाद 1998 में वे दूसरी बार लोकसभा पहुंचे। पेशे से वकील बालयोगी ने स्पीकर रहते एक गलती की। 1999 में वाजपेयी सरकार के खिलाफ पेश अविश्वास प्रस्ताव के मतदान पर उड़ीसा से कांग्रेसी सांसद गिरिधर गोमांग के मतदान पर फैसला खुद नहीं लिया, बल्कि उनकी अंतरात्मा पर फैसला छोड़ दिया। दरअसल गोमांग कुछ महीने पहले ही उड़ीसा के मुख्यमंत्री बन चुके थे, यह बात और है कि उन्होंने तब तक लोकसभा से इस्तीफा नहीं दिया था। गोमांग के मतदान में हिस्सा लेने पर बीजेपी सांसदों, खासकर भदोही के तत्कालीन सांसद वीरेंद्र सिंह मस्त ने सवाल उठाया था। वह सरकार महज एक वोट से गिर गई थी। कहा जाता है कि अगर बालयोगी ने गोमांग को मतदान से रोक दिया होता तो देश सैकड़ों करोड़ के चुनावी खर्च से बच जाता.. क्योंकि वाजपेयी सरकार बच जाती। संसदीय व्यवस्था के मुताबिक अगर पक्ष और विपक्ष में बराबर मत पड़ते हैं तो स्पीकर अपना मत किसी पक्ष को दे सकता है। अगर गोमांग को वोट नहीं देने दिया गया होता तो वाजपेयी सरकार के पक्ष और विपक्ष में बराबर-बराबर मत पड़ते, जिसके बाद बालयोगी सरकार के समर्थन में निर्णायक मत दे देते।
-उमेश चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
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