सिकुड़ते जनाधार के बीच अरमानों के पंख फैला कर क्या दर्शाना चाह रही है बसपा?

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ANI
अजय कुमार । Jan 17 2024 3:32PM

बात लोकसभा चुनाव की करें तो साल 2019 का चुनाव बसपा ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में लड़ा था, बसपा को इस चुनाव में 10 सीटें मिली थीं और सपा का खाता पांच सीटों पर सिमट गया था। इस चुनाव के बाद सपा और बसपा का गठबंधन टूट गया।

बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने जन्मदिन पर पर राजनैतिक धुंध पूरी साफ कर दी। बसपा अकेले चुनाव लड़ेगी, यह घोषणा करके मायावती ने उन लोगों की राह आसान कर दी है जो बसपा से गठबंधन की उम्मीद में एक कदम आगे तो दो कदम पीछे चलने को मजबूर हो रहे थे। मायावती के इस फैसले के निहितार्थ भी निकाले जायेंगे तो बसपा को बीजेपी की बी टीम बताने का सिलसिला भी तेज हो जायेगा। ऐसा इसलिए भी होगा क्योंकि बसपा के अकेले चुनाव लड़ने का सीधा फायदा भाजपा को मिलेगा। वहीं कांग्रेस का मायावती के इस फैसले से उत्तर प्रदेश में पैर पसारने का सपना टूट सकता है। कांग्रेस जानती है कि समाजवादी पार्टी के साथ 2017 के विधान सभा चुनाव में गठबंधन का उसे कोई फायदा नहीं मिला था, जिसके चलते लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को अपना हश्र 2017 जैसा होता दिख रहा है। कांग्रेस के लिए बसपा की एकला चलो नीति इसलिए भी बड़ा झटका है क्योंकि राहुल गांधी लगातार इस बात की कोशिश में लगे थे कि बसपा भी इंडी गठबंधन का हिस्सा बन जाये। यदि ऐसा हो जाता तो निश्चित ही बीजेपी के लिए यूपी में राह मुश्किल हो सकती थी। वैसे मायावती ने चुनाव बाद गठबंधन की संभावनाओं को जिंदा रखा है। मायावती के पास करीब 18 फीसदी कोर वोटर हैं। मायावती जिस भी पार्टी से हाथ मिलाती हैं उसकी बल्ले-बल्ले हो जाती है, लेकिन दूसरी पार्टियों का वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं होता है इसीलिये मायावती गठबंधन को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं रहती हैं।

मायावती के सियासी सफर की बात की जाये तो वह चार बार उत्तर प्रदेश की सीएम बन चुकी हैं, जिसमें से तीन बार वह बीजेपी के गठबंधन के साथ मुख्यमंत्री बनीं तो 2007 के विधान सभा चुनाव में मायावती को अपने दम पर बहुमत मिला और चौथी बार राज्य की सीएम वो अकेले अपनी पार्टी के दम पर बनीं थीं लेकिन इसके बाद से ही मायावती की ताक़त घटने लगी। सबसे हालिया विधानसभा चुनाव में बसपा 403 विधासभा सीटों में से महज़ एक सीट जीत पायी। पार्टी का वोट शेयर 13 फ़ीसदी था। थोड़ा और पीछे जाएं तो 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा को 403 में से 19 सीटें मिली थीं। वोट शेयर 22 फ़ीसदी था।

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बात लोकसभा चुनाव की करें तो साल 2019 का चुनाव बसपा ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में लड़ा था, बसपा को इस चुनाव में 10 सीटें मिली थीं और सपा का खाता पांच सीटों पर सिमट गया था। इस चुनाव के बाद सपा और बसपा का गठबंधन टूट गया। अखिलेश यादव ने कहा कि हमारा वोट तो बहन जी को ट्रांसफ़र हुआ लेकिन इसमें उनका नुकसान हो गया। वहीं मायावती ने भी चुनाव के बाद दिए गए बयान में कहा कि सपा के साथ जाकर उन्हें चुनाव में नुक़सान हुआ। एक अनुमान के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में दलितों में 65 उपजातियां हैं। इनमें सबसे बड़ी आबादी जाटव समुदाय की है। कुल दलित आबादी का 50 फ़ीसदी हिस्सा जाटव हैं। मायावती ख़ुद इसी समुदाय से आती हैं। मायावती का अब दलितों के बीच वो प्रभाव नहीं रह गया जैसा पहले हुआ करता था। उनकी पार्टी जाटवों की पार्टी बन कर रह गई है। दलितों का एक अच्छा ख़ासा तबका बीजेपी के साथ चला गया है और ये पिछले लोकसभा चुनाव में स्पष्ट दिखाई दिया। जाटव और रैदास जैसी जातियां ही अब मायावती के कोर वोटर रह गई हैं। वाल्मीकि, पासी जातियां अब मायावती के साथ नहीं हैं। अब मायावती की वो सियासी ताक़त नहीं रही, जिसके लिए वो जानी जाती थीं। वो अब वोट काट तो सकती हैं लेकिन किंगमेकर नहीं बन सकतीं। मौजूदा हालात में तो कम से कम ऐसा ही लगता है।

     

बहरहाल, मायवती को सबसे अधिक सियासी नुकसान भी भारतीय जनता पार्टी ने ही पहुंचाया है। साल 2014 के चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में बीजेपी की छवि बहुत बदली है। राज्य की राजनीति को क़रीब से समझने वाले लोग मानते हैं कि बीजेपी की छवि जिस तरह पहले ब्राह्मण और बनियों की पार्टी की थी आज वैसी छवि नहीं रही है। वो आज वैसी नहीं देखी जाती। अब बीजेपी का दायरा ऊंची जातियों की पार्टी से आगे बढ़ कर दलितों और पिछड़ों के बीच भी पहुंच गया है। दलितों में एक तबका बहन जी के सियासी रूप से कमजोर होने के बाद भाजपा की तरफ चला गया है। इसके अलावा बीते कुछ सालों में मायावती ने अपने पार्टी की स्थिति बेहतर करने के लिए कुछ नहीं किया है। उनकी पार्टी राजस्थान, पंजाब और मध्य प्रदेश में एक बड़ी खिलाड़ी हुआ करती थी लेकिन इन राज्यों को तो भूल जाइए वो अपने गृह राज्य यूपी में ही सिमटती जा रही है। आने वाला लोकसभा चुनाव मायावती और उनकी पार्टी के लिए अस्तित्व बचाने की लड़ाई होगी। बीते चुनावों में पार्टी का गिरता प्रदर्शन तो कम से कम इसी ओर इशारा करता है। पार्टी के घटते वोट शेयर और सीटें तो मायावती के लिए चुनौती हैं ही, उनके लिए एक बड़ी चुनौती ये भी है कि उनके बड़े नेता उनका साथ छोड़ चुके हैं या उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया या है। स्वामी प्रसाद मौर्या, लालाजी वर्मा और इंद्रजीत जैसे बड़े क़द के नेता अब उनका साथ छोड़ चुके हैं। मौजूदा सांसद दानिश अली को बहनजी ने बाहर कर दिया है। ऐसे में अकेले पार्टी को ज़िंदा रखना मायावती के लिए आने वाले चुनाव में सबसे बड़ी चुनौती होगी क्योंकि उसका मुकाबला सपा और कांग्रेस के साथ-साथ मोदी की ‘सेना’ से भी होगा, जो लगातार दलित वोटरों को लुभाने में लगे हैं।

बीजेपी लम्बे समय से दलित मतदाताओं को साधने की रणनीति पर काम कर रही है। पिछले दिनों हुए उपचुनाव में बसपा प्रत्याशी नहीं होने के बावजूद बीजेपी को सफलता नहीं मिली थी, जिससे बीजेपी को इस बात का अहसास अच्छी तरह से हो गया है कि 2024 की नैय्या दलित मतदाताओं को साधे बिना पार नहीं लगने वाली है। इसलिए बीजेपी का थिंकटैंक दलित बस्तियों में पैठ बनाने की योजना पर काम कर रहा है। बस्ती संपर्क एवं संवाद अभियान के जरिए दलित मतदाताओं में पैठ बनाने के लिए कार्यक्रम चलाया जा रहा है। बीजेपी अनुसूचित जाति मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष रामचंद्र कनौजिया ने बताया कि उत्तर प्रदेश के सभी संगठनात्मक जिलों में अध्यक्षों को दलित बस्तियों के बीच जाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। बस्ती संपर्क एवं संवाद अभियान के जरिए बीजेपी की डबल इंजन की सरकार के कामों को बताया जा रहा है। बीजेपी कार्यकर्ता दलित बस्तियों में जाकर फीडबैक लेंगे। दलित बस्तियों से मिले फीडबैक को बीजेपी लोकसभा चुनाव में इस्तेमाल करेगी।

-अजय कुमार

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