अफगान मुद्दे को लेकर भारत की पहल पर क्यों बिदक रहे हैं पाकिस्तान और चीन ?

ajit doval

भारत ने 5-6 दशकों और खासकर पिछले 20 साल में वहां इतना निर्माण-कार्य किया है, जितना किसी अन्य देश ने नहीं किया है। अब भी भारत 50 हजार टन गेहूं काबुल भेजना चाहता है लेकिन पाकिस्तान उसे काबुल तक ले जाने के लिए सड़क का रास्ता देने को तैयार नहीं है।

यह खुशी की बात है कि अफगानिस्तान को लेकर हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने अच्छी पहल की है। उन्होंने पाकिस्तान, चीन, ईरान, रूस और मध्य एशिया के पांचों गणतंत्रों के सुरक्षा सलाहकारों को भारत आमंत्रित किया है ताकि वे सब मिलकर अफगानिस्तान के संकट से निपटने की साझा नीति बना सकें। इन देशों की यह बैठक 10 से 13 नवंबर तक चलनी है। जाहिर है कि हर देश के अपने-अपने राष्ट्रहित होते हैं। इसीलिए सब मिलकर कोई एक-समान नीति पर सहमत हो जाएं, यह आसान नहीं है लेकिन पाकिस्तान और चीन का रवैया अजीबो-गरीब है।

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चीन ने तो अभी तक नहीं बताया है कि इस बैठक में वह अपना प्रतिनिधि भेज रहा है या नहीं? पाकिस्तान उससे भी आगे निकल गया है। उसके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोइद युसूफ ने दिल्ली आने से तो मना कर ही दिया है लेकिन उन्होंने एक ऐसा बयान दे दिया है, जो समझ के बाहर है। युसूफ ने कह दिया है कि ‘‘भारत तो कामबिगाड़ू है। वह शांतिदूत कैसे बन सकता है।’’ युसूफ ज़रा बताएं कि भारत ने अफगानिस्तान में कौन-सा काम बिगाड़ा है? पिछले 50-60 साल से तो मैं अफगानिस्तान के गांव-गांव और शहर-शहर में जाता रहा हूं। वहां के सारे सत्तारुढ़ और विरोधी नेताओं से मेरा संपर्क रहा है। आज तक किसी अफगान के मुंह से मैंने ऐसी बात नहीं सुनी जैसी युसूफ कह रहे हैं।

भारत ने पिछले 5-6 दशकों और खासकर पिछले 20 साल में वहां इतना निर्माण-कार्य किया है, जितना किसी अन्य देश ने नहीं किया है। अब भी भारत 50 हजार टन गेहूं काबुल भेजना चाहता है लेकिन पाकिस्तान उसे काबुल तक ले जाने के लिए सड़क का रास्ता देने को तैयार नहीं है। भुखमरी के शिकार हो रहे अफगानों की नज़र में पाकिस्तान की छवि उठेगी या गिरेगी? पाकिस्तान अपना नुकसान खुद कर रहा है। वह लाखों अफगानों को मजबूर कर रहा है कि वे पाकिस्तान में आ धमकें। यह ऐसा दुर्लभ मौका था, जिसका लाभ उठाकर भारत से पाकिस्तान लंबी और गहरी बात शुरू कर सकता था। कश्मीर तथा सर्वाधिक अनुग्रहीत राष्ट्र जैसे मुद्दों पर भी बात शुरू हो सकती थी। भयंकर आर्थिक संकट से जूझता पाकिस्तान इस मौके को हाथ से क्यों फिसलने दे रहा है ?  

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जहां तक चीन का सवाल है, यदि वह इस बैठक में भाग नहीं लेगा तो वह पाकिस्तान का पिछलग्गू कहलाएगा। महाशक्ति कहलवाने की उसकी छवि भी विकृत होगी। जब उसके बड़े फौजी अफसर गलवान घाटी जैसे नाजुक मुद्दे पर भारतीय अफसरों से बात कर सकते हैं तो उसके सुरक्षा सलाहकार दिल्ली क्यों नहीं आ सकते? यदि वह दिल्ली नहीं आना चाहते हैं तो न आएं, वे ‘जूम’ पर ही बात कर लें। अफगानिस्तान के पड़ौसी देशों की एकजुट मदद के बिना अफगान-संकट का हल होना असंभव है।

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक

(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)

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