मायावती ने भतीजे आकाश के नाजुक कंधों पर क्यों डाल दिया हाथी का भार?

Akash Anand
ANI

लोकसभा चुनाव से पहले 12 जनवरी 2019 को बसपा ने पुराने गिले शिकवे भुलाकर सपा के साथ गठबंधन किया। दोनों पार्टियां गेस्ट हाउस कांड के 26 साल बाद साथ आई थीं। लेकिन, रिजल्ट अच्छे नहीं रहे। गठबंधन की बदौलत मायावती को सिर्फ 10 सीट ही मिल पाई।

आकाश आनंद बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती के भतीजे हैं। बसपा प्रमुख ने आकाश को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित किया है। अपनी स्थापना के 39 वर्ष की यात्रा में बसपा राजनीतिक हैसियत के हिसाब से काफी बुरे दौर से गुजर रही है। आकाश आनंद बसपा सुप्रीमो के छोटे भाई आनंद कुमार के बेटे हैं। आकाश ने लंदन से मास्टर ऑफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन की पढ़ाई की है। परिवारवाद के खिलाफ हमेशा बात करने वाली मायावती ने कभी अपने भाई आनंद कुमार को तरजीह नहीं दी। लेकिन, विरासत की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपने भतीजे आकाश आनंद को आगे किया।

बसपा प्रमुख 2017 में सहारनपुर की हुई रैली में आकाश आनंद को अपने साथ मंच पर लाई थीं। इसे आकाश आनंद की पॉलिटिकल लॉन्चिंग मंच भी कहा जाता है। इसके बाद से ही उन्हें मायावती के उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जाने लगा। अब आकाश को राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित करके 28 वर्ष के आकाश के नाजुक कंधों पर हाथी जितना भारी वजन रख दिया है।

इसे भी पढ़ें: फिर सामने आया मायावती का ‘तिलक-तराजू और तलवार’ विरोधी चेहरा

बसपा से जुड़ने के बाद आकाश आनंद वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी के स्टार प्रचारकों में शामिल रहे हैं। हालिया पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान आकाश को राष्ट्रीय को-ऑर्डिनेटर बनाने के बाद पहली बार चुनावों में पार्टी ने इतनी बड़ी जिम्मेदारी दी थी। मायावती ने भी सभी राज्यों में रैलियां कीं। कोशिश यह थी कि अगर यहां बेहतर प्रदर्शन होता है तो इसका श्रेय आकाश को ही जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

हालिया पांच राज्यों के चुनाव में भी मिजोरम में तो बसपा ने चुनाव नहीं लड़ा। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलगांना में पार्टी चुनाव मैदान में उतरी। पिछले चुनाव के मुकाबले चारों राज्यों में बसपा की सीटें और वोट प्रतिशत दोनों घटे हैं। राजस्थान और एमपी के शुरुआती रुझानों में बसपा कुछ सीटों पर टक्कर देती दिखी, लेकिन राजस्थान को छोड़कर कहीं खाता नहीं खोल सकी। राजस्थान में उसे दो सीटों पर जीत मिली है।

बसपा ने लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान किया है। इससे पहले पार्टी ने मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में पूरा जोर लगाया। पार्टी की मंशा यह थी कि इन राज्यों में अगर पहले जैसा या उससे बेहतर प्रदर्शन करती है तो इसका फायदा लोकसभा चुनाव में मिलेगा। भविष्य में चुनाव बाद गठबंधन बनता है तो उसमें भी वह जोड़-तोड़ की स्थिति में आ सकती है। नतीजों ने इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया। दो राज्यों- छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में गठबंधन के साथ चुनाव लड़ा। राजस्थान और तेलंगाना में सभी सीटों पर प्रत्याशी उतारे, लेकिन पार्टी कोई करिश्मा नहीं कर सकी।

बसपा संस्थापक कांशीराम ने अस्सी के दशक में दलित समुदाय के बीच ऐसी राजनीतिक चेतना जगाई कि यूपी में बसपा की 4 बार सरकार बनी और मायावती मुख्यमंत्री रहीं। यूपी से सटे बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, पंजाब, छत्तीसगढ़ में भी बसपा अपनी जड़ें जमाने में सफल रही थी। भले ही यूपी की तरह देश के दूसरे राज्यों में बसपा की सरकार न बनी हो, लेकिन विधायक और सांसद जीतते रहे हैं। दरअसल, कांशीराम के निधन के बाद से दलित और पिछड़ी जातियों का बसपा से लगातार मोहभंग होता चला गया। मायावती के हाथों में बसपा की कमान आने के बाद पार्टी ने 2007 में यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। लेकिन जातीय क्षत्रपों के धीरे-धीरे बसपा से निकलने और निकाले जाने के बाद पार्टी कमजोर होती चली गई।

देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में बसपा का ग्राफ चुनाव-दर-चुनाव गिर रहा है। यूपी में बीएसपी को 2017 में 19 सीटें मिली थीं और तब उनका वोट प्रतिशत 22.20 था। साल 2012 में बीएसपी को 80 सीटें और 25.90 फीसदी वोट मिले। जबकि, 2007 में 206 सीटों के साथ 30.40 फीसदी वोट हासिल हुए और 2002 में 98 सीटें और 23.10 फीसदी वोट मिले थे। लेकिन 2022 के चुनाव में बीएसपी को सिर्फ एक सीट नसीब हुई और पार्टी को 13 फीसदी से भी कम वोट मिले हैं। जबकि, 1996 से लेकर आज तक बीएसपी को यूपी के किसी भी विधानसभा चुनाव में 19 फीसदी से कम वोट नहीं मिले थे।

लोकसभा चुनाव से पहले 12 जनवरी 2019 को बसपा ने पुराने गिले शिकवे भुलाकर सपा के साथ गठबंधन किया। दोनों पार्टियां गेस्ट हाउस कांड के 26 साल बाद साथ आई थीं। लेकिन, रिजल्ट अच्छे नहीं रहे। गठबंधन की बदौलत मायावती को सिर्फ 10 सीट ही मिल पाई। हालांकि, 2014 में शून्य पर सिमटी बसपा के लिए यह संजीवनी की तरह ही रहा। मायावती ने 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद जब समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन तोड़ने की घोषणा की थी और पार्टी संगठन में बड़े स्तर पर फेरबदल हुआ था, तो आकाश को राष्ट्रीय समन्वयक बनाया गया था। 2022 में हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए बसपा के स्टार प्रचारकों की सूची में आकाश का नाम मायावती के बाद दूसरे स्थान पर था। उन्हें विभिन्न राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी कैडर को तैयार करने का काम भी सौंपा गया है।

मायावती के पास शुरू से ही दलित और मुस्लिम वोटबैंक का गठजोड़ रहा है। लेकिन अब उसका कोर वोट उनसे छिटक रहा है। यूपी में बसपा के कमजोर होने के चलते दलित समुदाय बीजेपी के साथ जुड़ा हुआ है। दिल्ली में एक समय बसपा तीसरी ताकत के तौर पर उभरी थी, लेकिन अब पूरी तरह से खत्म हो चुकी है। दलित दिल्ली में आम आदमी पार्टी के साथ चले गये। उत्तराखंड और हरियाणा में उसका एक भी विधायक नहीं है। पंजाब में लंबे समय बाद उसका एक विधायक बना है। कर्नाटक में बसपा का 2018 में एक विधायक था, लेकिन 2023 के चुनाव में वो भी हार गया। बिहार में बसपा के टिकट पर जीते इकलौते विधायक ने जेडीयू का दामन थाम रखा है। कर्नाटक और तेलंगाना में मुस्लिम वोटरों ने कांग्रेस का साथ देकर सरकार बनवाई है।

राजनीतिक गलियारों में प्रायः मायावती की सक्रियता को लेकर प्रश्न उठते रहे हैं। अब वे पहले की तरह चुनावी सभाओं में मौजूदगी नहीं दिखा पाती हैं। जानकारी के मुताबिक, 2022 में यूपी चुनाव के दौरान जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 28 रैलियां और रोड शो किए, तो वहीं मायावती सिर्फ 18 बार रैली करती हुई दिखाई पड़ीं। जबकि प्रियंका गांधी ने 209, सीएम योगी ने 203 और अखिलेश यादव ने 131 रैलियां और रोड शो किए। यहां तक कि पूरे चुनाव के दौरान मायावती सिर्फ 1 बार मीडिया के सवालों का जवाब देती हुई नजर आईं। ऐसे में आकाश आनंद जैसे युवा चेहरे के पीछे खड़े होकर मायावती एक बार फिर बसपा को दलित वोटरों को अपने पाले में लाने की कोशिश करती दिखाई देती हैं। फिलहाल, आकाश उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को छोड़कर अन्य राज्यों में बहुजन समाज पार्टी का कामकाज देखेंगे। इन दोनों राज्यों में फिलहाल मायावती ही पार्टी के लिए निर्णय लेंगी।

हालिया विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के समानांतर हिंदी पट्टी में चंद्रशेखर रावण ने युवा दलित नेता के तौर पर स्थापित होने का प्रयास किया था। चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी को चुनाव नतीजों से भारी निराशा हाथ लगी है। मायावती ने मौके की नजाकत को भांपते हुए अपने भतीजे आकाश आनंद के रूप में अपने सबसे मजबूत सिपाही को आगे बढ़ाते हुए युवा दलित नेता के खाली स्थान को भरने का काम किया है। पार्टी में महत्त्वपूर्ण भूमिका में आने के बाद अब देखना यह होगा कि आकाश अगले लोकसभा चुनाव में पार्टी के लिए कितना कमाल कर पाते हैं। चूंकि अभी लोकसभा चुनाव लगभग पांच महीने दूर हैं। इस अवधि में आकाश के सामने संगठन को मजबूत करने और चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने की जिम्मेदारी होगी। आकाश बसपा के ग्राफ को कितना ऊंचा उठा पाते हैं, इस पर सबकी निगाहें रहेंगी।

-डॉ. आशीष वशिष्ठ

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
All the updates here:

अन्य न्यूज़