क्या बहुमत पर भारी पड़ गया है अल्पमत ? हंगामे को देखते रहने के लिए क्यों मजबूर है सरकार ?

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देखा जाये तो यह संसद का नियमित सत्र जरूर था लेकिन इसके लिए तैयारियां विशेष रूप से की गयी थीं। कोरोना प्रोटोकॉल का पालन कराते हुए सत्र का आयोजन किया गया था। संसद परिसर में तमाम तरह के उपकरण लगाये गये थे ताकि किसी प्रकार के संक्रमण के प्रसार को रोका जा सके।

कोरोना की दूसरी लहर से जब देश जूझ रहा था और व्यवस्थाएं चरमराती नजर आ रही थीं तब विपक्ष सरकार से बार-बार माँग कर रहा था कि संसद का विशेष सत्र बुलाया जाये ताकि महामारी से निपटने के उपायों पर चर्चा की जा सके लेकिन जब संसद के नियमित मॉनसून सत्र का आयोजन हुआ तो उसे विपक्षी दलों ने चलने नहीं दिया। जब हर क्षेत्र में 100 प्रतिशत कार्य पूरा करने पर जोर दिया जाता है तो ऐसे में यह निराशाजनक ही है कि हमारे देश की संसद के निचले सदन लोकसभा में 22 प्रतिशत और ऊपरी सदन राज्यसभा में 28 प्रतिशत कामकाज ही हो पाया।

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सरकार ने तो सबको साथ रखने का हर संभव प्रयास किया

देखा जाये तो यह संसद का नियमित सत्र जरूर था लेकिन इसके लिए तैयारियां विशेष रूप से की गयी थीं। कोरोना प्रोटोकॉल का पालन कराते हुए सत्र का आयोजन किया गया था। संसद परिसर में तमाम तरह के उपकरण लगाये गये थे ताकि किसी भी प्रकार के संक्रमण के प्रसार को रोका जा सके। यही नहीं सत्र से पहले भारत-चीन तथा अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर विपक्ष के बड़े नेताओं के साथ बैठकें कर केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों ने उन्हें यथास्थिति की जानकारी दी थी। लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा के सभापति और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सर्वदलीय बैठकों में भी सभी दलों को यह आश्वासन मिला था कि उनकी बात सुनी जायेगी। इसके अलावा सत्र की शुरुआत होते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा था कि विपक्ष तीखे से तीखे सवाल पूछे मगर सरकार को जवाब देने का समय भी दे लेकिन विपक्ष तो जैसे पहले से ही ठानकर बैठा था कि किसी कीमत पर संसद को काम नहीं करने दिया जायेगा और वह अपने अभियान में सफल भी रहा।

क्या ऐसे ही लोकतंत्र चलेगा ?

हम आजादी की 75वीं वर्षगाँठ मनाने जा रहे हैं, इन वर्षों में हमारे देश ने तरक्की भी बहुत की है, हम दुनिया में लोकतंत्र की जननी हैं लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि लोकतंत्र को इतना शर्मसार कर दिया गया है कि राज्यसभा के सभापति सदन में रो पड़ते हैं, लोकसभा के अध्यक्ष कहते हैं कि सदन में जो कुछ हुआ उससे मुझे बड़ी वेदना हुई। यह सब क्या दर्शाता है? क्या हमारा लोकतंत्र इतना मजबूर हो गया है कि बहुमत पर अल्पमत भारी पड़ रहा है? क्या विपक्ष इतना ताकतवर हो गया है कि देश के विकास की राह में बाधा उत्पन्न कर सके और सरकार सिर्फ देखती रहने को मजबूर हो? राज्यसभा में कभी मंत्रियों के हाथ से कागज छीनकर फाड़े गये, कभी सदन के नेता और मंत्रियों का घेराव किया गया तो कभी रिपोर्टर मेज पर चढ़कर नियमावली को आसन की ओर उछाला गया। क्या इसी तरह से लोकतंत्र चलता है?

पब्लिक सब देख रही है

किसान नेताओं के समर्थन में संसद के मॉनसून सत्र का पूरा समय तो विपक्ष ने बर्बाद किया ही साथ ही इस सप्ताह मंगलवार को राज्यसभा में कांग्रेस सांसद प्रताप सिंह बाजवा ने जो हरकत की उसने लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर को शर्मसार कर दिया। पूरे देश ने देखा कि जिन सांसदों पर कानून बनाने की जिम्मेदारी है उनमें से कुछ ने कैसे नियमों की धज्जियाँ उड़ाईं। ना सिर्फ दोनों सदनों की मर्यादा भंग की गयी बल्कि संसद के प्रति अविश्वास का भाव पैदा करने का प्रयास भी किया गया क्योंकि आज के युग में यह जो पब्लिक है वह अच्छी तरह जानती है कि संसद की कार्यवाही के संचालन में हर घंटे लाखों रुपये खर्च होते हैं और इस खर्च की भरपाई जनता अपनी गाढ़ी कमाई से करती है।

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नो वर्क नो पे लागू हो

बहरहाल, अब समय आ गया है कि सदन की कार्यवाही के संचालन से जुड़े नियमों को और सख्त बनाया जाये साथ ही 'नो वर्क नो पे' का सिद्धांत हमारे माननीयों पर भी लागू हो। जो लोग सत्र की बर्बादी को अपनी विजय मान रहे हैं उन्हें यह पता होना चाहिए कि इसका गलत संदेश जनता के बीच गया है। देखा जाये तो सरकार और विपक्ष का तो फायदा हो गया लेकिन जनता ठगी गयी है। सरकार ने हंगामे के बीच अपना विधायी कामकाज निबटा लिया, विपक्ष ने हंगामा करके मीडिया की सुर्खियों में स्थान पा लिया। लेकिन जनता का क्या हुआ? वह तो ठगी गयी है क्योंकि जनता संसद में अपने मुद्दों से जुड़े विषयों पर चर्चा चाहती थी, जनता चाहती थी विपक्ष सरकार से जवाब मांगे, जनता चाहती थी कि सरकार जिन विधेयकों को पारित करा रही है उनसे संबंधित सभी पहलू चर्चा के दौरान उसको अच्छी तरह से समझ आएँ। लेकिन ऐसा नहीं होने दिया गया। यही नहीं यह भी पहली बार हुआ जब संसद में देश के प्रधानमंत्री अपनी बात नहीं रख पाये।

खैर...कहा जा सकता है कि जिन नेताओं को खुशफहमी पालनी है कि उन्होंने संसद का समय और जनता के पैसे की बर्बादी कर बहुत अच्छा काम कर दिया है वह खुशफहमी पाल सकते हैं, यदि वह आम जन के बीच जाकर पता लगाएं तो ज्ञात होगा कि यही भावना प्रबल हो रही है कि विपक्ष ने सेल्फ गोल कर लिया है। इस समय सदन में आचरण को लेकर सरकार और विपक्ष के बीच जिस तरह का आरोप-प्रत्यारोप देखने को मिल रहा है वह आगामी दिनों में और बढ़ने की संभावना भी स्पष्ट नजर आ रही है।

-नीरज कुमार दुबे

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