14 TV Anchors का बहिष्कार कर क्या विपक्ष ने सत्ता मिलने पर फिर Emergency लगाने के संकेत दिये हैं?

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राहुल गांधी विदेश में घूम घूम कर कह रहे हैं कि भारत में विपक्ष की आवाज को दबाया जा रहा है और मीडिया को स्वतंत्रता के साथ काम नहीं करने दिया जा रहा है। आश्चर्य इस बात पर भी है कि एक और भारत जोड़ो का नारा दिया जा रहा है लेकिन दूसरी ओर ठीक इसके उलट काम किया जा रहा है।

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। लोकतंत्र की नींव मजबूत रहे इसके लिए चारों स्तंभों का मजबूत रहना बहुत जरूरी है। लेकिन जिस तरह मीडिया पर हमला हो रहा है वह दर्शा रहा है कि देश में आपातकाल लगा कर लोकतंत्र को बंदी बनाकर रखने वालों का हौसला फिर से बढ़ रहा है। देखा जाये तो कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन ने जिस तरह से कुछ टीवी समाचार चैनलों के एंकरों के कार्यक्रमों का बहिष्कार करने का फैसला किया है वह मीडिया पर बड़े हमले के समान है। हमले की शुरुआत एंकरों के बहिष्कार से हुई है, कल को चैनलों का बहिष्कार भी हो सकता है, सत्ता में आने पर इन पत्रकारों या मीडिया संगठनों पर प्रतिबंध भी लगाया जा सकता है।

आश्चर्य की बात यह है कि यह सब तब हो रहा है जब राहुल गांधी विदेश में घूम घूम कर कह रहे हैं कि भारत में विपक्ष की आवाज को दबाया जा रहा है और मीडिया को स्वतंत्रता के साथ काम नहीं करने दिया जा रहा है। आश्चर्य इस बात पर भी है कि एक और भारत जोड़ो का नारा दिया जा रहा है लेकिन दूसरी ओर ठीक इसके उलट काम किया जा रहा है। देखा जाये तो कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन के नेताओं ने कुछ एंकरों के कार्यक्रमों का बहिष्कार करने की सूची जारी करके साबित कर दिया है कि वह पूरी तरह अपने पूर्वजों के दिखाये मार्ग पर चल रहे हैं। हम आपको याद दिला दें कि देश में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल थोपा था तब समाचार पत्र-पत्रिकाओं के संपादकीय विभाग में सरकारी पहरा बिठा दिया गया था ताकि सरकार विरोधी कोई खबर ना छपने पाये। इसके अलावा आपातकाल के दौरान बड़े-बड़े संपादकों को जेलों में ठूँस दिया गया था और सरकारी प्रसारणकर्ता दूरदर्शन तथा आकाशवाणी पर समाचारों का प्रसारण करने से पहले कंटेंट को तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री से चेक करवाया जाता था।

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हम आपको यह भी याद दिला दें कि हाल ही में एक संवाददाता सम्मेलन के दौरान राहुल गांधी ने सवाल पूछे जाने पर पत्रकार को भाजपा का आदमी बताते हुए 'हवा निकल गयी' कह कर उनका सरेआम मजाक उड़ाया था। यही नहीं, विपक्ष ने 14 नामों की सूची तो अब जारी की है लेकिन एंकर या मीडिया संगठन का नाम सुन कर उसके शो में भागीदारी करने या नहीं करने का सिलसिला काफी समय से चल रहा है। सोचिये जब विपक्ष में रह कर यह तेवर हैं कि हम फलां पत्रकार या मीडिया संगठन को अपने कार्यालय में नहीं घुसने देंगे या फलां पत्रकार के कार्यक्रम का बहिष्कार करेंगे, तो सत्ता में आने के बाद यह क्या कर सकते हैं?

यहां सवाल एडिटर्स गिल्ड पर भी उठता है जिसने विपक्षी सूची पर अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। देखा जाये तो एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया कुछ एलीट लोगों का क्लब बन कर रह गया है जहां ये अपनी सुविधा के अनुसार ही बोलते हैं। यदि क्लब पर कोई आंच आये तब इन्हें मीडिया की स्वतंत्रता खतरे में नजर आती है लेकिन जब कोई राजनीतिक पार्टी मीडिया पर हमला करे तब यह चुप रह जाते हैं।

बहरहाल, चूंकि चुनावी मौसम है इसलिए पत्रकारों के बहिष्कार पर राजनीतिक घमासान छिड़ना ही था। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने विपक्षी गठबंधन पर निशाना साधते हुए कहा है कि यह कदम उनकी हताशा को दर्शाता है तो वहीं कांग्रेस ने कहा है कि रोज शाम पांच बजे जो नफरत की दुकान लगती थी उससे हम दूर हो गये हैं। उम्मीद है कि आने वाले दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत भाजपा के शीर्ष नेता अपनी चुनावी रैलियों में भी इस मुद्दे को उठाएंगे। खैर...अब भी समय है कि कांग्रेस या उसके सहयोगी दल अपने फैसले पर पुनर्विचार करें क्योंकि बहिष्कार का फैसला खतरनाक मिसाल साबित होगा और यह लोकतंत्र के मूल्यों के खिलाफ है। साथ ही विपक्षी दलों ने मीडिया का राजनीतिकरण कर गलत मिसाल भी कायम की है। विपक्ष को यह भी समझना होगा कि उसने जिस बड़े लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाया है उसमें सबको साथ लेकर चलने की बजाय उसने अपने अभियान की शुरुआत 'बहिष्कार' से करके अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है।

-नीरज कुमार दुबे

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