क्या पद्मावती फिल्म बंद कर देने से भंसाली स्वाभिमानी हिंदू हो जाएंगे?

Will the Bhansali become a self-respecting Hindu after turning off the Padmavati film?

सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी भंसाली−विरोधी तत्वों को समर्थन दे रही है। उनके अनुसार, यह फिल्म हिंदुत्व पर हमला है और इसे प्रदर्शित होने से रोकना एकदम जरूरी है। भंसाली को हिंदू−विरोधी समूह के नेता के रूप में बताया जा रहा है।

कई संघर्षों के बाद प्रेस अपनी आजादी मजबूत कर पाई है। और, आज यह सरकारी दबाव से आमतौर पर मुक्त है। फिर भी कुछ और शक्तियां हैं जो इसे पूरी स्वतंत्र होने नहीं देतीं। लेकिन दुनिया के बाकी सभी लोकतंत्रों की तरह भारतीय प्रेस को स्वतंत्र माना जाता है। 

इलेक्ट्रोनिक मीडिया काफी हद तक रियल इस्टेट मालिकों की दया पर है जो प्रॉपर्टी के लेन−देन से पैसा कमाते हैं और इसे एक या दो चैनल चलाने के लिए खर्च करते हैं। हालांकि, अखबारों के बारे में निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता है।  

जब फिल्मों की बात आती है तो सरकार का दबाव बेरोकटोक और दिखाई देने वाला है। हर एक फिल्म को सेंसर का प्रमाण−पत्र चाहिए। जब संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी दी है तो यह सब के लिए है, सभी माध्यमों तथा सभी तरीकों के लिए। सेंसर प्रमाण−पत्र की आवश्यकता स्वतत्रंता का हनन करती है। यह मेरी समझ से परे है कि फिल्म निर्माताओं ने कभी इसे मुद्दा नहीं बनाया। अभी भी ऐसा करने के लिए बहुत देर नहीं हुई है। संजय लीला भंसाली की फिल्म उनके इकट्ठा होने का आधार नहीं बन सकती। फिल्म निर्देशक भंसाली ने नतीजों का सामना करना पसंद किया है। राजस्थान में, जहां वह फिल्म की शूटिंग कर रहे थे, उन पर हमला हुआ। इसके बावजूद वह अपनी जगह डटे हैं।  

राजस्थान के कट्टरपंथी हिंदू, जिन्होंने अपने को करणी ब्रिगेड के रूप में संगठित कर लिया है, ने राजस्थान के एक सिनेमा हाल की कुर्सियां तोड़ डालीं और उनमें आग लगा दी। ज्यादातर उदारवादी लोगों की खामोशी दिखाई दे रही है। भंसाली अवश्य अकेला महसूस कर रहे होंगे। यहां यह मुद्दा नहीं है कि उनकी फिल्म पद्मावती, जिसका उन्होंने निर्देशन किया है, कहानी पर आधारित है या वास्तविकता पर। उसे पर्दे पर लाने का उनका संकल्प है। अपने संकल्प के लिए उन्हें पूरा श्रेय मिलना चाहिए।  

बहुत कम फिल्म निर्देशक उनके पद−चिह्नों पर चलेंगे क्योंकि ढेर सारा पैसा दांव पर है। पैसा लगाने वाले इसमें निवेश से हिचकिचाएंगे। उनकी दिल्चस्पी मुनाफे में है, उन सिद्धांतों में नहीं जिनका पालन भंसाली नतीजों की चिंता किए बिना कर रहे हैं।

वर्तमान में, एक अच्छी फिल्म संकीर्णतावाद का शिकार हो गई है। इसका सबसे बुरा पक्ष यह है कि सारी चीजों का राजनीतिकरण कर दिया गया है। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी भंसाली−विरोधी तत्वों को समर्थन दे रही है। उनके अनुसार, यह फिल्म हिंदुत्व पर हमला है और इसे प्रदर्शित होने से रोकना एकदम जरूरी है। भंसाली को हिंदू−विरोधी समूह के नेता के रूप में बताया जा रहा है। यह बताने वाला कोई नहीं है कि अपनी फिल्म के कारण वह हिंदू−विरोधी क्यों हो जाएंगे और अगर वह पद्मावती के निर्माण की कोशिश छोड़ देते हैं तो वह एक स्वाभिमानी हिंदू क्यों हो जाएंगे। यह अचरज की बात है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व खामोश है और गैर−कानूनी गतिविधियां करने वाले लोगों के खिलाफ कड़ी कारवाई नहीं कर रहा है। उसे यह समझना चाहिए कि अगर इस तरह की गतिविधियों को जारी रहने दिया गया तो कारोबार में आसानी के लिए उठाए गए कदमों से हुए फायदे गायब हो जाएंगे। इन गतिविधियों को देखकर भारत में निवेश नहीं होगा जिसके लिए सरकार बुरी तरह कोशिश कर रही है।  

बहुत साल पहले, प्रसिद्ध फिल्म निर्माता तथा निर्देशक गुलजार को ऐसी ही परिस्थति का सामना करना पड़ा था। उनकी फिल्म 'आंधी' प्रदर्शित हुई तो सेंसर ने इसे बुरी तरह बोट−छांट दिया था। हालांकि, इसने इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन के विरोध में खड़ी जनता को एक संदेश दिया था।  

शायद, एक तीसरी शक्ति जो न तो सांप्रदायिक है, न निरकुंश, ही इसका उत्तर है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार शायद इसके उत्तर हैं। लेकिन वह अगर बिहार छोड़ते हैं तो लालू प्रसाद और उनका परिवार जगह भरेंगे, जो बेहतर विकल्प नहीं है।  

कुछ वजहों से, केंद्र में आने वाली सरकारों ने प्रेस या मीडिया कमीशन की मांग को खारिज किया है। आजादी के बाद से दो कमीशन बने हैं। एक आजादी मिलने के तुरंत बाद और दूसरा 1977 में आपातकाल के बाद। दूसरे आयोगों की सिफारिशों पर विचार तक नहीं हुआ क्योंकि जब तक रिपोर्ट तैयार हुई श्रीमती इंदिरा गांधी सत्ता में वापस आ गईं और उन्होंने आपातकाल के बाद सुझाए गए किसी कदम पर विचार करने से इंकार कर दिया। वह सत्ता में वापस लौटी थीं और आलोचकों के साथ बदले की भावना से पेश आईं।  

सबसे महत्वपूर्ण पहलू अखबारों, टेलीविजन और रेडियो का स्वामित्व एक ही घराने या व्यक्ति के हाथ में होना है। यहां तक कि अमेरिका में भी एक से अधिक संचार माध्यम पर स्वामित्व को लेकर कुछ नियंत्रण है। लेकिन भारत में कोई रोक नहीं है। यहां यह एक और कारखाना लगाने जैसा है। सच है कि मीडिया ने एक लंबा सफर तय किया है। फिर भी, प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की वर्तमान वार्षिक रिपोर्ट टेलीविजन चैनल को अपने अधिकार क्षेत्र में लाने की मांग असहाय होकर कर रही है। जो कहा जा रहा है उसे सत्ताधारी सुन नहीं रहे हैं।  

काउंसिल का कहना है, ''कुछ समय से पत्रकारिता के पेशे में दाखिल होने के लिए योग्यता का सवाल उठ रहा है। मीडिया एक पूरी तरह विकसित क्षेत्र हो गया है और लोगों की जिंदगी पर इसका कुछ असर है, यह समय आ गया है कि कानून के जरिए कुछ योग्यता तय की जाए''। मैं इससे सहमत नहीं हूं कि कोई रिमोट कंट्रोल हो। मैं एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक अनुशासनहीन प्रेस पसंद करूंगा, बजाय इसके कि एक व्यवस्थित समाज में एक अनुशासित प्रेस हो। चुने हुए प्रतिनिधियों का शासन भीड़ का शासन लग सकता है। यह कभी भी एक अनुशासित निरकुंश शासन से अच्छा है।

- कुलदीप नायर

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