कैराना और नूरपुर में हार से मोदी की नजर में गिर गये योगी

yogi magic fails in kairana
अजय कुमार । May 31 2018 4:01PM

पहले उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद और गोरखपुर की लोकसभा सीट पर हुए उप−चुनाव में मिली करारी हार के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा सीट के लिये हुए उप−चुनाव के नतीजे भी बीजेपी के लिये खतरे की घंटी साबित हुए।

पहले उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद और गोरखपुर की लोकसभा सीट पर हुए उप−चुनाव में मिली करारी हार के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा सीट के लिये हुए उप−चुनाव के नतीजे भी बीजेपी के लिये खतरे की घंटी साबित हुए। इसके साथ ही यह भी तय हो गया कि यदि पूरा विपक्ष एकजुट हो जाये तो बीजेपी के लिये आगे की सियासी राह मुश्किल हो सकती है। इलाहाबाद और गोरखपुर में मिली हार के पश्चात बीजेपी ने प्रचारित करना शुरू कर दिया था कि हम अति आत्म विश्वास में हार गये लेकिन कैराना में मिली शिकस्त के बाद उसके पास अब यह बहाना भी गढ़ने के लिये नहीं बचा है क्योंकि कैराना लोकसभा सीट जीतने के लिये लगभग पूरी योगी सरकार ने वहां डेरा डाल दिया था।

यहां तक कि चुनाव से एक दिन पूर्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी कैराना के पड़ोसी जिला बागपत में जनसभा करके बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने का पूरा प्रयास किया था, जिस पर मोदी की आलोचना भी हुई थी। बीजेपी को दोनों ही जगह तब हार का सामना करना पड़ा जबकि कैराना और नूरपुर सीट उसके नेताओं की मृत्यु के बाद खाली हुई थीं और पार्टी को सहानुभूति लहर की उम्मीद थी। कैराना और नूरपुर के नतीजे बीजेपी के लिये तो सबक रहे ही इसके अलावा कांग्रेस आलाकमान को भी आईना दिखा गये। इलाहाबाद और गोरखपुर में कांग्रेस के प्रत्याशी जमानत तक नहीं बचा पाये थे तो कैराना और नूरपुर के उप−चुनाव में कांग्रेस ने अपना प्रत्याशी नहीं उतारा था, परंतु महागठबंधन की प्रत्याशियों के पक्ष में कांग्रेसी कहीं दिखाई भी नहीं दिए। इसके बावजूद कैराना में राष्ट्रीय लोकदल की संयुक्त प्रत्याशी तबस्सुम और नूरपुर में सपा के नईमुल हसन को आसानी से जीत हासिल हो गर्इ।

लोकसभा चुनाव से पूर्व मिली हार ने बीजेपी का जायका बिगाड़ दिया है तो गोलबंद हुए विपक्ष के हौसले बुलंद हैं। उक्त हारों से मोदी से ज्यादा योगी की किरकिरी हो रही है। गुजरात से लेकर कर्नाटक तक देश के कई हिस्सों में हुए चुनावों में भले ही योगी का डंका बजा हो, मगर अपने ही राज्य में मिली हार योगी को कांटे की तरह चुभती रहेगी। बीजेपी को बदले हालात में नये सिरे से रणनीति बनाना होगी, इसके अलावा बीजेपी की सबसे बड़ी परेशानी है एक बार फिर उसके वोटरों का मतदान स्थल तक नहीं पहुंचना। जैसा नजारा 2014 के लोकसभा और 2017 के विधान सभा चुनाव के समय देखने को मिला था, अबकी से वह दृश्य गायब थे। बीजेपी कार्यकर्ता भी उतना उत्साहित नहीं नजर आ रहा था। इसकी वजह कार्यकर्ताओं के प्रति योगी सरकार की अनदेखी भी हो सकती है। प्रदेश में भले ही बीजेपी की सरकार हो लेकिन बीजेपी कार्यकर्ताओं की थाने से लेकर सत्ता के गलियारों तक में नहीं सुनी जाती है। योगी सरकार को साल भर से अधिक हो गया है, परंतु अभी तक तमाम बोर्डों और निगमों में काबिज सपा नेताओं को हटाया तक नहीं जा सका है। जबकि अभी तक ऐसे तमाम पदों पर बीजेपी के नेताओं/कार्यकर्ताओं की ताजपोशी हो जानी चाहिए थी। पहले से ही सरकार और पार्टी के अंदर घिरते जा रहे योगी आदित्यनाथ के लिए ये नए नतीजे मुसीबत खड़ी करने वाले हैं।

गौरतलब है कि 2014 में यूपी में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और तत्कालीन प्रदेश प्रभारी अमित शाह की रणनीति की बदौलत विपक्ष को चारों खाने चित कर दिया था। 80 सीटों में से बीजेपी ने 72 सीटें जीतीं थीं, जबकि उसकी सहयोगी अपना दल को दो सीटें मिलीं। कांग्रेस की ओर से सिर्फ सोनिया−राहुल गांधी ही अपनी सीट बचा सके जबकि सपा को महज 4 सीटें मिलीं। मायावती का तो खाता भी नहीं खुला था। 2014 में मोदी ने जो यहां कारनामा किया था उसका असर 2017 के विधानसभा चुनाव तक में देखने को मिला था। यूपी में बीजेपी की लहर और मजबूत हुई। 2017 में जब विधानसभा चुनाव हुए तब एक बार फिर मोदी और शाह का जादू चला और विपक्ष धूल चाटता नजर आया। 403 विधानसभा सीटों वाले इस प्रदेश में बीजेपी को अकेले ही 312 सीटें मिलीं। सपा−कांग्रेस गठबंधन और मायावती की बसपा चुनाव मैदान में औंधे मुंह नजर आए। बीजेपी ने 14 साल का सत्ता का वनवास खत्म कर जब प्रचंड बहुमत से सरकार बनाई तो उसकी कमान फायर ब्रांड नेता योगी आदित्यनाथ को सौंपी गई।

प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने योगी को ये जिम्मेदारी दी थी कि वे यूपी को विकास की राह पर ले जाएं ताकि 2019 के चुनावों के लिए मजबूत जमीन तैयार हो सके और बीजेपी 2014 का जादू वहां दोहरा सके लेकिन योगी उक्त नेताओं की उम्मीद पर खरे नहीं उतरे। इलाहाबाद और गोरखपुर की हार को भुला दिया जाता अगर योगी कैराना फतह कर लेते। यह मुश्किल भी नहीं लग रहा था क्योंकि बीजेपी सांसद हुकुम सिंह और नूरपुर में बीजेपी विधायक लोकेंद्र सिंह चौहान के निधन के चलते ये सीटें खाली हुई थीं। बीजेपी ने सहानुभूति वोट का फायदा उठाने के लिए यहां से क्रमशः हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह और लोकेंद्र सिंह चौहान की पत्नी अवनि सिंह को मैदान में उतारा लेकिन विपक्षी एकजुटता ने उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया। सपा−बसपा−कांग्रेस−आरएलडी के एक साथ आ जाने से कैराना सीट जहां आरएलडी के खाते में चली गई, वहीं नूरपुर पर सपा का कब्जा हो गया।

गोरखपुर−फूलपुर के बाद कैराना−नूरपुर की हार का ठीकरा योगी के सिर फूटेगा। इसका बड़ा कारण यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व खासकर राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह इसमें इतना एक्टिव रोल नहीं निभाते हैं। ऐसे में हार की जिम्मेदारी से बचने का कोई बहाना योगी आदित्यनाथ के पास नहीं होगा। बात यूपी बीजेपी में चल रही रस्साकशी की कि जाये तो योगी जब से सीएम बने हैं तब से पार्टी और सरकार में उनके खिलाफ दबे स्वर में आवाज उठ रही थी। योगी सरकार के कुछ मंत्री तो खुलेआम योगी की कार्यशैली और कार्यक्षमता पर सवाल उठाने से गुरेज नहीं कर रहे थे। राजनीतिक हलकों में ये चर्चा भी गर्म है कि यूपी में मुख्यमंत्री योगी और डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य के बीच सत्ता की खींचतान के चलते पार्टी और सरकार में दो गुट सक्रिय हैं। ताजा हार से योगी विरोधी गुट और ज्यादा ताकतवर होगा जो कि उनके लिए अच्छी खबर नहीं है। हालांकि 2019 के चुनावों में जितना कम वक्त है उसे देखते हुए राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की कोई संभावना नहीं दिखती है, परंतु यह भी तय है कि अब आगे जो भी चुनावी रणनीति बनेगी उसमें योगी के अलावा भी कई नेताओं को प्रमुखता दी जायेगी।

उधर, जब कैराना के नतीजों पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह से सवाल पूछा गया तो उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि जब एक लंबी छलांग लगानी पड़ती है तो कुछ कदम पीछे लेने पड़ते हैं। बीजेपी को हार जरूर मिली है लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि उसके लिये सब कुछ खत्म हो गया है। आम चुनाव के समय सीट बंटवारे की बारी जब आयेगी, उसी समय ही महागठबंधन की असली परीक्षा होगी। आदतन उप−चुनाव से दूरी बनाकर चलने वाले वाले बीजेपी के मतदाता भी आम चुनाव के समय बढ़−चढ़कर मतदान में हिस्सा लेंगे और उस पर मोदी के भाषणों का तड़का हवा का रूख बदलने की ताकत रखेगा।

-अजय कुमार

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