एक फकीर ने गुलाब सिंह को जम्मू-कश्मीर का राज सौंपा था!

A fakir had given Gulab Singh the rule of Jammu and Kashmir!

एक फकीर ने जम्मू कश्मीर पर राज करने वाले महाराजा गुलाब सिंह को जम्मू कश्मीर का राज सौंपा था सिर्फ इस आश्वासन के बदले कि उनके घर के साथ छेड़खानी नहीं की जाएगी।

है तो अविश्वसनीय लेकिन फिर भी विश्वास करना पड़ता है कि एक फकीर ने जम्मू कश्मीर पर राज करने वाले महाराजा गुलाब सिंह को जम्मू कश्मीर का राज सौंपा था सिर्फ इस आश्वासन के बदले कि उनके घर के साथ छेड़खानी नहीं की जाएगी। और ये फकीर थे बाबा गुलाम शाह बादशाह मशाही, जिनकी दरगाह को आज ‘शाहदरा शरीफ’ के नाम से पुकारा जाता है और अजमेर शरीफ के उपरांत उसी का स्थान भारत में माना जाता है।

पाकिस्तान से सटी नियंत्रण रेखा पर स्थित सीमावर्ती जिले राजौरी के थन्ना मंडी क्षेत्र में राजौरी से 29 किमी दूर शाहदरा शरीफ का स्थान एक दर्रे में स्थापित है जिसे ‘सीं दर्रा’ (शेर दर्रा) भी कहा जाता है। वैसे शाहदरा का असल नाम शाह का दर्रा था जो बाद में शाहदरा के नाम से प्रचलित हो गया है। आज भी इसकी इतनी ही मान्यता है जितनी बरसों पहले थीं।

बाबा शाह का जो वर्तमान मकबरा है उसका निर्माण बाबा ने आम 1224 हिजरी सम्वत में आप ही करवाया था क्योंकि वे अपनी मौत के बारे में जान चुके थे। कहा जाता है कि इस मकबरे का निर्माण मुल्तान (पाकिस्तान) के रहने वाले एक कोढ़ी ने किया था जो चल भी नहीं पाता था और बाबा की कृपया से उसका कोढ़ भी दूर हो गया तथा उसे शाहदरा का रास्ता भी मालूम हो गया। वर्तमान मकबरा अपने आप में कारीगरी का एक बढ़िया नमूना है जिसकी कोई मिसाल नहीं मिल सकती है।

वर्ष 1978 तक इस स्थान का प्रबंध स्थानीय प्रबंधक समिति देखा करती थी और उसके बाद सरकार ने इस पर अपना अधिकार जमा कर इसके विकास के लिए चार करोड़ की राशि मंजूर कर दी। आज भी प्रतिदिन तीन से चार हजार के करीब श्रद्धालु सिर्फ, जम्मू कश्मीर से ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर भारत से आते हैं जबकि इस दरगाह पर श्रद्धालुओं द्वारा जो चढ़ावा चढ़ाया जाता है वह वर्ष में एक करोड़ से अधिक का होता है। और प्रति वर्ष मुहर्रम की 10 तारीख को उर्स भी होता है जिसमें हजारों श्रद्धालु बाबा की मजार के दर्शानार्थ आते हैं।

इस पवित्र और धार्मिक स्थल की अपनी एक कथा है। किवंदती के अनुसार बाबा गुलाम शाह, जो जिला रावलपिंडी तहसील गुजरखां गांव सैयदां कसरावां (अब पाकिस्तान में) के रहने वाले थे, के गुरु इमाम वरी पाक लतीफ ने उन्हें पहाड़ों पर जाने का आदेश दिया था क्योंकि उनका कहना था कि पहाड़ खाली है और वहां किसी फकीर को अवश्य जाना चाहिए। और गुरु आदेश का पालन करते हुए छोटी सी उम्र में ही बाबा 1700 ईस्वी के दौरान पुंछ रियासत में आ कर डेरा लगाने लगे।

इस दरगाह की देखभाल करने वाले कहते हैं कि पुंछ के राजा का भाई जब बाबा का बहुत अच्छा शिष्य बन गया तो मंत्रियों ने राजा के कान भरने आरंभ किए कि उनका भाई फकीरों की शरण जा कर उनका शासन हथियाने की साजिश रच रहा है। नतीजतन कान भरने की प्रक्रिया ने अपना प्रभाव दिखाया और राजा के सैनिकों ने उनके भाई का कत्ल कर दिया।

इस कत्ल की घटना ने बाबा गुलाम शाह के दिल में गुस्से की लहर भर दी और वे पुंछ रियासत को ही बरबाद करने पर तुल गए क्योंकि उनका कहना था कि जिस स्थान पर भाई-भाई पर विश्वास न करता हो वहां रहना तथा उस स्थान का खाना अच्छा नहीं है और वे क्रोध में बड़े बड़े पौधों को जड़ से उखाड़ कर फैंकने लगे। लेकिन चेलों की विनती पर उनका गुस्सा तो शांत हो गया लेकिन पुनः एक अन्य घटना ने उन्हें मजबूर कर दिया पुंछ को छोड़ने के लिए।

अब इस दरगाह की देखभाल करने वाले अधिकारी बताते हैं कि वे गुस्से में राजौरी की ओर बढ़े चले जा रहे थे कि डेरा गली में पहुंचने पर उन्होंने पांव में डाली हुई घास फूस की जूती यह कह कर उतार फैंकी कि वे पुंछ की मिट्टी को भी राजौरी की ओर लेकर नहीं जाएंगे। बताया जाता है कि वे चलते चलते वर्तमान स्थान पर पहुंचे जो सीं दर्रा के नाम से जाना जाता था तो तब उनको अपने गुरु की बातें याद आ गईं कि उनका अंतिम मुकाम सीं दर्रा ही होगा, लेकिन वहां पक्का ठिकाना बनाने से पूर्व उन्हें दो बातों की जांच करनी होगी।

प्रथम अपने डंडे को जमीन पर मार कर देखना होगा अगर वहां से आग निकलती है तथा बकरे को शेर उठा कर ले जाता है तो वही स्थान उनके लिए उपयुक्त होगा। उन्होंने दोनों बातों की परख की तो सच निकलीं और उन्होंने वहीं अपना डेरा जमा लिया।

कहा जाता है कि जिन गुज्जर परिवारों ने उन्हें सर्वप्रथम दूध-दही अर्पण किया था उन्हें बाबा ने आशीर्वाद दिया था कि उनके परिवारों में कभी दूध-दही खत्म नहीं होगा जो आज भी सच साबित हो रहा है।

बाबा थे तो बहुत गुस्से वाले और इसका परिणाम यहां भी देखने को मिला जब राजौरी के राजा जराल खान द्वारा उनकी किसी बात पर बेइज्जती कर देने के कारण उनके शाप का परिणाम यह हुआ कि राजा के चारों बेटे मृत्यु को प्यारे हो गए। लेकिन राजा की रानी ने अंत में बाबा से मिन्नतें कर उन्हें मना लिया और उन्होंने उसे एक और बेटे की मां बनने का वरदान तो दिया लेकिन यह भी कह दिया कि वह अपने बेटे का नाम अगार रखेगी क्योंकि उसकी पीठ पर शेर के पंजे का निशान होगा और अगर वह गलत रास्तों पर चलेगा तो उसका शासन खत्म हो जाएगा। बाद में यह बातें अक्षरशः सत्य साबित हुईं। इसी स्थान पर बाबा ने एक गुफा के भीतर ही करीब 46 साल काटे जो आज भी विद्यमान है। 

जैसा कि बताया जाता है कि समय के बीतने के साथ साथ अगार खान बड़ा होता चला गया और गद्दी पाने के उपरांत उसका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ गया। कहा जाता है कि उसके इसी व्यवहार का लाभ उसके मंत्रियों ने उठाया और उसे पंजाब के राजा महाराजा रंजीत सिंह को कर देने से बंद करने के लिए उकसाया जिस पर जब उसने अमल किया तो महाराजा रंजीत सिंह ने राजौरी पर हमला करने के लिए अपनी फौज भेज दी। इस फौज में एक डोगरा सिपाही गुलाबु भी शामिल था जो बाद में बाबा की कृपया से जम्मू कश्मीर का राजा बन गया क्योंकि बाबा से उसने वायदा किया कि अगर उसे राज्य मिल जाता है तो वह उनके घर (वर्तमान स्थान) से छेड़छाड़ करने की इजाजत किसी को भी नहीं देगा।

और बाबा ने अगार खान के छुपने के स्थान की जानकारी देकर उसे महाराजा गुलाब सिंह के हाथों गिरफ्तार करवा दिया और इस तरह से जब महाराजा रंजीत सिंह की नजरों में उनकी इज्जत बढ़ी तो उन्होंने महाराजा गुलाब सिंह को जम्मू का राज सौंप दिया। जबकि बाद में अमृतसर संधि के अंतर्गत महाराजा गुलाब सिंह ने कश्मीर को 75 लाख रूपयों में खरीदा और लद्दाख पर फतह पाई।

- सुरेश एस डुग्गर

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