इसलिए अपने गढ़ गँवा बैठे माणिक सरकार और योगी आदित्यनाथ

analysis of tripura polls and gorakhpur bypolls

सादगी और ईमानदारी जैसे दुर्लभ गुणों के बावजूद माणिक त्रिपुरा राज्य और योगी गोरखपुर सीट के साथ फूलपुर संसदीय सीट गंवा बैठे। दोनों की चुनावी पराजय में एक बुनियादी समानता है।

त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ में कुछ समानताएं हैं। सबसे बड़ी समानता है सादगी। माणिक जब तक मुख्यमंत्री रहे तब तक आम आदमी की तरह पेश आए। सरकारी तामझाम से दूरी बनाए रखी। ईमानदारी की मिसाल पेश की। इसी तरह आदित्यनाथ भी सादगी भरा जीवन जीते हैं। कोई सरकारी ठाठबाठ नहीं। करीब एक साल के कार्यकाल में भ्रष्टाचार का कोई दाग नहीं लगा। पूर्व में सांसद रहते हुए भी उनकी ईमानदारी पर कभी सवाल नहीं उठे। गेरूआ वस्त्र पहनना और बगैर एयरकन्डीशन के रहना। उनकी एक खास छवि भी बन गई। सार्वजनिक मंचों पर खुल कर अपने हिन्दु होने पर गर्व करना। 

सादगी और ईमानदारी जैसे दुर्लभ गुणों के बावजूद माणिक त्रिपुरा राज्य और योगी गोरखपुर सीट के साथ फूलपुर संसदीय सीट गंवा बैठे। दोनों की चुनावी पराजय में एक बुनियादी समानता है। दरअसल दोनों ही भारतीय लोकतंत्र में मतदाताओं के बदलते मिजाज को समझने में नाकामयाब रहे। माणिक सरकार पूरे बीस साल मुख्यमंत्री रहे। इस अवधि में त्रिपुरा तरक्की नहीं कर पाया। देश के विकसित राज्यों की कतार में त्रिपुरा नहीं आ सका। बावजूद इसके साक्षरता की दर बेहतर रही। बीस साल की इस अवधि में एक नई युवा पीढ़ी तैयार हो गई। जिसके पंख दुनिया के साथ उड़ने के लिए बेताब हो उठे। इस वर्ग की आकांक्षाएं  हिलोरे लेने लगीं। बदलाव की धारा तटबंध तोड़ने को मचलने लगी। प्रौद्योगिकी तकनीकी के इस दौर में युवा वर्ग सहज ही समझने लगा कि मंजिल कहीं और है।

माणिक सरकार परंपरा के खोल से बाहर नहीं आ सके। पार्टी के पोलित ब्यूरो के बंधन से बंधे रहे। बंधन ढीले नहीं करने के चलते कम्युनिस्ट पार्टी केरल तक सिमट कर रह गई। यही वजह भी रही कि युवा वर्ग जिस वैश्विक तरक्की की बयार के स्पर्श को महसूस कर रहा था, माणिक सरकार पार्टी के निर्धारित सांचे में ढले होने के कारण उसका अंदाजा नहीं लगा सके। या यूं कहें कि अंदाजा होते हुए भी उस सांचे से बाहर आने का साहस नहीं कर सके। उधर सोशल मीडिया से जुड़ा त्रिपुरा का युवा वर्ग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के देश और विश्व में लगातार आगे बढ़ने को समझ रहा था। आईटी और दूसरे क्षेत्रों में युवाओं को प्रेरित करने में मोदी की महत्वपूर्ण भूमिका में कहीं न कहीं अपना स्थान खोज पाने की विफल कोशिश में लगा हुआ था। यही वजह रही कि उच्च पद पर असाधारण मानवीय गुणों के बावजूद त्रिपुरा में माणिक सरकार को भाजपा के हाथों पराजय का मुँह देखना पड़ा। भाजपा ने सुदूर प्रांत में कमल खिला दिया।

ठीक इसी तरह की पराजय योगी आदित्यनाथ की रही। मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री जैसी प्रतिष्ठा की संसदीय सीट भाजपा हार बैठी। बदलाव के जिस पदचाप को माणिक सरकार महसूस नहीं कर सके, उसी तरह योगी भी उसे भांपने में नाकामयाब रहे। इस हार की पटकथा गुजरात चुनाव में ही लिख दी गई थी। गुजरात चुनाव जीतने में भाजपा को पसीने आ गए। जबकि यह प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का गृह राज्य है। दोनों ने ही दर्जनों सभाएं कीं। पार्टी पहले ही दो दशक से सत्ता में रही। इसके बावजूद भाजपा की कश्ती हिचकोले खाते हुए किनारे लगी। यह सबक सीखने का पहला अध्याय था। इसके बाद राजस्थान में हुए उप चुनावों में भी हार का मुँह देखना पड़ा। हालांकि इन पराजयों से पार्टी की सत्ता में ज्यादा अंतर नहीं आया किन्तु हार की लघु सुनामी अपने निशान जरूर छोड़ गई।

देश के मतदाताओं का सोचने का तरीका बदल रहा है। पांच साल की अवधि के बीच में ही मौका मिलते ही मतदाताओं ने अपनी भावनाओं का इजहार कर दिया। मतदाताओं ने यदि कांग्रेस या दूसरे दलों की बजाय भाजपा को सत्ता सौंपी है तो इसकी वजह धार्मिक या सांस्कृतिक मुद्दे नहीं, बल्कि दिखाए गए वे ख्वाब हैं, जिन्हें पाने के लिए सबमें छटपटाहट नजर आती है। भारत का विश्व शक्ति बनाने का सपना है। योग्यता के बावजूद वजूद खोजने की जद्दोजहद है। भाजपा के लिए दूसरे दल और दूसरे दलों के लिए भाजपा अछूत हो सकती है, पर मतदाताओं के लिए नहीं।

उन्हें जब लगता है कि जिंदगी जीने की बुनियादी सुविधाओं के लिए फिर से वही संघर्ष करना पड़ेगा, तब दलों का विभेद समाप्त हो जाता है। किसी की सादगी और ईमानदारी या फिर कम्युनिस्ट और हिन्दुत्व के चोले से उनकी समस्याओं का समाधान नहीं होगा। उनके सपने पूरे नहीं होंगे। बुनियादी ढांचे में परिवर्तन के लिए जिस जोश से सत्ता सौंपी थी, वह धीरे−धीरे मायूसी में बदलने लगता है। फिर वही निराशा और हताशा का कोहरा छाने लगता है। तब कहीं न कहीं लगने लगता है कि विकास की ठोस इबादत लिखने की बजाए बेवजह के मुद्दों का वातावरण तैयार हो रहा है।

जनांकाक्षाओं के नाम पर तुष्टिकरण की राजनीति हो रही है। मंदिर−मस्जिद, मठ, गौवंश और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की परिभाषा तय करने में ही सारी ऊर्जा जाया हो रही है। इनसे हर दिन होने वाली परेशानियों का समाधान नहीं हो रहा है। इस दिशा में कोई ध्यान हीं नहीं दे रहा है। सिर्फ भावनात्मक मुद्दों के सहारे जिंदगी जीने की दिलासा दिलायी जा रही है। जिस बदलाव और तरक्की की उम्मीद थी, उन्हें विवादित मुद्दों की आड़ में दरकिनार किया जा रहा है। ऐसे में मतदाताओं के सब्र का पैमाना छलकना निश्चित है। मतदाता बेशक दूसरे दलों को पसंद नहीं करते हों, किन्तु मौका मिलने पर उनके पास अपनी खीझ और हताशा को जताने का कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है। उत्तर प्रदेश उप चुनावों में भाजपा की हार में आने वाले तूफान के छिपे संकेत हैं, जोकि आक्रोश के बुलबुलों के जरिए एक बार फिर फूटे हैं। इसकी अनदेखी कहीं चुनावी सुनामी साबित नहीं हो, भाजपा ही नहीं अन्य राजनीतिक दलों को भी अपनी कश्ती संभालनी होगी।

-योगेन्द्र योगी

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़