खेती से परेशान हो गये हैं किसान, कर रहे हैं शहरों की ओर पलायन

Farmers are troubled by farming, migrating to cities
दीपक गिरकर । Apr 30 2018 2:30PM

हमारे देश में उद्योगों का विकास भी खेती पर निर्भर है। खेती किसानी पूरे देश के नागरिकों को पालती पोसती है। आज की सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था युवा किसानों को गाँवों और खेती-किसानी से पलायन को मजबूर कर रही है।

भारत कृषि प्रधान देश है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था व भारतीय जीवन की मुख्य धुरी है। एक समय था जब हमारे देश में खेती को उत्तम, व्यापार को मध्यम और नौकरी को निकृष्ट माना जाता था। पुराने जमाने में किसी की हैसियत का अनुमान इसी बात से लगाया जाता था कि उसके पास कितनी खेती है लेकिन वर्तमान में खेती को सबसे नीचे का दर्जा दिया जाने लगा है। इसका एक मात्र कारण है सरकार की कृषि एवं किसानों के उत्थान के लिए नीतियां और उन नीतियों का क्रियान्वयन। हमारे देश में उद्योगों का विकास भी खेती पर निर्भर है। खेती किसानी पूरे देश के नागरिकों को पालती पोसती है। आज की सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था युवा किसानों को गाँवों और खेती-किसानी से पलायन को मजबूर कर रही है। सभी कर्मचारी, अधिकारी, सांसद, विधायक समय-समय पर अपने वेतन बढ़वाने की माँग करते रहे और उनकी माँगे भी मंजूर होती गयीं। सभी नेता और मंत्री किसानों की समस्याओं को लेकर चिंता करते रहते हैं, कृषि क्षेत्र में प्रतिवर्ष बजट में भी वृद्धि की जाती है पर ज़मीनी हक़ीकत यह है कि किसान खेती-किसानी से काफ़ी परेशान हो गये हैं और वे खेती किसानी छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।

यदि इसी प्रकार युवा किसानों का ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन होता गया तो आने वाले समय में किसान सिर्फ़ अपने परिवार के खाने लायक फसल का ही उत्पादन करेगा और अपनी शेष कृषि भूमि को पड़त ही छोड़ देगा। जब अन्न का उत्पादन ही नहीं होगा तब हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों से उस मूल्य पर अन्न खरीदना पड़ेगा जिस कीमत पर वे हमें अन्न बेचना चाहेंगे। आज़ादी के 71 वर्षों बाद भी किसान की औसत वार्षिक आय 20 हज़ार रूपये है। अभी तक किसानों के कल्याण की जो योजनाएँ बनाई गयी हैं एवं जिस तरह से उनका क्रियान्वयन किया गया है वे सिर्फ़ सरकार द्वारा वोट बैंक को ध्यान में रखकर ही की गई हैं। जब तक कृषि को उद्योग का दर्जा नहीं दिया जाता तब तक कृषि कराहती रहेगी, ग्रामीण युवा खेती-किसानी से पलायन करते रहेंगे और किसान आत्महत्या करते रहेंगे।

किसानों की सबसे बड़ी परेशानी है पूँजी या लागत का न होना। अपनी घरेलू जरूरतों से लेकर कृषि की लागत तक उन्हें पैसा चाहिए एवं इसके लिए वो साहूकार एवं किसान क्रेडिट कार्ड पर निर्भर रहते हैं। किसान क्रेडिट कार्ड से चूँकि सरलता से पैसा मिल जाता है, अतः इसका उपयोग वो कृषि की जगह अपने सामाजिक एवं घरेलू जरूरतों की पूर्ती में लगा देता है एवं पैसा खर्च होने के बाद किसानी की लागत के लिए साहूकारों के चुंगल में फंस जाता है।

आज भी आज़ादी के 71 साल बाद भी अधिकांश भारतीय कृषि इन्द्र देव के सहारे ही चलती है। इंद्र देवता के रूठ जाने पर सूखा, कीमतों में वृद्धि, कर्ज का अप्रत्याशित बोझ, बैंकों के चक्कर, बिचौलियों एवं साहूकारों के घेरे में फँस कर किसान या तो जमीन बेचने पर मजबूर है या आत्महत्या की ओर अग्रसर है। मौसम की मार, फसल की बर्बादी एवं कर्ज़ा न चुका पाना किसानों की आत्महत्या के प्रमुख कारण हैं।  शिक्षा के विदेशीकरण ने भी ग्रामीण युवाओं को खेती किसानी से दूर कर दिया है। हमारे देश में पिछले 21 वर्षों में लगभग 3 लाख 30 हज़ार किसानों ने कर्ज़ की वसूली के दबाव और आर्थिक तंगी के कारण आत्महत्या की है। आधिकारिक आकलनों के अनुसार प्रति 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या कर रहा है, हमारे देश में खेती-किसानी का कार्य किसानों की आत्महत्या की वजह से इतना बदनाम हो गया है कि युवा किसानों को शादी के लिए युवतियां नहीं मिल रही हैं।

ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले और औसत शिक्षा वाले युवाओं के लिए शहरों में नौकरियों की संख्या में भी काफ़ी गिरावट आई है। कृषि उपज के मूल्यों में कमी, बढ़ती कृषि लागत और बढ़ती महँगाई के कारण खेती किसानी घाटे का धंधा बनती जा रही है। फसलों के बंपर उत्पादन के बावजूद किसानों के फसलों की लागत भी घरेलू बाजार में नहीं निकल पा रही है और किसान फसलों को मंडी तक ले जाने की अपेक्षा सड़कों पर फेंक रहे हैं। आने वाले समय में कृषि क्षेत्र के हालात बेकाबू हो सकते हैं। जब किसान की फसल बाजार में आती है तो उसका मूल्य लगातार गिरता जाता है। मध्यस्थ लोग सस्ती दरों में किसानों की फसल को क्रय करके ऊँची दरों पर बाजार में विक्रय करते हैं। जब औद्योगिक उत्पादों की कीमत लागत, माँग और पूर्ति के आधार पर निर्धारित होती है तो किसानों की फसलों की कीमत का निर्धारण सरकार या क्रेताओं द्वारा क्यों किया जाता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य कुछ ही नकदी फसलों तक ही सीमित है इस न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति को सारी फसलों के लिए लागू किया जाना चाहिए। हर जगह पारदर्शी व्यवस्था है लेकिन फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण में पारदर्शी व्यवस्था नहीं है। राज्य सरकारें अपने-अपने तरीकों से न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण कुछ ही नकदी फसलों की लिए करती हैं। सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य में बीज, खाद, सिंचाई के लिए बिजली का खर्चा और किसान की मजदूरी शामिल की जाती है इसमें कृषि भूमि का किराया शामिल नहीं किया जाता है। 

किसानों के आर्थिक सुधारों के लिए कृषि ऋण माफी से सभी किसानों को राहत नहीं मिलती है क्योंकि सभी किसान बैंक से कर्ज़ा ले ही नहीं पाते हैं। कृषि ऋण माफी और बैंक ऋण ब्याज में छूट अस्थाई उपाय हैं। ये उपाय संपूर्ण समस्या का समाधान नहीं हैं। हमारे देश में अभी भी 60 फीसदी से अधिक किसान परंपरागत तरीकों से ही खेती कर रहे हैं। सरकार उद्योगों को हर तरह से बढ़ावा देती है लेकिन कृषि में सिर्फ़ लोकलुभावन घोषणाएँ कर देती हैं। शहरों में बुनियादी ढाँचागत क्षेत्र में किए गये निवेश की तुलना में कृषि में लगाई गई पूंजी ग़रीबी मिटाने के लिए पाँच गुना अधिक प्रभावी होती है। हमारे देश में कृषि भूमि खरीदने के लिए व्यक्ति का किसान होना ज़रूरी नहीं है। हमारे देश की एक मुख्य विडंबना है कि जिनके पास अधिक कृषि भूमि है वह स्वयं खेती नहीं करते हैं बल्कि या तो बंटाई पर किसानों को खेत दे देते हैं या कृषि मजदूरों से खेती का काम करवाते हैं। इन बड़े तथाकथित किसानों के पास कृषि की आय के अलावा अन्य कई आय के साधन हैं और ये बड़े तथाकथित किसान ही किसानों के नेता बने हुए हैं।

पिछले तीन वर्षों में कृषि निर्यात में लगातार कमी हुई है। कृषि निर्यात जो की वर्ष 2013-14 में 42.9 अरब डालर का था वह वर्ष 2016-17 में घटकर 33.4 अरब डालर का रह गया। कृषि निर्यात में गिरावट सरकार की विदेश व्यापार संबंधी नीतियों में अस्थिरता की वजह से आई है। घरेलू कीमतों में और निर्यात में कमी से देश के असली किसान जो की सिर्फ़ कृषि पर ही निर्भर हैं काफ़ी निराश हो चुके हैं। सरकार कई जानवरों एवं पक्षियों की विलुप्त होती जा रही प्रजातियों को संरक्षण दे रही है और संरक्षण देने का विचार कर रही है लेकिन उन प्राणियों को संरक्षण नहीं दे रही है जिस पर भारत की संपूर्ण अर्थव्यवस्था टिकी हुई है। यदि समय रहते युवा किसानों के पलायन को नहीं रोका गया तो हमारे देश को तीसरी शक्ति बनाने का सरकार का जो विचार है वह एक दिव्य स्वप्न बन कर रह जाएगा। किसानों की समस्या की जड़ तक जाने का कोई भी प्रयास तक नहीं करता है। क्या किसानों की समस्या के निदान के लिए और उन्हें गाँवों में ही रोज़गार प्रदान करने के लिए एक किसान कमीशन का गठन नहीं हो सकता है? किसान कमीशन देश के अलग-अलग भागों में नये कृषि विश्वविद्यालय और कृषि महाविद्यालय खोलने हेतु एवं रोज़गारोन्मुखी कार्यक्रम चलाने हेतु अनुशंसा करें, फसलों के उत्पादन के हिसाब से उनके आयात-निर्यात की उचित दिशा निर्देश बनाएं। सरकार को फसलों के उचित दाम, किसानों की आय में वृद्धि, खेती की लागत में कमी और युवा किसानों का गाँवों से पलायन रोकने के लिए अतिशीघ्र एक समग्र नीति बनाने हेतु किसान कमीशन के गठन की घोषणा करनी होगी।

कृषि आधारित उद्योग ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं के बराबर हैं। यदि सरकार की वास्तविक मंशा है कि सन् 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाये तो सरकार को सबसे पहले ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय फसल को ध्यान में रखते हुए कृषि आधारित ऐसे उद्योगों की स्थापना करनी होगी जिसमें किसानों की फसलों की खपत हो सके जैसे फ्लोर मिल, तेल मिल, राइस मिल, कॉटन मिल एवं छोटे कुटीर उद्योग जैसे टमाटर सॉस, जैम, पापड़, मोमबत्ती, अगरबत्ती, चिप्स, सिवईयां, अचार-मुरब्बा इत्यादि और इन उद्योगों में स्थानीय ग्रामीण युवाओं को रोज़गार भी देना होगा। इससे एक तरफ़ किसानों को उनकी फसल के उचित दाम भी मिल जाएँगे और कृषि आधारित उद्योगों में उनके युवा बच्चों को रोज़गार भी उपलब्ध हो जाएँगे। इन ग्रामीण उद्योगों में जो अंतिम उत्पाद तैयार होंगे उनकी विपणन की सारी व्यवस्था भी इन ग्रामीण युवाओं के हाथों में ही देने से किसानों की आर्थिक हालत में सुधार हो पाएगा। राष्ट्रीय कृषि बाजार के निर्माण की दिशा में सरकार द्वारा सार्थक पहल की जानी चाहिए। बड़े किसानों की सब्सिडी को रोक कर छोटे एवं सीमांत किसानों की सब्सिडी में वृद्धि की जानी चाहिए।

स्वामीनाथन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कृषि क्षेत्र के उत्थान एवं किसानों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए जो सिफारिशें की थी उन्हें भी सरकार द्वारा पूरी तरह से लागू नहीं किया गया। सरकारें बदलती गईं लेकिन किसानों की आर्थिक दशा में सुधार नहीं हो पाया इसका एक ही मुख्य कारण है सरकार की इच्छाशक्ति में कमी। आज़ादी के 71 वर्षों बाद भी किसान की औसत वार्षिक आय 20 हज़ार रूपये है। अभी तक किसानों के कल्याण की जो योजनाएँ बनाई गयी हैं एवं जिस तरह से उनका क्रियान्वयन किया गया है वे सिर्फ़ सरकार द्वारा वोट बैंक को ध्यान में रखकर ही किए गये हैं। जब तक कृषि को उद्योग का दर्जा नहीं दिया जाता तब तक कृषि कराहती रहेगी, ग्रामीण युवा खेती-किसानी से पलायन करते रहेंगे और किसान आत्महत्या करते रहेंगे।

-दीपक गिरकर

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