शेखावाटी में चंग की थाप पर मनाते हैं होली

चंग को प्रत्येक पुरुष अपने एक हाथ से थाम कर और दूसरे हाथ से कटरवे का ठेका बजाते हुए वृत्ताकार घेरे में नृत्य करते हैं। घेरे के मध्य में एकत्रित होकर धमाल और होली के गीत गाते हैं।

फाल्गुन शुरू होते ही राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में होली का हुड़दंग शुरू हो जाता है। हर मोहल्ले में अपनी चंग पार्टी होती है। चंग शेखावाटी क्षेत्र का प्रसिद्ध नृत्य है। इसमें प्रत्येक पुरुष चंग बजाते हुये नृत्य करते हैं। यह मुख्यत: होली के दिनों में किया जाता है। चंग को प्रत्येक पुरुष अपने एक हाथ से थाम कर और दूसरे हाथ से कटरवे का ठेका बजाते हुए वृत्ताकार घेरे में नृत्य करते हैं। घेरे के मध्य में एकत्रित होकर धमाल और होली के गीत गाते हैं।

होली के एक पखवाड़े पहले गींदड शुरू हो जाता है। जगहजगह भांग घुटती है। हालांकि अब ये नजारे कम ही देखने को मिलते हैं। जबकि, शेखावाटी में ढूंढ का चलन अभी है। परिवार में बच्चे का जन्म होने पर उसका ननिहाल पक्ष और बुआ कपड़े और खिलौने होली पर बच्चे को देते हैं। 

शेखावाटी अंचल के हर गांव कस्बे में रात्रि में लोग एकत्रित होकर चंग की मधुर धुन पर देर रात्रि तक धमाल (लोक गीत) गाते हुए मोहल्लों में घूमते रहते हैं। होली के अवसर पर बजाया जाने वाला ढप भी इसी क्षेत्र में ही विशेष रूप से बनाया जाता है। ढप की आवाज तो ढोलक की माफिक ही होती है, मगर बनावट ढोलक से सर्वथा भिन्न। डप ढोलक से काफी बड़ा व गोल घेरे नुमा होता है। होली के प्रारम्भ होते ही गांवों में लोग अपने-अपने चंग (ढप) संभालने लगते हैं। होली चूंकि बसंत ऋतु का प्रमुख पर्व है तथा बसंत पंचमी बसंत ऋतु प्रारम्भ होने की द्योतक है। इसलिए इस अंचल में बसंत पंचमी के दिन से चंग (ढप) बजाकर होली के पर्व की विधिवत शुरुआत कर दी जाती है। 

शेखावाटी अंचल में होली एक सुप्रसिद्ध लोक पर्व है तथा इस पर्व को क्षेत्र में पूरे देश से अलग ही ढंग से मनाया जाता है। उमंग व मस्ती भरे पर्व होली की शेखावाटी क्षेत्र में बसंत पंचमी के दिन से शुरुआत कर दी जाती है। क्षेत्र में होली के पर्व पर चंग की धुन पर गाई जाने वाली धमालों में यहाँ की लोक संस्कृति का ही वर्णन होता है। इन धमालों के माध्यम से जहाँ प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं को अपने प्रेम का संदेशा पहुँचाते हैं वहाँ श्रद्धालु धमालों के माध्यम से लोक देवताओं को याद कर सुख समृद्धि की कामना करते हैं। धमाल के साथ ही रात्रि में नवयुवक विभिन्न प्रकार के स्वांग भी निकाल कर लोगों का भरपूर मनोरंजन करते हैं। गांवों में स्त्रियाँ रात्रि में चौक में एकत्रित होकर मंगल गीत, बधावे गाती हैं। होली के दिनों में आधी रात तक गांवों में उल्लास छाया रहता है।

शेखावाटी अंचल में होली पर कस्बों में विशेष रूप से गींदड़ नृत्य किया जाता है। गुजराती नृत्य गरबा से मिलता-जुलता गींदड़ नृत्य में काफी लोग विभिन्न प्रकार की चिताकर्षक वेशभूषा में नंगाड़े की आवाज पर एक गोल घेरे में हाथ में डंडे लिए घूमते हुए नाचते हैं तथा आपस में डंडे टकराते हैं। प्रारम्भ में धीरे-धीरे शुरू हुआ यह नृत्य धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ता जाता है। इसी रफ्तार में डंडों की आवाज भी टकरा कर काफी तेज गति से आती है तथा नृत्य व आवाज का एक अद्भुत दृश्य उत्पन्न हो जाता है जिसे देखने वाला हर दर्शक रोमांचित हुए बिना नहीं रह पाता है। होली के अवसर पर चलने वाले इन कार्यक्रमों से यहाँ का हर एक व्यक्ति स्वयं में एक नई स्फूर्ति का संचार महसूस करता है।

इन नृत्यों की लोक परम्परा को जीवित रखने के लिए क्षेत्र की कुछ संस्थाएँ विगत कुछ समय से विशेष प्रयासरत हैं। झुंझुनू शहर में सद्भाव नामक संस्था गत 18 वर्षों से होली के अवसर पर चंग, गींदड़ कार्यक्रम का आयोजन करती आ रही है, जिसे देखने दूर-दराज गावों से काफी संख्या में लोग आते हैं। झुंझुनू, फतेहपुर शेखावाटी, रामगढ़ शेखावाटी, मण्डावा, लक्ष्मणगढ़, चूरू, बिसाऊ, लक्ष्मणगढ़ कस्बों का गींदड़ नृत्य पूरे देश में प्रसिद्ध है। इसी कारण चंग व गीन्दड़ नृत्य का आयोजन शेखावाटी से बाहर अन्य प्रान्तों में भी होने लगा है। धुलंडी के दिन इन नृत्यों का समापन होता है। मगर क्षेत्र में बढ़ते शराब के प्रचलन के कारण लोग रात्रि में घरों से बाहर निकलने से डरने लगे हैं तथा गांवों में भी पहले की तरह सामंजस्य नहीं रहा। इसके अलावा ऑडियो कैसेटों के बढ़ते प्रचलन से भी इस लोक पर्व को कृत्रिम सा बना दिया है। कैसेटों की वजह से पर्व की मौलिकता ही समाप्त होने जा रही है। यदि समय रहते होली पर व्याप्त हो रही कुरीतियों व शराब के चलन की समाप्ति का प्रयास नहीं किया गया तो यह पर्व अपना मूल रूप खो बैठेगा।

होली के अवसर पर राजस्थान के विभिन्न शहरों में कईं तरह के आयोजन किए जाते हैं। राजस्थान में होली के विविध रंग देखने में आते हैं। होली के दिनों में जयपुर के इष्टदेव गोविंद देव मंदिर में नज़ारा देखने लायक होता है। राजस्थान के मंदिरों में होली पर रंग-गुलाल के साथ फाग उत्सव का आयोजन किया जाता है।  

बाड़मेर में पत्थर मार होली खेली जाती है तो अजमेर में कोड़ा अथवा सांतमार होली लोग बहुत धूम-धाम से मनाते हैं। हाड़ोती क्षेत्र के सांगोद कस्बे में होली के अवसर पर नए हिजड़ों को हिजड़ों की ज़मात में शामिल किया जाता है। इस अवसर पर बाज़ार का न्हाण और खाड़े का न्हाण नामक लोकोत्सवों का आयोजन होता है। खाडे के न्हाण में जम कर अश्लील भाषा का प्रयोग किया जाता है। 

राजस्थान के सलंबूर कस्बे में आदिवासी गेर खेल कर होली मनाते हैं। इस कस्बे के भील और मीणा युवक एक गेली हाथ में लिए नृत्य करते हैं। गेली अर्थात एक लंबे बांस पर घुंघरू और रूमाल का बंधा होना। कुछ युवक पैरों में भी घुंघरू बांधकर गेर नृत्य करते हैं। इनके गीतों में काम भावों का खुला प्रदर्शन और अश्लील शब्दों और गालियों का प्रयोग होता है। जब युवक गेरनृत्य करते हैं तो युवतियां उनके समूह में सम्मिलित होकर फाग गाती हैं। युवतियां पुरुषों से गुड़ के लिए पैसे मांगती हैं। इस अवसर पर आदिवासी युवक-युवतियाँ अपना जीवन साथी भी चुनते हैं।

बीकानेरी होली का सबसे आकर्षण का केन्द्र होता है पुष्करणा समाज के हर्ष व व्यास जाति के बीच खेला जाने वाला डोलची। पानी का खेल डोलची चमड़े से बना एक ऐसा पात्र है जिसमें पानी भरा जाता है व जोरदार प्रहार के साथ सामने वाले की पीठ पर इस पानी को मारा जाता है। प्रेम के रंग से भरी डोलची जब प्यार से पीठ पर पड़ती है तो इसकी गूंज आस पास खड़े लोगों में भी उमंग भर देती है। 

भरतपुर के ब्रजांचल में फाल्गुन का आगमन कोई साधारण बात नहीं है। ब्रज के गांव की चौपालों पर ब्रजवासी ग्रामीण अपने लोकवाद्य बम के साथ अपने ढप, ढोल और झांझ बजाते हुए रसिया गाते हैं। डीग क्षेत्र की ग्रामीण महिलाएं अपने सिर पर भारी भरकम चरकुला रखकर उस पर जलते दीपकों के साथ नृत्य करती हैं। संपूर्ण ब्रज में इस तरह आनंद की अमृत वर्षा होती है। यह परंपरा ब्रज की धरोहर है। बरसाने, नंदगांव, कामां, डीग आदि स्थानों पर ब्रज की लठमार होली की परम्परा आज भी यहां की संस्कृति को पुष्ट करती है। चैत्र कृष्ण द्वितीया को दाऊजी का हुरंगा भी प्रसिद्ध है। 

पाली के ग्रामीण इलाकों में फाल्गुन लगते ही गेर नृत्य शुरू हो जाता है। वहीं यह नृत्य डंका पंचमी से भी शुरू होता है। फाल्गुन के पूरे महीने रात में चौहटों पर ढोल और चंग की थाप पर गेर नृत्य किया जाता है। मारवाड गोडवाड इलाके में डांडी गैर नृत्य बहुत होता है और यह नृत्य इस इलाके में खासा लोकप्रिय है। यहां फाग गीत के साथ गालियां भी गाई जाती हैं। 

मेवाड अंचल के भीलवाडा जिले के बरून्दनी गांव में होली के सात दिन बाद शीतला सप्तमी पर खेली जाने वाली लठमार होली का अपना एक अलग ही मजा रहा है। माहेश्वरी समाज के स्त्री-पुरूष यह होली खेलते हैं। डोलचियों में पानी भरकर पुरूष महिलाओं पर डालते हैं और महिलाएं लाठियों से उन्हें पीटती हैं। यहां होली के बाद बादशाह की सवारी निकाली जाती है, वहीं शीतला सप्तमी पर चित्तौडगढ़ वालों की हवेली से मुर्दे की सवारी निकाली जाती है। इसमें लकड़ी की सीढी बनाई जाती है और जिंदा व्यक्ति को उस पर लिटाकर अर्थी पूरे बाजार में निकालते हैं। इस दौरान युवा इस अर्थी को लेकर पूरे शहर में घूमते हैं। लोग इन्हें रंगों से नहला देते हैं। 

श्रीगंगानगर में भी होली मनाने का खास अंदाज है। यहां देवर भाभी के बीच कोड़े वाली होली काफी चर्चित रही है। होली पर देवर-भाभी को रंगने का प्रयास करते हैं और भाभी-देवर की पीठ पर कोड़े मारती है। इस मौके पर देवर-भाभी से नेग भी मांगते हैं।

- रमेश सर्राफ धमोरा

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़