यदि मृत्युदंड से ही सुधारा जा सकता तो चीन में अपराध नहीं होते

If the death penalty can be corrected then there is no crime in China

देश में नाबालिग बच्चियों और महिलाओं से बलात्कार के मामलों में फांसी की सजा देने की मांग उठ रही है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक ने नाबालिग से बलात्कार पर मृत्युदंड देने का प्रावधान किया है।

देश में नाबालिग बच्चियों और महिलाओं से बलात्कार के मामलों में फांसी की सजा देने की मांग उठ रही है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक ने नाबालिग से बलात्कार पर मृत्युदंड देने का प्रावधान किया है। हरियाणा भी इस दिशा में अग्रसर है। सवाल यह है कि इस तरह के प्रावधान से देश में बलात्कार की घटनाएं थम जाएंगी? क्या विकृत मानसिकता के लोगों में सजा के डर से परिवर्तन आ जाएगा? क्या कानून के बूते पर लोगों के वहशीपन पर लगाम लगाई जा सकती है? 

अपराधों को रोकने के लिए देश में बने कानूनों की पहले से ही कमी नहीं है। इसके बावजूद देश में लगातार अपराधों का ग्राफ बढ़ रहा है। इससे जाहिर है समस्या की जड़ कुछ और है तथा समाधान कहीं अलग खोजा जा रहा है। यह मुद्दे से भटकाने का प्रयास जैसा है। उस सच्चाई से भागने का प्रयास है, जिससे अक्सर चुनी हुई सरकारें अपनी जिम्मेदारी में नाकाम रहने पर कानून बनाकर कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती हैं। यदि मृत्युदंड की सजा से ही समाज और देश अपराध मुक्त हो जाते तो सबसे पहले चीन इस समस्या से मुक्त हो जाता। एमनेस्टी इंटरनेशनल की ताजा रिपोर्ट बताती है कि चीन मृत्युदंड देने में कई सालों से विश्व में सबसे आगे है।

रिपोर्ट के मुताबिक चीन में बीते वर्ष 993 लोगों को मौत की सजा दी गई। यदि मृत्युदंड देने से ही लोगों को सुधारा जा सकता तो चीन कब का अपराधमुक्त देश बन चुका होता। इसके बावजूद चीन में मृत्युदंड के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। इससे जाहिर है कि मृत्युदंड से किसी अपराध को समाप्त नहीं किया जा सकता। इसका भय दिखा कर किसी की मानसिकता में बदलाव नहीं किया जा सकता। यही वजह है कि एमनेस्टी इंटरनेशनल इस सजा को क्रूर मानते हुए विश्व में इसकी पाबंदी को लेकर सतत् मुहिम छेड़े हुए है। विश्व के कई देशों ने इस सच्चाई को स्वीकार किया है कि मृत्युदंड देने से अपराधों पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता। गुअना और मंगोलिया जैसे पिछड़े देशों ने इस अमानवीय सजा को खत्म कर दिया। गंबाला ने वैश्विक संधि पर हस्ताक्षर करके मृत्युदंड नहीं देने का वादा किया है।

वर्ष 2017 के अंत तक विश्व के 106 देशों ने मौत की सजा देने के कानून को समाप्त कर दिया। इस सजा को बर्बर और आदिम माना गया। इसी वजह से इस कानून को हटाने वाले देशों की संख्या बढ़ रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ भी इस अमानवीय सजा के खिलाफ है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 18 दिसंबर 2007 को एक प्रस्ताव पारित कर मौत की सजा पर पाबंदी लगा दी। हालांकि कुछ देशों ने अभी तक इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। 

बलात्कार के बढ़ते मामलों में बुनियादी मुद्दे हल किए जाने के बजाए बेशक राज्य सरकारें तात्कालिक उपाय के तौर पर मृत्यदंड की वकालत कर रहीं हों पर पूर्व राष्ट्रपति और देश के युवाओं के प्रेरक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम इस सजा के खिलाफ थे। कलाम ने अपनी पुस्तक टर्निंग प्वाइंट में लिखा कि राष्ट्रपति के तौर पर मेरे लिए सबसे ज्यादा मुश्किल कार्यों में से एक अदालतों द्वारा दिए गए मृत्युदंड की पुष्टि करने के मुद्दे पर फैसला करना था। उन्होंने लिखा कि मेरे लिए आश्चर्यजनक था कि ज्यादातर सभी मामले जो लंबित थे, उनमें सामाजिक एवं आर्थिक भेदभाव था। डॉ. कलाम ने विधि आयोग के परामर्श प्रपत्र में भी ऐसे ही विचार व्यक्त किए। प्रपत्र के जवाब में कहा कि इस तरह के मामलों में फैसला करने में उन्होंने दर्द महसूस किया।

विधि आयोग ने अपनी 262वीं रिपोर्ट में आतंकवाद के मामलों को छोड़कर अन्य सभी अपराधों के लिए फांसी की सजा खत्म करने की सिफारिश की है। दिल्ली राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर डेथ पेनल्टी की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि मौत की सजा सुनाए गए तीन चौथाई से अधिक दोषी आर्थिक, शैक्षिक तथा सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग के हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि 80 फीसदी से अधिक कैदियों को जेलों में अमानवीय और अत्यधिक शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है। अध्ययन में यह भी पाया गया कि जिन कैदियों को मौत की सजा सुनाई गई, उनमें से 23 फीसदी तो कभी स्कूल गए ही नहीं और 61 प्रतिशत ने उच्चतर माध्यमिक तक की शिक्षा भी पूरी नहीं की।

ऐसी स्थिति में नाबालिग से बलात्कार जैसे अपराधों के लिए मृत्युदंड की सजा का कानून बनाने की सरकारों की होड़ दर्शाती है कि नेताओं की ऐसे अपराधों के कारणों का समाधान करने में दिलचस्पी नहीं है। इसकी जड़ें हैं अशिक्षा, गरीबी, असमानता, भ्रष्टाचार, जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव एवं सामाजिक कुरीतियां। आजादी के सात दशक बाद भी देश में बाल विवाह जारी है। इसे खत्म करने के लिए कानून भी बनाए फिर भी, बाल विवाह थम नहीं रहे। क्या यह नाबालिग लड़कियों के साथ अत्याचार नहीं है?

नीति नियंता भूल गए कि भारत विश्व में अहिंसा के लिए जाना जाता है। डॉ. कलाम ने इसकी पैरवी करके उसी कड़ी को आगे बढ़ाया है। महात्मा गांधी को विश्व में अहिंसा का पुजारी माना जाता है। यही वजह है गांधी अभी तक भी विश्व में सर्वाधिक स्वीकार्य भारत के अकेले नेता रहे हैं। भारत की भूमि से निकले जैन और बौद्ध धर्म की तो बुनियाद ही अहिंसा है। इसके बावजूद सत्तारुढ़ दल के नेता लकीर के फकीर बने हुए हैं। भारतीय इतिहास और संस्कृति से लगता है उनका कोई वास्ता नहीं रह गया है। अशोक महान इसके उदाहरण हैं, जिन्होंने भारी रक्तपात के बाद हुई विजय से उपजी वितृष्णा से बौद्ध धर्म अपनाकर अहिंसा की नीति अपनाई। अहिंसा का मार्ग अपनाने के कारण ही उन्हें महानता का दर्जा मिला।

महात्मा बुद्ध ने लोगों के मुंड काटकर उंगली पहनने वाले आंगुलीमाल नाम के डकैत को अपना शिष्य बनाकर अपराध के रास्ते से मुक्त कराकर बौद्ध धर्म के प्रचार−प्रसार में लगाया। ये चुनिंदा उदाहरण बताते हैं कि कोई भी अपराधी पैदा नहीं होता, बल्कि ज्यादातर मामलों में हालात उसे अपराधी बनाते हैं। जब तक राजनीतिक दलों के नेता बुनियादी सुविधाओं के सवालों पर सहमत नहीं होंगे, तब तक बलात्कार हों या दूसरे जघन्य अपराध, इन्हें सिर्फ कानूनों के बूते खत्म नहीं किया जा सकता।

-योगेन्द्र योगी

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़