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साक्षात्कारः पर्यावरणविद् सुनीता नारायण ने बताये प्रदूषण से निजात के उपाय
- डॉ. रमेश ठाकुर
- नवंबर 9, 2020 14:29
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सुनीता नारायण ने कहा है कि सवाल यह है कि प्रदूषण को लेकर सरकारें साल भर क्यों सोती रहती हैं? पॉल्यूशन का सॉल्यूशन चंद दिनों के बैन से निकलेगा? क्या पटाखा ही पॉल्यूशन का असली विलेन है? प्रदूषण फैलाने वाले अन्य यंत्रों पर बैन क्यों नहीं लगाती सरकारें?
धान की कटाई के वक्त पराली और दीवाली के समय पटाखों को पॉल्यूशन का कारण बताकर सारा का सारा ठीकरा फोड़ा जाता है। जबकि, प्रदूषण के कारण कुछ और ही हैं, जिनकी सच्चाई हुकूमतों को पता होती है। लेकिन जानबूझकर इग्नोर किया जाता है। इस वक्त भी पॉल्यूशन से लोग परेशान हैं, कोरोना और पॉल्यूशन के कॉकटेल ने लोगों की मुश्किलें बढ़ाई हुई हैं। दिल्ली सरकार ने पटाखों की ब्रिकी पर बैन किया है। सवाल उठता है कि क्या ये पाल्यूशन का सॉल्यूशन हो सकता है? इस विषय पर सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट की अध्यक्षा सुनीता नारायण से रमेश ठाकुर ने विस्तृत बातचीत की। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश!
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प्रश्न- दशक भर पहले भी पराली जलाई जाती थी और दीपाली पर पटाखे भी फोड़े जाते थे। अचानक ऐसा क्या हुआ कि पॉल्यूशन का कारण इन्हें ही मान लिया?
उत्तर- ये हुकूमतों की बनाई मनगढ़ंत कहानियां मात्र हैं। राजधानी सहित कुछ अन्य राज्यों ने पटाखे जलाने पर रोक लगाई है। हालांकि कुछ हद तक सहूलियतें मिल सकती हैं, पर निवारण नहीं? अब सवाल यह है कि प्रदूषण को लेकर सरकारें साल भर क्यों सोती रहती हैं? पॉल्यूशन का सॉल्यूशन चंद दिनों के बैन से निकलेगा? क्या पटाखा ही पॉल्यूशन का असली विलेन है? प्रदूषण फैलाने वाले अन्य यंत्रों पर बैन क्यों नहीं लगाती सरकारें? क्या पॉल्यूशन के बहाने त्योहारों को टार्गेट किया जाता है। पॉल्यूशन पर सख्ती से पॉलिसी बनानी होगी।
प्रश्न- पॉल्यूशन पर रोकथाम के लिए ईमानदारी से पहल करनी होगी। जैसे दो वर्ष पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने बीएस-3 वाहनों की ब्रिकी पर रोक लगाई थी?
उत्तर- कड़ाई से फैसला लेना सरकारों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं होगा। गरीब की चिमनियां तोड़ना तो आसान होता है, पर कारख़ानों को बंद करना मुश्किल होता है। पर्यावरण संरक्षण व स्वच्छ आबोहवा के लिए सुप्रीम कोर्ट ने बीएस-3 यानी पुराने वाहनों की ब्रिकी पर तुरंत प्रभाव से रोक लगाकर स्वस्थ समाज को बढ़ावा देने के मकसद से एक मानवीय फैसला लिया था। सरकारें भी ऐसा फैसला ले सकती थीं, पर उन्हें राजस्व व कमीशनखोरी पर पानी फिरने का डर था। पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण (ईपीसीए) ने पूरे देश में ज़हरीली हवा से निजात दिलाने के लिए एक समान नियम-फ़ायदों वाला विस्तृत एक्शन प्लान का ड्राफ्ट उच्च न्यायालय को हमने ही सौंपा था। जिस पर अदालत ने ऐतिहासिक फैसला दिया था।
प्रश्न- पॉल्यूशन की रोकथाम पर आखिर चूक होती कहां है?
उत्तर- देखिए, पॉल्यूशन पर सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि इस समस्या पर नियंत्रण पाना सरकारों की ज़िम्मेदारी है। सरकारों को सुनिश्चित करना होगा कि उनके राज्यों में स्मॉग कैसे कम हो। पॉल्यूशन के मामले में अपराधों की ग्रेडिंग की जरूरत है। इस मामले में 16 नवंबर को अगली सुनवाई होगी। पॉल्यूशन रोकने के लिए केंद्र सरकार अध्यादेश लाई है। अध्यादेश के तहत आयोग बनाने को मंजूरी दी गई है। इस आयोग में केंद्र और अन्य राज्यों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। आयोग में एक अध्यक्ष और 17 सदस्य होंगे। आयोग के निर्देश नहीं मानने पर कार्रवाई होगी। 1 करोड़ तक जुर्माना लगाया जा सकता है। 5 साल तक जेल की सजा भी संभव है।
प्रश्न- पर्यावरण मुद्दे पर आपकी लड़ाई लंबे समय से चल रही है?
उत्तर- प्रदूषण को रोकने के लिए औरों को भी आगे आना चाहिए। सामूहिक चेतना की जरूरत है। सरकारों को पता है कि आसमान में विषैली गैसों का ज़ख़ीरा तैर रहा है। पेट्रोल-डीजल पदार्थों व ऑटो कंपनियों के चलते सड़कों पर बेतहाशा उत्सर्जन हो रहा है, पर नियंत्रण करने के लिए अपनी ओर से कोई प्रयास नहीं किए जाते। सरकारें नियमों का दुरुपयोग नहीं कर सकेंगी। क्योंकि समान नियम-फ़ायदों वाला विस्तृत एक्शन प्लान का ड्राफ्ट हमने पिछले माह छह मार्च 2017 को ही सुप्रीम कोर्ट में जमा करा दिया था। ड्राफ्ट में दिल्ली सरकार, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) और ईपीसीए के एक्शन प्लान के प्रमुख प्वाइंट को शामिल किया गया है। इस प्लान की एक-एक प्रति दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश सरकार को भी भेज दी गई है।
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प्रश्न- ऑटो ईंधन नीति लागू होने से भी प्रदूषण में सुधार नहीं हुआ?
उत्तर- जब पहली बार 2003 में ऑटो ईंधन नीति संबंधी पहली सिफ़ारिशें आईं तो उसमें 2010 तक का रोड मैप शामिल था। पर किसी भी सरकार ने इच्छाशक्ति नहीं दिखाई। ऑटो कंपनियों पर सरकारें त्वरित फैसला करने की बजाय उन पर मेहरबान बनीं रहीं। उस वक्त भी हमने सरकारों से आग्रह किया लेकिन किसी ने भी हमारी बातें नहीं मानीं। इसके बाद हमने दूषित पर्यावरण का हवाला देकर ऑटोमोबाइल कंपनियों से उत्सर्जन युक्त पदार्थों पर रोक की मांग की। उन्होंने भी अनसुना कर दिया। एक कंपनी ने तो हम पर मानहानि का मुकदमा तक कर दिया था। साल 2015 में आई ऑटो ईंधन नीति लागू होने से पहले ही दम तोड़ दिया। दरअसल सरकारें चाहती ही नहीं हैं कि पुराने कंडम वाहन सड़कों से हटें। लेकिन हमारा प्रयास होगा कि 2020 तक भारत बीएस-6 तक पहुंच जाए।
- डॉ. रमेश ठाकुर
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- योगेश कुमार गोयल
- जनवरी 20, 2021 13:20
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शौर्य और साहस के प्रतीक तथा इतिहास को नई धारा देने वाले अद्वितीय, विलक्षण और अनुपम व्यक्तित्व के स्वामी गुरु गोबिंद सिंह जी को इतिहास में एक विलक्षण क्रांतिकारी संत व्यत्वित्व का दर्जा प्राप्त है।
सिखों के 10वें गुरु गोबिंद सिंह जी का 354वां प्रकाश पर्व पटना में तख्त श्री हरिमंदिर पटना साहिब में 20 जनवरी को मनाया जा रहा है। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार गुरु गोबिंद सिंह का जन्म 1667 ई. में पौष माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को 1723 विक्रम संवत् को पटना साहिब में हुआ था और इस साल 20 जनवरी को यह तिथि है, इसीलिए इसी दिन गुरु गोबिंद सिंह का प्रकाशोत्सव मनाया जाएगा। वैसे गुरु गोबिंद सिंह जयंती दिसम्बर तथा जनवरी के महीने में कभी-कभार एक वर्ष में दो बार भी आती है, जिसकी गणना हिन्दू विक्रमी संवत् कैलेंडर के अनुसार ही की जाती है। बचपन में गुरु गोबिंद सिंह जी को गोबिंद राय के नाम से जाना जाता था। उनके पिता गुरु तेग बहादुर सिखों के 9वें गुरु थे। पटना में रहते हुए गुरू जी तीर-कमान चलाना, बनावटी युद्ध करना इत्यादि खेल खेला करते थे, जिस कारण बच्चे उन्हें अपना सरदार मानने लगे थे। पटना में वे केवल 6 वर्ष की आयु तक ही रहे और सन् 1673 में सपरिवार आनंदपुर साहिब आ गए। यहीं पर उन्होंने पंजाबी, हिन्दी, संस्कृत, बृज, फारसी भाषाएं सीखने के साथ घुड़सवारी, तीरंदाजी, नेजेबाजी इत्यादि युद्धकलाओं में भी महारत हासिल की। कश्मीरी पंडितों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए उनके पिता और सिखों के 9वें गुरु तेग बहादुर जी द्वारा नवम्बर 1975 में दिल्ली के चांदनी चौक में शीश कटाकर शहादत दिए जाने के बाद मात्र 9 वर्ष की आयु में ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिखों के 10वें गुरू पद की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभाली और खालसा पंथ के संस्थापक बने।
इसे भी पढ़ें: महान दानवीर, क्रांतिवीर और शूरवीर श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का पूरा जीवन है प्रेरणादायी
शौर्य और साहस के प्रतीक तथा इतिहास को नई धारा देने वाले अद्वितीय, विलक्षण और अनुपम व्यक्तित्व के स्वामी गुरु गोबिंद सिंह जी को इतिहास में एक विलक्षण क्रांतिकारी संत व्यत्वित्व का दर्जा प्राप्त है। अत्याचार और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए उनका वाक्य ‘सवा लाख से एक लड़ाऊं तां गोबिंद सिंह नाम धराऊं’ सैकड़ों वर्षों बाद आज भी प्रेरणा और हिम्मत देता है। ‘भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन’ वाक्य के जरिये वे कहते थे कि किसी भी व्यक्ति को न किसी से डरना चाहिए और न ही दूसरों को डराना चाहिए। उन्होंने समाज में फैले भेदभाव को समाप्त कर समानता स्थापित की थी और लोगों में आत्मसम्मान तथा निडर रहने की भावना पैदा की। एक आध्यात्मिक गुरु होने के साथ-साथ वे एक निर्भयी योद्धा, कवि, दार्शनिक और उच्च कोटि के लेखक भी थे। उन्हें विद्वानों का संरक्षक भी माना जाता था। दरअसल कहा जाता है कि 52 कवियों और लेखकों की उपस्थिति सदैव उनके दरबार में बनी रहती थी और इसीलिए उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता था। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की थी।
‘बिचित्र नाटक’ को गुरु गोबिंद सिंह की आत्मकथा माना जाता है, जो उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह ‘दशम ग्रंथ’ का एक भाग है, जो गुरु गोबिंद सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है। इस दशम ग्रंथ की रचना गुरू जी ने हिमाचल के पोंटा साहिब में की थी। कहा जाता है कि एक बार गुरु गोबिंद सिंह अपने घोड़े पर सवार होकर हिमाचल प्रदेश से गुजर रहे थे और एक स्थान पर उनका घोड़ा अपने आप आकर रुक गया। उसी के बाद से उस जगह को पवित्र माना जाने लगा और उस जगह को पोंटा साहिब के नाम से जाना जाने लगा। दरअसल ‘पोंटा’ शब्द का अर्थ होता है ‘पांव’ और जिस जगह पर घोड़े के पांव अपने आप थम गए, उसी जगह को पोंटा साहिब नाम दिया गया। गुरु जी ने अपने जीवन के चार वर्ष पोंटा साहिब में ही बिताए, जहां अभी भी उनके हथियार और कलम रखे हैं।
1699 में बैसाखी के दिन तख्त श्री केसगढ़ साहिब में कड़ी परीक्षा के बाद पांच सिखों को ‘पंज प्यारे’ चुनकर गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी, जिसके बाद प्रत्येक सिख के लिए कृपाण या श्रीसाहिब धारण करना अनिवार्य कर दिया गया। वहीं पर उन्होंने ‘खालसा वाणी’ भी दी, जिसे ‘वाहे गुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह’ कहा जाता है। उन्होंने जीवन जीने के पांच सिद्धांत दिए थे, जिन्हें ‘पंच ककार’ (केश, कड़ा, कृपाण, कंघा और कच्छा) कहा जाता है। गुरु गोबिंद सिंह ने ही ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ को सिखों के स्थायी गुरु का दर्जा दिया था। सन् 1708 में गुरु गोबिंद सिंह ने महाराष्ट्र के नांदेड़ में शिविर लगाया था। वहां जब उन्हें लगा कि अब उनका अंतिम समय आ गया है, तब उन्होंने संगतों को आदेश दिया कि अब गुरु ग्रंथ साहिब ही आपके गुरु हैं। गुरु जी का जीवन दर्शन था कि धर्म का मार्ग ही सत्य का मार्ग है और सत्य की हमेशा जीत होती है। वे कहा करते थे कि मनुष्य का मनुष्य से प्रेम ही ईश्वर की भक्ति है, अतः जरूरतमंदों की मदद करो। अपने उपदेशों में उनका कहना था कि ईश्वर ने मनुष्यों को इसलिए जन्म दिया है ताकि वे संसार में अच्छे कर्म करें और बुराई से दूर रहें।
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उन्होंने कई बार मुगलों को परास्त किया। आनंदपुर साहिब में तो मुगलों से उनके संघर्ष और उनकी वीरता का स्वर्णिम इतिहास बिखरा पड़ा है। सन् 1700 में दस हजार से भी ज्यादा मुगल सैनिकों को सिख जांबाजों के सामने मैदान छोड़कर भागना पड़ा था और गुरु जी की सेना ने 1704 में मुगलों के अलावा उनका साथ दे रहे पहाड़ी हिन्दू शासकों को भी करारी शिकस्त दी थी। मुगल शासक औरंगजेब की भारी-भरकम सेना को भी आनंदपुर साहिब में दो-दो बार धूल चाटनी पड़ी थी। गुरु गोबिंद सिंह के चारों पुत्र अजीत सिंह, फतेह सिंह, जोरावर सिंह और जुझार सिंह भी उन्हीं की भांति बेहद निडर और बहादुर योद्धा थे। अपने धर्म की रक्षा के लिए मुगलों से लड़ते हुए गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पूरे परिवार का बलिदान कर दिया था। उनके दो पुत्रों बाबा अजीत सिंह और बाबा जुझार सिंह ने चमकौर के युद्ध में शहादत प्राप्त की थी। 26 दिसम्बर 1704 को गुरु गोबिंद सिंह के दो अन्य साहिबजादों जोरावर सिंह और फतेह सिंह को इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करने पर सरहिंद के नवाब द्वारा दीवार में जिंदा चुनवा दिया गया था और माता गुजरी को किले की दीवार से गिराकर शहीद कर दिया गया था। नांदेड़ में दो हमलावरों से लड़ते समय गुरु गोबिन्द सिंह के सीने में दिल के ऊपर गहरी चोट लगी थी, जिसके कारण 18 अक्तूबर 1708 को नांदेड में करीब 41 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई थी। नांदेड़ में गोदावरी नदी के किनारे बसे हुजूर साहिब में उन्होंने अंतिम सांस ली थी।
- योगेश कुमार गोयल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं तथा तीन दशकों से साहित्य और पत्रकारिता में सक्रिय हैं)
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- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
- जनवरी 19, 2021 13:12
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इन संस्थाओं के चुनावों में निष्पक्ष चुनावों की या यों कहें कि निष्पक्ष मतदान की बात की जाए तो उसका कोई मतलब ही नहीं है। साफ हो जाता है कि कुछ ठेकेदार बोली लगाकर सरपंच बनवा देते हैं और आम मतदाता देखता ही रह जाता है।
भले ही महाराष्ट्र के राज्य चुनाव आयोग द्वारा उमरेन और खोड़ामाली गांव के सरपंच के चुनावों पर रोक लगा दी गयी हो पर यह स्थानीय स्वशासन चुनाव व्यवस्था की पोल खोलने के लिए काफी है। यह तो सरपंच पद के लिए लगाई जा रही बोली का वीडियो वायरल हो गया इसलिए मजबूरी में चुनावों पर रोक लगाने का निर्णय करना पड़ा। अन्यथा जब इस तरह से महाराष्ट्र की प्याज मण्डी में उमरेन के सरपंच पद के लिए एक करोड़ 10 लाख से चलते चलते दो करोड़ पर बोली रुकी, उससे साफ हो जाता है कि लोकतंत्र की सबसे निचली सीढ़ी के सरपंच पद को बोली लगाकर किस तरह से शर्मशार किया जा रहा है। यह कोई उमरेन की ही बात नहीं है अपितु यही स्थिति खोड़ामली की भी रही वहां की सरपंची शायद कम मलाईदार होगी इसलिए बोली 42 लाख पर अटक गई। इससे यह तो साफ हो जाता है कि जो स्वप्न स्थानीय स्वशासन का देखा गया था उसकी कल्पना करना ही बेकार है। यह भी सच्चाई से आंख चुराना ही होगा कि केवल इस तरह की घटना उमरेन या खोड़ामाली की ही होगी और अन्य स्थानों पर सरपंच के चुनाव पूरी ईमानदारी, निष्पक्षता और पारदर्शिता से हो रहे होंगे। लोकतंत्र के सबसे निचले पायदान जिसकी सबसे अधिक निष्पक्षता और पारदर्शिता से चुनाव की आशा की जाती है उसके चुनावों की यह तस्वीर बेहद निराशाजनक और चुनावों पर भ्रष्टाचारियों की पकड़ को उजागर करती है। हालांकि देश की पंचायतीराज संस्थाओं के चुनावों को लेकर सबसे अधिक सशंकित और आतंकित इन चुनावों में लगे कार्मिक होते हैं क्योंकि स्थानीय स्तर की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता इस कदर बढ़ जाती है कि कब एक दूसरे से मारपीट या चुनाव कार्य में लगे कार्मिकों के साथ अनहोनी हो जाए इसका कोई पता नहीं रहता।
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उमरेन की सरपंचाई की बोली इतनी अधिक लगने का कारण वहां प्याज की मण्डी होना है। इससे साफ हो जाता है कि लोकतंत्र का सबसे निचला पायदान भी भ्रष्टाचार से आकंठ डूबा हुआ है। यदि कोई यह दावा करता हो कि इस तरह की बोली से चुनाव कार्य से जुड़े लोग अंजान होंगे तो यह सच्चाई पर परदा डालना होगा क्योंकि इतनी बड़ी घटना किसी एक दो स्थान पर नहीं अपितु इसकी जड़ें कहीं गहरे तक जमी हुई हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। दुर्भाग्य की बात है कि जिस लोकतंत्र की हम दुहाई देते हैं और जिस स्थानीय स्वशासन यानी कि गांव के विकास की गाथा गांव के लोगों द्वारा चुने हुए लोगों के हाथ में हो, उसकी उमरेन जैसी तस्वीर सामने आती है तो यह बहुत ही दुखदायी व गंभीर है। यह साफ है कि दो करोड़ या यों कहें कि बोली लगाकर जीत के आने वाले सरपंच से ईमानदारी से काम करने की आशा की जाए तो यह बेमानी ही होगा। जो स्वयं भ्रष्ट आचरण से सत्ता पा रहा है उससे ईमानदार विकास की बात की जाए तो यह सोचना अपने आप में निरर्थक हो जाता है। ऐसे में विचारणीय यह भी हो जाता है कि हमारा ग्राम स्तर का लोकतंत्र किस स्तर तक गिर चुका है। इससे यह भी साफ हो जाता है कि इन संस्थाओं के चुनावों में निष्पक्ष चुनावों की या यों कहें कि निष्पक्ष मतदान की बात की जाए तो उसका कोई मतलब ही नहीं है। साफ हो जाता है कि कुछ ठेकेदार बोली लगाकर सरपंच बनवा देते हैं और आम मतदाता देखता ही रह जाता है।
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दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का हम दावा करते हैं और वह सही भी है। लोकतंत्र की दुहाई देने वाले अमेरिका की स्थिति हम इन दिनों देख ही रहे हैं। इसके अलावा हमारी चुनाव व्यवस्था की सारी दुनिया कायल है। हमारी चुनाव व्यवस्था पर हमें गर्व भी है और होना भी चाहिए। पर जिस तरह की उमरेन या इस तरह के स्थानों पर घटनाएं हो रही हैं निश्चित रूप से लोकतंत्र के लिए यह दुःखद घटना है। अब यहां चुनाव पर रोक लगाने से ही काम नहीं चलने वाला है अपितु महाराष्ट्र के चुनाव आयोग, सरकार भ्रष्टाचार निरोधक संस्थाओं, न्यायालयों आदि को स्वप्रेरणा से आगे आकर बोली लगाने वालों और इस तरह की प्रक्रिया से जुड़े लोगों के खिलाफ सख्त कार्यवाही करनी चाहिए ताकि स्थानीय लोकतंत्र अपनी मर्यादा को तार-तार होने से बच सके। यह हमारी समूची प्रक्रिया पर ही प्रश्न उठाती घटना है और चाहे इस तरह की घटना को एक दो स्थान पर या पहली बार ही बताया जाए पर इसकी पुनरावृत्ति देश के किसी भी कोने में ना हो इसके लिए आगे आना होगा। जानकारी में आते ही सख्त कदम और इस तरह की भ्रष्टाचारी घटनाओं के खिलाफ आवाज बुलंद की जाती है तो यह लोकतंत्र के लिए शुभ होगा। गैर सरकारी संगठनों और जो देश के चुनाव आयोग की सुव्यवस्थित इलेक्ट्रोनिक मतदान व्यवस्था यानि ईवीएम के खिलाफ आवाज उठाते हैं उन्हें अब मुंह छिपाए बैठने के स्थान पर मुखरता से आगे आना होगा तभी उनकी विश्वसनीयता तय होगी। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था इस तरह की घटनाओं से शर्मशार होती है इसे हमें समझना होगा नहीं तो लोकतांत्रिक व्यवस्था की पवित्रता कलुषित होगी।
-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
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- डॉ. रमेश ठाकुर
- जनवरी 18, 2021 13:49
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भारतीय संविधान के तहत, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकारों की रक्षा करने और कानून की व्याख्या करने की शक्ति है। संविधान न्यायालयों को किसी कानून के निर्धारण का निर्देश देने की या रद्द करने की शक्ति नहीं देता है।
किसानों का आंदोलन केंद्र सरकार के लिए चुनौती बन गया है। रोकने के लिए सरकार हर तरीके की कोशिशें कर चुकी है। लेकिन किसान टस से मस नहीं हो रहे। किसान-सरकार के बीच बढ़ते गतिरोध को देखते हुए अब सुप्रीम कोर्ट की भी एंट्री हो चुकी है। कोर्ट ने फिलहाल सरकार के बनाए तीनों कृषि कानूनों पर रोक लगा दी है। आगे क्या कोर्ट के माध्यम से कोई हल निकल सकेगा? या फिर आंदोलन यूं ही चलता रहेगा। इन्हीं तमाम सवालों का पिटारा लेकर डॉ. रमेश ठाकुर ने सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी दुबे से कानूनी पहलूओं पर विस्तृत बातचीत की। पेश बातचीत के मुख्य हिस्से।
सवालः सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी से कुछ हल निकलेगा?
केंद्र और किसानों के बीच गतिरोध के लिए सौहार्दपूर्ण समाधान खोजने के लिए शीर्ष अदालत का हस्तक्षेप दोनों पक्षों के हित में है। सुप्रीम कोर्ट की समिति के चार सदस्य कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी और प्रमोद कुमार जोशी हैं, साथ ही शेतकरी संगठन के अनिल घनवत और भारतीय किसान यूनियन के एक गुट के नेता भूपिंदर सिंह मान हैं जिन्होंने खुद को अलग कर लिया है। समिति के सभी सदस्य विशेषज्ञ हैं और बुद्धिजीवी हैं। वह किसानों की भलाई के लिए भी काम करते आए हैं और मुझे लगता है इस मामले में भी वह निष्पक्ष जांच करेंगे, ताकि वह स्पष्ट रूप से दोनों पक्षों की चीजों को स्पष्ट कर पाएं और दोनों पक्षों से तथ्यों पर विचार करके रिपोर्ट बनाएंगे ताकि अदालत एक सौहार्दपूर्ण समाधान तक पहुंच सके।
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सवालः कानूनों के हिसाब से क्या केंद्र सरकार के बनाए कानून को न्यायालय निरस्त कर सकता है?
उत्तर- न्यायालयों के पास संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून को रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है जब तक कि उसके प्रावधान असंवैधानिक न हों। कोर्ट भारत में कानून बनाने वाली संस्था नहीं है। कानून बनाना संसद और राज्य विधानसभाओं का काम है। बहुत प्रसिद्ध निर्णय गेंदा राम बनाम एमसीडी में कहा गया है, यह शक्तियों के पृथक्करण के मूल सिद्धांत का उल्लंघन करने के लिए कहा जा सकता है जो बताता है कि कार्यकारी, विधायिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से कार्य करना चाहिए। भारतीय संविधान के तहत, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकारों की रक्षा करने और कानून की व्याख्या करने की शक्ति है। संविधान न्यायालयों को किसी कानून के निर्धारण का निर्देश देने की या रद्द करने की शक्ति नहीं देता है।
सवालः तीनों कृषि कानूनों पर लगाई सुप्रीम कोर्ट की लगाई रोक को कैसे देखते हैं आप?
उत्तर- सुप्रीम कोर्ट संविधान का संरक्षक है। मैं शीर्ष अदालत के फैसले का पूरी तरह से सम्मान करता हूं, भारत के मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबड़े ने कहा कि शीर्ष अदालत भी तीन कृषि कानूनों की स्पष्ट तस्वीर प्राप्त करने के लिए एक समिति का गठन कर रही है। तीन कृषि कानूनों की संवैधानिक वैधता के बारे में याचिकाओं का जत्था दाखिल किया गया है। अब समिति मौके पर जाएगी और किसान, प्रदर्शनकारियों के विचार प्राप्त करने की कोशिश करेगी और दोनों पक्षों की समीक्षा करेगी और उचित अनुसंधान और निष्कर्षों के बाद समिति अदालत को रिपोर्ट सौंपेगी, फिर अदालत उचित कदम उठाएगी।
सवालः कमेटी में शामिल सदस्यों के नाम पर किसान नेताओं का विरोध भी हो रहा है?
उत्तर- हां, विरोध करने वाले भ्रमित हैं, यहां तक कि समिति के सभी सदस्य बुद्धिजीवी हैं, जो सामाजिक हैं। कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी, लंबे समय से कृषि सुधारों के पैरोकार रहे हैं, इससे किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को फायदा होगा। बलबीर सिंह राजेवाल, जो पंजाब में भारतीय किसान यूनियन के अपने गुट के प्रमुख हैं, वह किसानों की वास्तविक समस्या को समझेंगे क्योंकि वह किसानों और उपभोक्ताओं के कल्याण के लिए लगातार काम कर रहे हैं, अन्य सदस्य भी अच्छी तरह से योग्य और अनुभवी हैं और उनकी नियुक्ति मुख्य नयायाधीश और भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सभी परिदृश्यों के बारे में अच्छी तरह से वाकिफ होने के बाद की गयी है, इसलिए समिति जो भी रिपोर्ट बनाएगी बिना पक्षपात और बिना किसी गतिरोध के सभी पहलुओं की निष्पक्षता से जांच करके बनाएगी।
सवालः आप क्या सोचते हैं केंद्र का निर्णय कृषि हित में है?
उत्तर- देखिये, ये मामला अब सुप्रीम कोर्ट में जा चुका है। न्यायालय का फैसला सर्वोच्च होगा। तीनों कानून के कुछ फायदे ये हैं कि किसान एक स्वतंत्र और अधिक लचीली प्रणाली की ओर बढ़ेंगे। मंडियों के भौतिक क्षेत्र के बाहर उपज बेचना किसानों के लिए एक अतिरिक्त विस्तृत चैनल होगा। नए बिल में कोई बड़ा कठोर बदलाव नहीं लाया गया है, केवल मौजूदा सिस्टम के साथ काम करने वाला एक समानांतर सिस्टम है। इन बिलों से पहले, किसान अपनी उपज पूरी दुनिया को बेच सकते हैं, लेकिन ई-एनएएम प्रणाली के माध्यम से। आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन, जो विरोध के तहत तीन बिलों में से एक है, किसानों के डर को दूर करता है कि किसानों से खरीदने वाले व्यापारियों को ऐसे स्टॉक रखने के लिए दंडित किया जाएगा जो अधिक समझा जाता है और किसानों के लिए नुकसान पहुंचाता है।
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सवालः कानून अच्छे हैं, तो फिर सरकार किसानों को समझाने में विफल क्यों हुई?
उत्तर- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 सितंबर को एक ट्वीट किया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि एमएसपी की व्यवस्था बनी रहेगी और सरकारी खरीद जारी रहेगी। वहीं कृषि मंत्री ने कहा था कि पिछली सरकारों ने वास्तव में एमएसपी के लिए एक कानून लाना अनिवार्य नहीं समझा। मौजूदा एपीएमसी प्रणाली में, किसानों को एक व्यापारी (मंडियों के माध्यम से) के लिए जाना अनिवार्य है ताकि उपभोक्ताओं और कंपनियों को अपनी उपज बेच सकें और उन्हें अपनी उपज के लिए न्यूनतम विक्रय मूल्य प्राप्त हो। यह बहुत ही पुरानी प्रणाली थी जिसने व्यापारियों और असुविधाजनक बाजारों के नेतृत्व में एक कार्टेल के उदय को प्रभावित किया है जिसके कारण किसानों को उनकी उपज के लिए एमएसपी (बहुत कम कीमत) का भुगतान किया जाता है। बावजूद इसके मुझे लगता है सरकार किसानों को कानून के फायदों के संबंध में ठीक से बता नहीं पाई। कुछ भी हो आंदोलन का हल अब निकलना चाहिए।
-जैसा डॉ. रमेश ठाकुर से सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अश्विनी दुबे ने कहा।
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