कोई आदेश या कानून किसी को देशभक्ति नहीं सिखा सकती है

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यह आलेख देश के वरिष्ठ पत्रकार स्वर्गीय कुलदीप नैय्यर ने प्रभासाक्षी के लिए लिखा था। चूँकि यह लेख आज भी पूर्ण रूप से सामयिक है इसलिए गणतंत्र दिवस के अवसर पर इसे पुनः प्रकाशित कर रहे हैं

हाल ही में, राष्ट्रगान बजते समय लोगों का खड़ा होना अनिवार्य कर दिया गया। फिर भी, लोग आदेश का पालन नहीं करते और अंदर से बंद होने पर भी सिनेमा हॉल का दरवाजा खोल देते हैं। वे सोचते हैं कि यह एक सरकारी आदेश है जिसका उन्हें पालन नहीं करना है। लगता है कि वे यह नहीं समझते कि राष्ट्रगान और गणतंत्र का झंडा इसलिए पवित्र हैं कि वे राष्ट्र के सम्मान और उसकी प्रभुसत्ता का प्रतिनिधित्व करते हैं। लोगों को खुद यह समझना होगा कि कोई आदेश या कानून देशभक्ति नहीं सिखा सकती है। यह उनकी खुद की भावना है जिसका उस समय जोर से इजहार होना चाहिए, जब राष्ट्र के लाभ और व्यक्तिगत या दलगत लाभ के बीच में चुनाव करना हो।

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गांधी जी खुद लोगों की भावना के बारे में जागरूक थे। जैसा कि मैंने पहले लिखा है उन्होंने प्रार्थना सभा का आयोजन बंद कर दिया था जब किसी ने कुरान के पाठ पर एतराज किया। उन्होंने इसे फिर से इसे तभी शुरू किया जब संबंधित आदमी ने अपना एतराज वापस ले लिया। लेकिन गांधी जी कलकत्ता में ज्यादा सफल रहे जब मुख्यमंत्री हुसैन शहीद सुहरावर्दी ने कांग्रेस के सत्याग्रह के विरोध में मुसलिम लीग के एक्शन प्लान की घोषणा कर दी थी। मौन सहमति के जरिए एक्शन प्लान हिंदुओं और सिखों की सामूहिक हत्या में बदल गया। बदले की कार्रवाई हुई और हजारों लोगों की जान गई। गांधी जी कलकत्ता गए और लोगों से हथियार सौंपने के लिए कहा। यहां तक कि सबसे ज्यादा प्रभावित लोगों ने भी 24 घंटे के भीतर हथियार का समर्पण किया। लार्ड माउंटबेटन, जो उस समय गवर्नर जनरल थे ने टिप्पणी की, सशस्त्र सेना गैर−जरूरी रही और अकेले आदमी वाली सेना ने काम पूरा कर दिया।

भारत ने तब से लंबा रास्ता तय किया है। पहले की तुलना में अनेकतावाद में उसकी आस्था कम है। मजहब के आधार पर खींची गई सीमा ने सेकुलरिज्म को कमजोर कर दिया है। लेकिन गलती तो कांग्रेस की है, मुसलिम लीग की नहीं, जिसने पहले दिन से ही मुसलिम बहुल राज्यों को मिला कर अलग, आजाद इस्लामी राष्ट्र बनाने की मांग की थी। कांग्रेस जो सेकुलर विचारों का प्रतिनिधित्व करती है, खुद ही अपने आदर्शों से हट रही है। 

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मौलाना अबुल कलाम आजाद एक कद्दावर मुसलमान नेता, ने मुसलमानों को चेतावनी दी थी वे अविभाजित भारत में सुरक्षित नहीं महसूस करते हैं जहां कम संख्या होने पर भी वे आजादी के बाद भारत की संपदा में बराबर हिस्सेदार हैं। लेकिन मुसलमान घोड़े पर सवार थे और वे कीट खाए पाकिस्तान भी लेने को तैयार थे। उन्हें एक ऐसा देश विरासत में मिला है जो निश्चित रूप से मुसलमानों और दूसरे लोगों के बीच भेदभाव करने वाला था। वास्तव में, कितनी भी संख्या हो, उनकी दशा शोचनीय है। जबरन धर्म परिवर्तन हो रहे हैं और गैर−मुसलमान मुसलिम लड़कों से ब्याह कर रही हैं। मौलाना की चेतावनी सच हो गई है। करीब 18 करोड़ मुसलमानों की देश के शासन में नहीं के बराबर भागीदारी है। उनकी हालत, जैसा भारतीय मुसलमानों के बारे में सच्चर रिपोर्ट कहती है, दलितों से भी खराब है। राजनीतिक रूप से उनका महत्व खत्म हो गया है। वे अपनी बात भी जोर देकर नहीं कहते कि कहीं उग्र हिंदुवाद और भी जहरीला रूप न ले ले। लेकिन मुसलमान भी अपने विचार कठोर बना रहे हैं। 

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कश्मीर के लोग पहले से ऐसा बर्ताव कर रहे हैं मानो वे आजाद हों। विलय के समय, लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला ने महराजा का इसलिए समर्थन किया कि वह कबाइलियों, जिसमें नियमित फौज भी शामिल थी, से लड़ रहे थे। यह अलग कहानी है कि उन्होंने नई दिल्ली का विरोध किया जब वह तीन विषयों, रक्षा, विदेशी मामले और संचार से आगे चली गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो, कथित रूप से हिंदुओं के नेता हैं। वे यह आसानी से भूल जाते हैं कि वह भारत के प्रधानमंत्री हैं। वे उसके विचारों का समर्थन करते हैं या नहीं− भारत में कोई करे या नहीं, यह प्रासंगिक नहीं है क्योंकि वह 543 लोक सभा सीटों में से 282 सीटें जीत कर आए हैं।

-स्वर्गीय कुलदीप नैय्यर

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