अब आत्महत्या का प्रयास करने वाला अपराधी नहीं, मानसिक रोगी

सुधीर कुमार । Mar 29 2017 11:48AM

अब आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्ति को अपराधी नहीं, अपितु मानसिक रोगी समझा जाएगा। इतना ही नहीं, ऐसे मनोरोगियों के उपचार के लिए सभी तरह की चिकित्सीय सुविधाएँ भी सरकार द्वारा मुहैया करायी जाएंगी।

आत्‍महत्‍या के प्रयास को अपराध के दायरे से बाहर रखने के इरादे से केंद्र की मौजूदा राजग सरकार द्वारा प्रस्तावित 'मानसिक स्वास्थ्य देख-रेख विधेयक'- 2016 को लोकसभा ने सोमवार को ध्वनिमत से मंजूरी दे दी। गौरतलब है कि इस विधेयक को राज्यसभा द्वारा पूर्व में ही, 8 अगस्त 2016 को स्वीकृति मिल चुकी है। राष्‍ट्रपति की संस्‍तुति मिलने के बाद यह विधेयक, मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य कानून, 1987 का स्‍थान लेगा। विधेयक पर चर्चा का उत्तर देते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने कहा कि 1987 का पुराना कानून संस्था आधारित था, लेकिन नये बिल में मरीज को और समाज को उसके इलाज के अधिकार प्रदान किए गए हैं और यह मरीज केंद्रित है। विधेयक की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसके कानून बन जाने के बाद, आत्महत्या के प्रयास को अपराध की श्रेणी से बाहर माना जाएगा और यह केवल मानसिक रोग की श्रेणी में आएगा। दरअसल, भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के तहत देश में आत्‍महत्‍या का प्रयास करना अपराध माना जाता रहा है, जिसके एवज में आरोपी के लिए एक साल तक की कैद और जुर्माने का प्रावधान भी है। लेकिन, अब आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्ति को अपराधी नहीं, अपितु मानसिक रोगी समझा जाएगा। इतना ही नहीं, ऐसे मनोरोगियों के उपचार के लिए सभी तरह की चिकित्सीय सुविधाएँ भी सरकार द्वारा मुहैया करायी जाएंगी।

अंग्रेजी औपनिवेशिक काल से जुड़े डेढ़ सदी पुराने अलोकप्रिय कानून को उन्मूलित करने की दिशा में पहली बार किसी सरकार ने साहसी कदम उठाया है। सरकार के इस नूतन कानून को बनवाने में विधि आयोग की बड़ी भूमिका रही है। विधि आयोग 1971 से 2008 के दौरान अपनी कई रिपोर्टों में सरकार से आत्महत्या के प्रयास को अपराध की श्रेणी से हटाने की सिफारिश बार-बार करता रहा है। हालाँकि, 1978 में एक अवसर ऐसा भी आया, जब इस धारा को उन्मूलित करने के लिए राज्‍यसभा में एक विधेयक पारित कर दिया गया, लेकिन तब लोकसभा के भंग हो जाने के कारण दूसरे सदन से इसे पारित नहीं कराया जा सका। उसके ठीक तीन दशक उपरांत, विधि आयोग की 17 अक्‍तूबर 2008 को आयी 210वीं रिपोर्ट में भारतीय दंड संहिता की धारा 309 को खत्‍म करने के लिये सरकार से उचित कदम उठाने की सिफारिश की गयी थी। आयोग ने, धारा 309 के बारे में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि आत्‍महत्‍या के प्रयास को मानसिक बीमारी के रूप में देखते हुए, इसके लिये सज़ा देने की बजाए इसके उपचार पर ध्‍यान केन्द्रित करना चाहिए।

उसके बाद भी, कई स्तरों से पुराने कानून को हटाने की मांग उठती रही। ऐसा ही एक सुझाव, मार्च 2011 में उच्‍चतम न्‍यायालय ने दिया था, जिसमें आत्‍महत्‍या के प्रयास को अपराध के दायरे से हटाने और इसके लिये भारतीय दंड संहिता में प्रदत्त सजा के प्रावधान को खत्‍म करने की बात कही गई थी। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि यूरोप और उत्तरी अमरीका के देशों में इसे अपराध के दायरे से बाहर रखने संबंधी कानून प्रचलित हैं। आयोग ने अनेक तथ्यों के माध्यम से आत्‍महत्‍या के प्रयास से संबंधित धारा 309 को खत्‍म करने के लिये सरकार से ठोस कदम उठाने की सिफारिश की थी। आयोग के मुताबिक पाकिस्‍तान, बांग्‍लादेश, मलेशिया, सिंगापुर और भारत ही ऐसे चुनिंदा देश हैं, जहां इस तरह का एक अवांछित कानूनी प्रावधान अभी भी है।

विधि आयोग की सिफारिशों को ही आधार बनाकर केंद्र सरकार ने धारा 309 के उन्मूलन के संबंध में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों से उनकी राय मांगी थी। जिसमें, देश के 18 राज्यों और 4 केंद्र शासित प्रदेशों की सकारात्मक सहमति मिलने के बाद मौजूदा सरकार ने गत वर्ष के अगस्त माह में ऐसा ही एक विधेयक राज्यसभा में प्रस्तुत किया था, जो अब लोकसभा से भी पारित कर दिये जाने के बाद, कानून बनने की दहलीज पर खड़ा है। इस कानून में मानसिक रोग से पीड़ित लोगों के अधिकारों पर जोर दिया गया है।

गौरतलब है कि देश के करीब 6.7 प्रतिशत लोग किसी न किसी प्रकार की मानसिक बीमारी से ग्रसित हैं, जबकि एक से दो प्रतिशत लोग गंभीर रूप से बीमार हैं। मानसिक असंतुलन के कारण, ऐसे लोग अक्सर आत्महत्या का प्रयास करते रहते हैं। विधेयक में मानसिक रूग्‍णता से ग्रस्‍त व्‍यक्तियों के उपचार, उनकी देखरेख और उनका उपचार करने वाले केन्‍द्रों के बारे में भी व्‍यापक प्रावधान किये गये हैं। इस विधेयक के बाद राज्य मानसिक उपचार से जुड़े कार्यक्रमों को लागू करने के लिए बाध्य होंगे। जबकि, मनोरोगियों को इलाज का अधिकार मिलेगा। सरकार का उक्त निर्णय, आत्महत्या की प्रवृत्ति पर कितना अंकुश लगा पाएगा, यह आने वाला समय ही बताएगा लेकिन यह कानून इस मामले में उपयोगी साबित हो सकता है कि एक बार आत्महत्या के प्रयास में असफल रहने वाला व्यक्ति कानून के पूर्व के प्रावधानों के तहत एक साल का सजा प्राप्त नहीं करेगा, जिसका सुफल यह होगा कि बिना किसी सरकारी दंड के उसे जिंदगी गुलजार करने का मौका मिल जाएगा।

इससे पहले तक तो यही होता था कि अगर आप आत्महत्या के प्रयास में असफल होते हैं तो आपको मौत तो नहीं, लेकिन भारतीय दंड विधान की धारा 309 के तहत एक साल जेल की सजा मिलती थी, जिस कारण व्यक्ति के आत्महत्या की कोशिश से पूर्व तथा उसके बाद की दोनों स्थितियां तकलीफदेह होती थीं। वर्तमान समय में, आत्महत्या की प्रवृत्ति ना सिर्फ भारत, बल्कि विश्व के अनेक देशों में गंभीर समस्या बन चुकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो प्रति 40 सेकेंड में विश्व में एक व्यक्ति आत्महत्या करता है, जबकि प्रति वर्ष करीबन 8 लाख लोग आत्महत्या करते हैं। भारत में भी आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। आत्महत्या के मामले में हमारा देश विश्व के शीर्ष दस देशों में शामिल है। भारतीय नागरिकों में आत्महत्या की दर की बात की जाए तो प्रति एक लाख जनसंख्या में से 20 लोग आत्महत्या कर अपने जीवन का असमय त्याग कर देते हैं। सवाल यह है कि कोई व्यक्ति आत्महत्या का फैसला क्यों करता है? क्यों एक व्यक्ति अपने जीवन को असमय मौत के घाट उतार देता है? यह ना सिर्फ प्रशासन, बल्कि समाज के लिए भी चिंता तथा चिंतन का विषय बना हुआ है।

दरअसल, बदलते सामाजिक परिवेश में समाज के हर वर्ग के लोगों में हताशा के भाव देखने को मिल रहे हैं। हताशा, तनाव व अवसाद का यही भाव व्यक्ति को आत्महत्या करने की ओर ढकेलता है। दुखद यह है कि देश में प्रतिवर्ष लाखों लोग अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक अथवा सामाजिक समस्याओं से तंग आकर आत्महत्या कर निरुद्देश्य अपनी इहलीला समाप्त कर देते हैं। नेशनल क्राइम रिकोर्ड ब्यूरो की मानें तो सिर्फ 2014 में देश में 1,36,666 लोगों ने आत्महत्या कर ली। कृषक, मजदूर, छात्र व समाज के प्रत्येक वर्ग में यह प्रवृत्ति आमतौर पर देखने को मिल रही है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है।

दरअसल, पारिवारिक तथा सामाजिक जिम्मेदारियों से पिंड छुड़ाने का एक नायाब तरीका आत्महत्या करने के रूप में निकल आया है। इस तरह, समाज में रहने के बावजूद लोग सामाजिक नहीं हो पा रहे हैं। यह विडंबनात्मक स्थिति हमारे समाज तथा सरकार के लिए चिंता का विषय बना हुआ है।

आधुनिकता के पथ पर निरंतर अग्रसर भारतीय समाज की यह बड़ी क्षति है कि यहां अशिक्षित ही नहीं, बल्कि शिक्षा प्राप्त लोग भी बड़े पैमाने पर आत्महत्या कर अपने अनमोल जीवन को बेबसी की भेंट चढ़ा रहे हैं। नतीजा यह कि कार्यशील जनसंख्या के अंतर्गत लोगों की यह प्रवृत्ति राष्ट्रीय विकास के मार्ग में बाधक बन रही है। अपनी उत्पादकता, जोश व जज्बे को देशहित में लगाने की बजाय कुछ लोग कायरता का मार्ग अख्तियार कर समाज में गलत संदेश का दुष्प्रचार कर रहे हैं।

संसाधनों में श्रेष्ठ, मानव संसाधन के इस तरह असमय नाश होने से देश में कई सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का सृजन हो रहा है। दूसरी तरफ, किसी व्यक्ति के ऐसे कृत्य से संबद्ध परिवार व समाज की मनोदशा पर इसका बुरा असर पड़ता है। आत्महत्या की यह प्रवृत्ति भारतीय संस्कृति व परंपरा के साथ कुठाराघात है। भारतीय संविधान, अनुच्छेद 21 के अंतर्गत देश के समस्त नागरिकों को जीवन की सुरक्षा का अधिकार देता है। यही नहीं, राज्य को इसके लिए अनुकूल दशाओं के निर्माण के आदेश भी हैं। अगर, किसी व्यक्ति की भूख से मौत हो जाती है तो राज्य सरकार की कार्यशैली पर प्रश्नचिह्न खड़े होते हैं। दूसरी तरफ, सर्वोच्च न्यायालय इच्छामृत्यु की इजाजत नहीं देता। इतनी व्यवस्था होने के बाद भी लोग अपने जीवन का मोल नहीं समझ पा रहे हैं।

पशु भी प्रताड़ित होते हैं। निर्दोष पशुओं पर तो मनुष्यों द्वारा जुल्म की इंतहा कर दी जाती हैं। पर, कभी देखा है उसे आत्महत्या करते? फिर, हमारी स्थिति पशुओं से उच्च व श्रेष्ठ होने की बजाय कायरतापूर्ण कैसे हो गयी? परेशानी किसे नहीं है? जीवन तो दुख-सुख का संगम है। दरअसल, लोगों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार और विश्वास में कमी आने के कारण हमें अपनी मानसिक या शारीरिक समस्याओं को दूसरे के समक्ष रखने में झिझक होने लगी है। परिणामस्वरूप, मन में कुंठा का भाव उठने लगता है और सारी परेशानियों का जड़ हम स्वयं को मानकर एकमात्र उपाय के लिए आत्महत्या की ओर देखते हैं।

आत्महत्या के पीछे कारण चाहे जो भी हों, लेकिन इसकी बढ़ती प्रवृत्ति से बहुमूल्य मानव संसाधन का राष्ट्रीय स्तर पर नुकसान हो रहा है, जो चिंता का विषय है। भारत युवाओं का देश है। यदि यही प्रवृत्ति बरकरार रही, तो भविष्य में इसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ सकता है। आत्मजागरूकता, समझदारी और सतर्कता इसका रामबाण इलाज है। लोगों को, मानव जीवन के औचित्य को समझते हुए इसकी सार्थकता सिद्ध करने पर जोर देना चाहिए।

सुधीर कुमार

(लेखक, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययनरत हैं)

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