''एक भाषा एक देश'' का विरोध करने वाले क्षेत्रीय हितों से ऊपर उठकर नहीं सोचते

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ललित गर्ग । Sep 17 2019 10:04AM

हिंदी को दबाने की नहीं, ऊपर उठाने की आवश्यकता है। राजनीतिक स्वार्थों के कारण आज भी हिंदी भाषा को वह स्थान प्राप्त नहीं है, जो होना चाहिए। राष्ट्र भाषा सम्पूर्ण देश में सांस्कृतिक और भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रमुख साधन है।

हिंदी दिवस पर केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने सशक्त भारत को निर्मित करने के लिये ‘एक भाषा-एक देश’ की वकालत करते हुए कहा कि पूरे देश की एक भाषा होना बेहद जरूरी है जिससे दुनिया में भारत की पहचान बने। आज देश को एकता की डोर में बांधने का काम यदि कोई भाषा कर सकती है तो वह सर्वाधिक बोली जाने वाली हिंदी भाषा ही है। लेकिन आज हमारे देश में दिन-प्रतिदिन हिंदी की उपेक्षा होती जा रही है, इन जटिल एवं उपेक्षापूर्ण स्थितियों में हिन्दी को राजभाषा एवं राष्ट्रीयता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठापित करने का साहसिक कदम यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं गृहमंत्री अमित शाह ने अपने शासनकाल में नहीं उठाया तो हिंदी पर अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ता जायेगा और यदि ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं है जब हिंदी हमारे अपने ही देश में विलुप्तता की कगार पर पहुंच जायेगी।

हिंदी को दबाने की नहीं, ऊपर उठाने की आवश्यकता है। राजनीतिक स्वार्थों के कारण आज भी हिंदी भाषा को वह स्थान प्राप्त नहीं है, जो होना चाहिए। राष्ट्र भाषा सम्पूर्ण देश में सांस्कृतिक और भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रमुख साधन है। जैसा कि शाह ने भी स्वीकार किया है कि जो देश अपनी भाषा खो देता है, वह अपनी संस्कृति को संरक्षित नहीं रख सकता। प्रश्न है कि हम क्यों अपनी भाषा को विलुप्त करने पर तुले हैं, इस पर हमें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। दुनिया में कई ऐसे देश हैं जिनकी भाषाएं विलुप्त हो गई हैं। शाह ने सही कहा कि जो देश अपनी भाषा छोड़ता है वह अपना अस्तित्व भी खो देता है।

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14 सितबंर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी। हालांकि जब राजभाषा के रूप में इसे चुना गया और लागू किया गया तो गैर-हिंदी भाषी राज्य के लोग इसका विरोध करने लगे और अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा देना पड़ा। इस कारण अंग्रेजी भाषा का प्रभाव बढ़ने लगा और हिंदी उपेक्षित होती गयी। कांग्रेस सरकारों ने हिन्दी की उपेक्षा की है, जबकि आजादी से पहले जो भी आंदोलन हुए, उनसे हिंदी भाषा को खासा प्रोत्साहन मिला था। महात्मा गांधी कहते थे कि राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है। लेकिन प्रश्न है कि आजादी के सात दशकों के बाद भी हिंदी बेगानी क्यों है, उपेक्षित क्यों है?

हिंदी के प्रति मोदी एवं शाह के संकल्प से एक नयी उम्मीद जगी है, अब लगने लगा है कि साहसिक एवं बुनियादी निर्णय लेने वाली मोदी सरकार हिंदी को लेकर अब तक जो नहीं हुआ, उसे अब करके दिखा देगी। क्योंकि हिंदी भाषा का मामला भावुकता का नहीं, ठोस यथार्थ का है, राष्ट्रीयता का है। हिंदी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही साथ हमारी राजभाषा भी है, यह हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है, यह हमारी राष्ट्रीयता एवं संस्कृति की भी प्रतीक है। चीनी भाषा के बाद हिंदी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। भारत और अन्य देशों में 70 करोड़ से अधिक लोग हिंदी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। यह कैसी विडम्बना है कि जिस भाषा को कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे भारत में समझा जाता हो, उसकी घोर उपेक्षा हो रही है, इन त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति को नरेन्द्र मोदी सरकार कुछ ठोस संकल्पों एवं अनूठे प्रयोगों से दूर करने के लिये प्रतिबद्ध हो, हिंदी को मूल्यवान अधिमान दिया जाये। इसी से देश का गौरव बढ़ेगा, ऐसा हुआ तो एक स्वर्णिम इतिहास का सृजन कहा जायेगा। अब ऐसा होने की उम्मीद जगी है जो नये भारत के निर्माण का द्योतक है। नया एवं सशक्त भारत हिंदी के बिना संभव नहीं है। जब तक समूचा राष्ट्र हिंदी का उपयोग पूरी तरह से नहीं करेगा तब तक हिंदी भाषा का विकास नहीं हो सकता है, उसे राष्ट्रीय गौरव प्राप्त नहीं हो सकेगा। सभी सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी का उपयोग करने की आवश्यकता है। प्रश्न है कि आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी हम क्यों विदेशी भाषा से चिपके हैं, अपने ही देश में हिंदी इतनी उपेक्षित क्यों है कि उसे अपनाने की सलाह दी जाये। हिंदी की उपेक्षा एक ऐसा प्रदूषण है, एक ऐसा अंधेरा है जिससे छांटने के लिये ईमानदार प्रयत्न करने होंगे। क्योंकि हिंदी ही भारत को सामाजिक-राजनीतिक-भौगोलिक और भाषायिक दृष्टि से जोड़ने वाली भाषा है।

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कुछ राजनीतिज्ञ अपना उल्लू सीधा करने के लिये भाषायी विवाद खड़े करते रहे हैं और वर्तमान में भी कर रहे हैं। यह देश के साथ मजाक है। जब तक राष्ट्र के लिये निजी-स्वार्थ को विसर्जित करने की भावना पुष्ट नहीं होगी, राष्ट्रीय एकता एवं सशक्त भारत का नारा सार्थक नहीं होगा। हिंदी को सम्मान एवं सुदृढ़ता दिलाने के लिये केन्द्र सरकार के साथ-साथ प्रांतों की सरकारों को संकल्पित होना ही होगा। नरेन्द्र मोदी ने विदेशों में हिंदी की प्रतिष्ठा के अनेक प्रयास किये हैं, लेकिन उनके शासन में देश में यदि हिंदी को राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित नहीं किया जा सका तो भविष्य में इसकी उपेक्षा के बादल घनघोर ही होंगे, यह एक दिवास्वप्न बनकर रह जायेगा। डॉ. राम मनोहर लोहिया कहते थे कि हिंदी के बिना लोकराज संभव नहीं है। शासन की भाषा अगर जनता न समझे तो उस लोकतंत्र का कोई फायदा नहीं। लोकतंत्र की सफलता के लिये भी हिंदी को राजभाषा एवं जनभाषा बनाना जरूरी है।

गत दिनों उपराष्ट्रपति वैंकय्या नायडू ने हिंदी के बारे में ऐसी बात कही थी, जिसे कहने की हिम्मत महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डॉ. राममनोहर लोहिया में ही थी। उन्होंने कहा कि ‘अंग्रेजी एक भयंकर बीमारी है, जिसे अंग्रेज छोड़ गए हैं।’’ अंग्रेजी का स्थान हिंदी को मिलना चाहिए। मोदी, शाह एवं वैंकय्या नायडू का हिंदी को लेकर जो दर्द एवं संवेदना है, वही स्थिति सरकार से जुड़े हर व्यक्ति के साथ-साथ जन-जन की होनी चाहिए। हमें लोगों को यह भी समझाना होगा कि कोई भी देश बिना अपनी राजभाषा के ज्ञान के तरक्की नहीं कर सकता है। लोगों को समझना होगा कि अंग्रेजी बस एक विदेशी भाषा है ना कि तरक्की पर्याय, इसके विपरीत हिंदी हमारी अपनी भाषा है जिसे हम और भी सरलता से समझ सकते हैं। हम अपने इन छोटे-छोटे प्रयासों द्वारा समाज में बड़े परिवर्तन ला सकते हैं, जो आने वाले समय में हिंदी के विकास में अपना महत्वपूर्ण स्थान दे सकता है। वर्तमान समय को देखते हुए हम यही कह सकते हैं कि मात्र कुछ लोगों के प्रयास से हिंदी के ऊपर मंडराता यह संकट नहीं दूर किया जा सकता है। इसके लिए हमें सम्मिलित प्रयास करने की आवश्यकता है।

आज हिंदी भाषा को भारत के जन-जन की भाषा बनाने के लिये उदार दृष्टि से चिन्तन किये जाने की अपेक्षा है। क्योंकि यदि देश की एक सर्वमान्य भाषा होती है तो हर प्रांत के व्यक्ति का दूसरे प्रांत के व्यक्ति के साथ सम्पर्क जुड़ सकता है, विकास के रास्ते खुल सकते हैं। देश की एकता एवं संप्रभु अखण्डता के लिये राष्ट्र में एक भाषा का होना अत्यन्त आवश्यक है। अतीत के विपरीत लोग अब हिंदी विरोधी के इरादों और तमिल-कन्नड़ की सुरक्षा के नाम पर की जा रही राजनीति को समझते हैं। दरअसल बाजार और रोजगार की बड़ी संभावनाओं के बीच हिंदी विरोध की राजनीति को अब उतना महत्व नहीं मिलता, क्योंकि लोग हिंदी की ताकत को समझते हैं। पहले की तरह उन्हें हिंदी विरोध के नाम पर बरगलाया नहीं जा सकता। निश्चित ही मोदी-शाह के संकल्प से हिंदी के अभ्युदय का नया सूर्योदय होता दिखाई दे रहा है।

-ललित गर्ग

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