पाखण्डी बाबाओं की जमात को बढ़ने देने वाले भी कम दोषी नहीं

Pakhandi Baba does something else in the name of religion

अहम सवाल यह है कि इन पाखण्डी बाबाओं की बढ़ती जमात को नंगा कर इन्हें हतोत्साहित करने की जिम्मेदारी जिन कंधों पर रही है उन्होंने अपने दायित्वों का निर्वहन क्यों नहीं किया?

कभी भारत अपनी महान आध्यात्मिक शक्तियों के चलते ही विश्व गुरु कहलाता था। दुनिया के सभी धर्मों/पंथों का जनक भारत का वैदिक धर्म ही रहा है। इतिहास गवाह है कि दुनिया के जितने महान पैगम्बर/धर्मगुरु चाहे वो ईसा मसीह हो और चाहे मोहम्मद साहब सभी का भारत के अध्यात्म से गहरा जुड़ाव रहा है। भारत के अध्यात्म के बल पर ही नामालूम कितने ऋषियों/मुनियों, संतों, महात्माओं ने दुनिया को ईश्वर से साक्षात्कार कराने व सच्चा जीवन जीने का मार्ग बताया/दिखाया। 

भारत के महान सम्राटों/राजाओं की सत्ता चूंकि धर्म केन्द्रित हुआ करती थी। अतएव प्रजा सदैव सुसम्पन्न व खुशहाल रहती थी। शने:-शनै: तपस्वी ऋषियों/मुनियों, सच्चे संतों, महात्माओं का ज्यों-ज्यों लोप होना शुरू हुआ त्यों-त्यों पाखण्डी साधू संतों का उदय व प्रभाव बढ़ना शुरू हो गया। पहले राजाओं/महाराजाओं फिर सरकारों ने स्वार्थवश इन्हें प्रश्रय देना शुरू कर दिया। इनकी ताकत/शोहरत में चार-चांद लगने लगे। ऐसे में आमजन का इन पर भरोसा बढ़ना कोई आश्चर्य की बात कैसे कही जा सकती है। 

वैसे मानव स्वभाव सदैव सुखी जीवन जीने के लिये लालायित रहता है। अतएव वो बेहद आसानी से संतों/महात्माओं पर अंधविश्वास करके उनके कहे पर चलने लगता है। ऐसे में उसे उस संत महात्मा की अच्छाईयां/बुराईयां जानने/समझने की जरूरत ही नहीं महसूस होती। नतीजतन वो शोषण होने पर या तो उसे भगवान का शाप मान लेता है अथवा अपनी तकदीर का लेखा। अधिसंख्य भक्तों की यही सोच भी पाखण्डियों की ताकत को बढ़ाने का काम करती है। 

विडम्बना तो यह देखिये कि ढोंगी/पाखण्डी संतों/महात्माओं का शिकार केवल गैर पढ़े लिखे अथवा कम पढ़े लिखे अंध श्रद्धालु ही नहीं होते वरन् सुसभ्य समाज के प्रतीक नेता, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, शिक्षक, पत्रकार एवं उद्योगपति तक इनके दरबारों की शोभा बढ़ाने में पीछे नहीं रहते। यह बात दीगर है कि बाबा का आशीर्वाद पाने हेतु इनकी प्राथमिकतायें कुछ और रहती हैं। अहम सवाल यह है कि इन पाखण्डी बाबाओं की बढ़ती जमात को नंगा कर इन्हें हतोत्साहित करने की जिम्मेदारी जिन कंधों पर रही है उन्होंने अपने दायित्वों का निर्वहन क्यों नहीं किया? 

देश में हिन्दु धर्म के रक्षक व सचेतक माने जाने वाले शंकराचार्यों की फौज कहां है? कदाचित इनकी शिथिलता/अकर्णमयता का नतीजा रहा कि समाज में पाखण्डी बाबाओं का जाल फैलता गया। कभी भोग से योग की संस्कृति का जन्मदाता रजनीश देश/विदेश में पूज्य बन जाता है तो कभी भोगी बाल ब्रह्मचारी का डंका बजता है। कभी बाबा धीरेन्द्र ब्रह्मचारी जैसा हथियारों का सौदागर इन्दिरा गांधी जैसी सशक्त प्रधानमंत्री का चहेता बन जाता है। कभी तांत्रिक चंद्रास्वामी जैसा बाबा नरसिम्हा राव जैसे प्रधानमंत्री का सलाहकार बन जाता है तो कभी होटल का गार्ड इच्छाधारी बाबा नागिन डांस करता है। तो कभी नौकरी छोड़ बाबा रामपाल बड़ी भीड़ को अपने इशारों पर नचाता नजर आता है तो कभी आसाराम कथावाचक बेटे सहित धर्म के नाम पर महिलाओं की इज्जत से खेलता है तो कभी हाईस्कूल फेल गुरमीत रामरहीम बनकर अय्याशी का अड्डा चलाता है और फिर धर्म भीरू जनता शंकराचार्यों को छोड़ इनके पीछे होती चली जाती है। नतीजा सामने है। 

कहां है महान धर्म सुधारक महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज के अलम्बरदार। यदि इन लोगों ने भी कभी पाखण्डी बाबाओं के विरूद्ध आंदोन चलाया होता तो शायद तस्वीर इतनी घिनौनी न हो पाती। सरकारों व सरकारों के उन नुमाइंदों ने यदि राज धर्म का यथेष्ट पालन किया होता तो न तो पाखण्डियों को फलने फलने का मौका मिलता और न ही लोगों की जानें जातीं व अरबों की सम्पत्तियां अराजकता की भेंट चढ़तीं।

देश की धर्मभीरू जनता यदि कम से कम कर्मयोगी कृष्ण के महान संदेश 'कर्मण्ये वा धिकारस्ते मां फलेषु कदाचन' के उस महान संदेश का ही पालन करे तो उसे अनेक कष्टों से छु टकारा मिलना तय है। वैसे भी उसे याद रखना चाहिये कि कर्म फल ही मनुष्य को धन-धान्य पूर्ण, यशस्वी व पूज्य बना सकता है। कोई साधू-संत, धर्म-सम्प्रदाय नहीं। धर्म का अर्थ भी यही है कि हम अपने कर्तव्यों का पूरी ईमानदारी से पालन करें।

-शिव शरण त्रिपाठी

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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