क्या संसदीय प्रणाली की मजबूती के लिए सचमुच जरूरी हैं विधान परिषदें

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प्रत्यक्ष चुनाव में जनता द्वारा नकार दिए गये लोगों को विधान परिषद के रास्ते मंत्रिमंडल में शामिल किया जाता रहा है, जिससे लोगों में विधान परिषद को लेकर अच्छी राय नहीं बन रही है। विधान परिषद के एक सदस्य पर सालाना करीब 50 लाख रुपये खर्च किए जाते हैं।

विधान परिषदों की प्रासंगिकता को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ी हुई है। गत दिनों आंध्र प्रदेश विधानसभा ने वहां की विधान परिषद को भंग करने का प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार को संसद से पास करवाने के लिये भेज दिया था। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी का कहना है चाहे कितना ही समय लग जाए वह विधान परिषद को भंग करा कर ही मानेंगे। दरअसल आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी राज्य में तीन राजधानियां बनाना चाहते हैं। इस बाबत विधान परिषद में जब विधेयक लाया गया तो वहां पर तेलुगू देशम पार्टी का बहुमत होने के कारण उस विधेयक को सलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया गया। जिससे मुख्यमंत्री की यह महत्वाकांक्षी योजना लटक गई। इससे मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी इतने नाराज हुए कि उन्होंने तुरंत ही विधान परिषद भंग करने का फैसला कर लिया था।

आंध्र प्रदेश विधान परिषद में कुल 58 सदस्य हैं। जिनमें से मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के 9 व मुख्य विरोधी तेलुगू देशम पार्टी के 26 सदस्य हैं। 20 सदस्यों में से नामांकित 8, भाजपा 3, निर्दलिय 3, पीडीएफ के 5 व चार स्थान रिक्त हैं। विधान परिषद में तेलुगू देशम पार्टी का बहुमत होने के कारण मुख्यमंत्री के महत्वकांक्षी दोनों बिल आंध्र प्रदेश विकेंद्रीकरण और सभी क्षेत्रों के समावेशी विकास विधेयक 2020 और आंध्र प्रदेश कैपिटल रीजनल डेवलपमेंट अथॉरिटी विधेयक को सिलेक्ट कमिटी को भेज कर एक तरह से लटका दिया गया। अपने दोनों महत्वपूर्ण विधेयक लटक जाने से मुख्यमंत्री खासे नाराज हो गये व उन्होंने बाधा बन रही विधान परिषद को ही भंग करने का फैसला करके आगे का रास्ता भी साफ कर दिया।

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आंध्र प्रदेश की तरह ही उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र विधान परिषद में भी सत्तारूढ़ दल के सदस्यों की संख्या कम होने से वहां भी अक्सर टकराव की स्थिति देखी जाती है। जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन एक्ट 2019 के तहत जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा समाप्त होने के साथ ही वहां की विधान परिषद का अस्तित्व भी समाप्त हो गया था। उसके बाद देश में अब आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार, कर्नाटक, महाराष्ट्र व उत्तर प्रदेश सहित कुल 6 प्रदेशों में विधान परिषद कार्यरत हैं। इन 6 राज्यों की विधान परिषदों में कुल 426 सदस्य हैं जिनमें से 367 सदस्यों का विभिन्न तरीकों से चुनाव किया जाता है तथा 59 सदस्यों का वहां के राज्यपालों द्वारा राज्य सरकार की सिफारिश पर मनोनीत किया जाता है।

देश के इन 6 राज्यों के अलावा राजस्थान, असम, ओडिशा में भी विधान परिषद के गठन को संसद ने मंजूरी प्रदान कर दी है। शीघ्र ही इन तीन प्रदेशों में भी विधान परिषदों का गठन किया जाएगा। पूर्व में तमिलनाडु में 1950 से 1986 तक 78 सदस्यीय विधान परिषद कार्यरत रह चुकी थी। वहीं पश्चिम बंगाल में 1952 से 1969 तक विधान परिषद थी जिसके 98 सदस्य थे। आंध्र प्रदेश में भी पूर्व में 1958 से 1985 तक विधान परिषद थी जिसे एन.टी. रामा राव ने मुख्यमंत्री रहते जगनमोहन की तरह ही समाप्त करवा दिया था। फरवरी 2007 में कांग्रेस शासन के दौरान फिर से आंध्र प्रदेश में विधान परिषद का गठन हुआ था।

विधान परिषद के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है तथा प्रत्येक 2 साल पर विधान परिषद के एक तिहाई सदस्य बदल जाते हैं। विधान परिषद में 40 से कम व उस राज्य की विधानसभा के एक तिहाई से अधिक सदस्य नहीं हो सकते हैं। विधान परिषद के सदस्यों को भी वह सभी सुविधाएं मिलती है जो एक निर्वाचित विधानसभा के सदस्य को मिलती है। राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को विधान परिषद से भी पारित करवाना पड़ता है। आंध्र प्रदेश में विधानसभा से पास प्रस्ताव विधेयक विधान परिषद में अटक जाने से ही नाराज होकर मुख्यमंत्री ने वहां विधान परिषद भंग करने का फैसला किया है।

हालांकि राजस्थान, असम, ओडिशा की राज्य सरकारें विधान परिषद का गठन करने जा रही हैं। वहीं देश भर में विधान परिषद के औचित्य व उसकी उपयोगिता को लेकर समय-समय पर विरोध के स्वर उठते रहे हैं। प्रत्यक्ष चुनाव में जनता द्वारा नकार दिए गये लोगों को विधान परिषद के रास्ते मंत्रिमंडल में शामिल किया जाता रहा है। जिससे देश के लोगों में विधान परिषद को लेकर अच्छी राय नहीं बन रही है। बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार तो विधानसभा का चुनाव लड़ते ही नहीं हैं। विधान परिषद के सदस्य के तौर पर ही वो मुख्यमंत्री बने हुए हैं। वहां के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी विधान परिषद के सदस्य हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य व डॉ. दिनेश शर्मा भी विधान परिषद के सदस्य हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे अभी किसी सदन के सदस्य नहीं हैं लेकिन 6 माह में उन्हें किसी भी सदन का सदस्य बनना जरूरी होगा इसलिए वह भी शॉर्टकट रास्ता अपनाते हुये विधान परिषद के माध्यम से ही विधायक बनेंगे।

विधान परिषद के एक सदस्य पर सालाना करीब 50 लाख रुपये खर्च किए जाते हैं। इस तरह देश में कुल 426 विधान परिषद सदस्यों पर सालाना 200 करोड़ रुपए से अधिक की राशि खर्च होती है। इसके अलावा कार्यकाल पूरा करने के बाद उनको आजीवन पेंशन, मुफ्त चिकित्सा सुविधा, मुफ्त रेल-बस यात्रा सहित अन्य कई तरह की सुविधाएं मिलती हैं। विधान परिषद के सदस्य की मृत्यु होने पर उसकी पत्नी को भी पेंशन मिलती है।

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देश में राज्य सभा ऊपरी सदन है, जिसमें पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी लोग जाते हैं। लोकसभा द्वारा पारित विधेयकों का अध्ययन कर राज्यसभा उन पर बहस कर उन्हें पास करती है। उसके बाद ही वह कानून बन पाता है। लेकिन राज्यों में ऐसी स्थिति नहीं है। राज्य में विधानसभा ही कानून बनाने के लिए पर्याप्त है क्योंकि विधानसभा द्वारा बनाया गया कोई भी कानून राज्य स्तर का ही होता है उसका पूरे देश पर प्रभाव नहीं पड़ता है। लोकसभा, राज्यसभा व विधानसभा सदस्यों की तरह विधान परिषद के सदस्यों को राष्ट्रपति चुनाव में वोट देने का अधिकार नहीं होता है।

ऐसे में देखा जाए तो राज्य में विधान परिषद की आवश्यकता नहीं है। यदि ऐसा होता तो देश में संविधान लागू करते वक्त ही सभी प्रदेशों में विधानसभा की तरह विधान परिषदों का भी गठन किया जाता। लेकिन संविधान सभा ने ऐसा कोई जरूरी प्रावधान नहीं किया। वर्तमान में विधान परिषद राजनीति में जनता द्वारा नकारे गये नेताओं को समायोजित करने का एक मंच बन चुकी है। राज्य सरकारों को चाहिए कि अनुपयोगी विधान परिषदों को भंग कर टैक्स के रूप में जनता से वसूले गए धन को प्रदेश के विकास कार्यों में लगाएं।

-रमेश सर्राफ धमोरा

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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