राजा का संन्यासी होना तो ठीक है पर संन्यासी का राजा होना गलत

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विजय कुमार । Sep 26 2019 12:29PM

धर्म का अर्थ वे नियम और परम्पराएं हैं, जिनसे समाज या उसका कोई अंग मान्यता प्राप्त करता है। इसीलिए धर्मशाला और धर्मकांटे से लेकर धर्मराज, धर्मयुद्ध, धर्मपिता और धर्मपत्नी की कल्पना भारत में ही है। क्योंकि धर्म एक सुव्यवस्था है, पूजा पद्धति नहीं।

धर्म को प्रायः मजहब या रिलीजन के समानांतर रख दिया जाता है। कुछ लोग इसे पंथ या सम्प्रदाय मान लेते हैं। जबकि धर्म का अर्थ है धारण करने वाला (धारयति इति धर्म।) धरती सबको धारण करती है, इसीलिए वह धरती, धरा या धरित्री है। धरती की ही तरह हवा, पानी, आग, आकाश, सूरज, चंद्रमा, तारे आदि के धर्म हैं। ये उसका पालन करते हैं, इसीलिए संसार सुरक्षित है। गीता में इसे ‘स्वधर्म’ कहा गया है (स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः)। माता, पिता, भाई, बहिन, गुरु, शिष्य, व्यापारी, ग्राहक, कर्मचारी, किसान, मजदूर, राजा, प्रजा, शत्रु, मित्र आदि के भी निर्धारित स्वधर्म हैं। इनका पालन हो, तो अनाचार, अत्याचार और भ्रष्टाचार का नाम न रहे; पर गड़बड़ तब होती है, जब कोई व्यक्ति या समूह स्वधर्म भूल जाता है।

धर्म का पालन अकेले नहीं हो सकता। पतिधर्म तभी सार्थक है, जब पत्नी भी हो। ऐसे ही गुरु और शिष्य, व्यापारी और ग्राहक, राजा और प्रजा, पिता और पुत्र के धर्म एक दूसरे के पूरक हैं। मां-बाप का धर्म है अपने बच्चों के रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, मनोरंजन और संस्कार आदि का प्रबंध करना। ये पाना बच्चों का हक है; पर दूसरी ओर बच्चों का भी धर्म है कि वे मां-बाप की सेवा और आज्ञा का पालन करें। अर्थात् धर्म का अर्थ वे नियम और परम्पराएं हैं, जिनसे समाज या उसका कोई अंग मान्यता प्राप्त करता है। इसीलिए धर्मशाला और धर्मकांटे से लेकर धर्मराज, धर्मयुद्ध, धर्मपिता और धर्मपत्नी की कल्पना भारत में ही है। क्योंकि धर्म एक सुव्यवस्था है, पूजा पद्धति नहीं।

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फिर हिन्दू क्या है ? मोटे तौर पर भारत में जन्मे और फूले-फले सभी मत, पंथ, सम्प्रदाय आदि का समन्वित रूप ही हिन्दू है। मूर्तिपूजा, वेद, यज्ञ, खानपान आदि के बारे में इनकी अलग धारणाएं हैं। इनके अलग ग्रंथ, अवतार, देवता और पूजा पद्धतियां हैं। जन्म, विवाह और मृत्यु के अलग रिवाज हैं। ये बौद्ध, जैन, सिख, शैव, वैष्णव, कबीरपंथी, उदासी, सतनामी, आर्य समाजी, सनातनी, पौराणिक, नाथपंथी आदि सैकड़ों नामों से जाने जाते हैं। भाषा और क्षेत्र के हिसाब से भी इनके अलग नाम हैं। फिर भी ये सब हिन्दू धर्म के अटूट अंग हैं। इसलिए अपनी परम्परा मानते हुए भी ये दूसरों का सम्मान करते हैं।

दूसरी ओर दुनिया में कई मजहब भी हैं। इनमें ईसाई और इस्लाम प्रमुख हैं। इनमें एक पैगम्बर, एक पुस्तक और एक पूजा पद्धति है। आगे चलकर इनमें भी कई मत, सम्प्रदाय और फिरके बने। मजहब के विस्तार के लिए ये सेवा से लेकर तलवार तक हर उपाय अपनाते हैं। ये दूसरों को ही नहीं, आपस में भी एक-दूसरे को मारते हैं। दोनों विश्व युद्ध मुख्यतः ईसाई देशों में ही हुए और आजकल इस्लामी देशों में मारकाट मची है। आत्मघाती विस्फोटों से मुसलमान अपने भाइयों को ही मार रहे हैं। क्योंकि ये मजहब के अनुयायी हैं, धर्म के नहीं।

धर्म और राजनीति की चर्चा होते ही लोग धर्म का अर्थ पंथ, सम्प्रदाय या मजहब से लगाकर इसका विरोध करने लगते हैं। राजनीति में पंथ, सम्प्रदाय या मजहब की घुसपैठ नहीं होनी चाहिए; पर इसका अर्थ राजनीति का अधार्मिक होना भी नहीं है। भारत में धर्म और राजनीति में सदा समन्वय रहा है। राजा गद्दी पर बैठते समय ‘अदंडोयस्मि’ (मैं अदंडनीय हूं) कहता था। इस पर धर्मगुरु उसके सिर से पलाश की छड़ी लगाकर कहता था ‘धर्म दंडयोसि’ (धर्म तुम्हें सजा दे सकता है।)

अर्थात् धर्म राजनीति से ऊपर था; पर धर्माचार्य राजकाज में दखल नहीं देते थे। वे वनों में रहते थे तथा बहुत जरूरी होने पर ही राजा के पास आते थे। इस प्रकार दोनों में संतुलन बना रहता था; पर ईसाई और इस्लाम मजहबों के उदय और दुनिया जीतने की उनकी चाहत ने इन दोनों में घालमेल कर दिया। मौलवी और पादरियों के कहने पर लाखों निरपराध लोग मार दिये गये या उन्हें जबरन अपने मजहब में लाया गया। भारत और पड़ोसी देशों में जले हुए पुस्तकालय, टूटे हुए मठ, मंदिर और गुरुद्वारे इसके गवाह हैं।

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छठे सिख गुरु हरगोविंदजी ने इस्लामी अत्याचार बढ़ते देखकर अध्यात्म आधारित पंथ को वीर रूप देने के लिए दो तलवारें (मीरी और पीरी) धारण कीं। दसवें गुरु गोविंदसिंहजी ने देश और धर्म की रक्षा के लिए खालसा सजाया। उन्होंने राजनीति को पंथ के आदर्शों पर चलने का निर्देश दिया। काफी समय तक ऐसा हुआ भी; पर फिर पंथ और सत्ता की राजनीति में घालमेल होने लगा। संपूर्ण पंजाब को इससे बहुत कष्ट झेलने पड़े।

जैसे दूध का चीनी से मेल लाभकारी है; पर चीनी जैसी दिखने वाली टाटरी से नहीं। धर्म और राजनीति में भी ऐसा ही संबंध चाहिए। इसमें ऐसे लेखक, शिक्षाविद्, दार्शनिक, समाजसेवी और धर्माचार्यों की भूमिका महत्वपूर्ण है, जिनके मन में स्वयं विधायक, सांसद या मंत्री बनने की आकांक्षा न हो। राजा का संन्यासी होना तो ठीक है; पर संन्यासी का राजा होना नहीं। इसलिए धार्मिक और धर्माधारित राजनीति में अंतर करना होगा।

-विजय कुमार

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