जल संरक्षण के प्रति हम सभी लापरवाह हैं
विडंबना यह है कि जल संरक्षण के तमाम तरीके केवल कागजों पर ही सिमट कर रह गए हैं। शुद्ध पेयजल की अनुपलब्धता और संबंधित ढेरों समस्याओं को जानने के बावजूद आज भी देश की बड़ी आबादी जल संरक्षण के प्रति सचेत नहीं है।
मौजूदा समय में हमारा पर्यावरण जिन प्रमुख समस्याओं से जूझ रहा है, उसमें अथाह रूप से विद्यमान जल संपदा की मात्रा तथा गुणवत्ता में निरंतर ह्रास का होना भी प्रमुखता से शामिल है। चूंकि, जल को इंसानी जीवन के आधार के रूप में देखा जाता है, इसलिए उसकी निर्ममतापूर्वक बर्बादी तथा उसके प्रति सततपोषणीय दृष्टिकोण के न अपनाये जाने के कारण दुनिया का एक बड़ा हिस्सा जल से जुड़े विभिन्न संकटों का सामना कर रहा है। हालांकि, ऐसा नहीं है कि प्रभावित जनसंख्या को जल संसाधन के प्रति अपने उदासीन रवैये का आभास नहीं है। बिल्कुल है, पर वे इस दिशा में किसी भी तरह के सुधार न लाने को आदतन विवश हैं।
दरअसल, जल संरक्षण के प्रति नागरिकों की असंवेदनशीलता ही शुद्ध पेयजल को इंसान की पहुंच से दूर कर रही है। हम सबको पता है और बाकायदा छोटी उम्र से ही हम सुनते आ रहे हैं कि 'जल है तो कल है', बावजूद इसके जल की बूंदों को बेवजह बर्बाद करने का सिलसिला हर स्तर पर बदस्तूर जारी है। यह जानते हुए भी कि पृथ्वी पर 71 फीसदी जल की उपलब्धता के बावजूद उसका अल्पांश यानी मात्र 3 फीसदी हिस्सा ही पीने योग्य है। दूसरी तरफ, यह भी देखा जाता है कि समाज के एक वर्ग विशेष के बीच गर्मी के आगमन के साथ ही जल संरक्षण से संबंधित बातों पर चिंतन शुरू हो जाता है। लेकिन, जैसे ही स्थिति सामान्य होती जाती है, हम भूल जाते हैं कि बहुमूल्य जल के प्रति हमारी क्या जिम्मेदारियां हैं?
हालांकि, यह भूलना कठिनाई भरा होगा कि जानलेवा तपिश और पेयजल संकट के लिहाज से बीता वर्ष 2016 भारतीयों के लिए काफी दुखदायी रहा था। पिछले साल गर्मी के मौसम में देश के एक दर्जन से अधिक राज्य सूखे की चपेट में आ गए थे। सबसे बुरी स्थिति महाराष्ट्र के लातूर, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की संयुक्त सीमा पर स्थित बुंदेलखंड की रही, जहां गर्मी और सूखे ने जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था। तब, देश के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले लोगों के लिए शुद्ध पानी की उपलब्धता सुनिश्चित कराना प्रशासन के लिए एक बड़ी चुनौती साबित हुई थी। यहां तक कि रेलवे के माध्यम से जल भेजने का प्रयास भी नाकाफी साबित हुआ था। गत वर्ष के सूखे ने किसानों की फसलों के एक बड़े हिस्से को बर्बाद कर दिया था। आलम यह था कि देश की एक चौथाई यानी करीबन 33 करोड़ आबादी सूखे की भयंकर चपेट में आकर शुद्ध पेयजल के लिए तरस गई थी। पानी के लिए लोगों की मारामारी देखकर लग रहा था कि आने वाले समय में लोग इसकी एक-एक बूंद का सदुपयोग करेंगे। लेकिन नहीं, 'रात गई बात गई' की तर्ज पर गर्मी का सितम खत्म होते ही हम इस अमूल्य संसाधन के प्रति अपनी जिम्मेदारी से इतिश्री समझने लगे। गर्मी खत्म होने के उपरांत मुश्किल से ही देश के किसी कोने में जल-संरक्षण से संबंधित किसी प्रकार के जागरूकता कार्यक्रम देखने को मिले हों। अगर ईमानदारी से कहा जाए, तो जल संरक्षण के प्रति हम सभी लापरवाह हैं।
जल सृष्टि के निर्माण का आधार है। जल के बिना बेहतर कल की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन, वहीं दूसरी तरफ नगरीकरण और औद्योगीकरण की तीव्र रफ्तार, बढ़ता प्रदूषण तथा जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि के साथ प्रत्येक व्यक्ति के लिए पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित करना प्रशासन व समाज के लिए एक बड़ी चुनौती साबित हुई है। विभिन्न संस्थाओं की रिपोर्टों पर गौर करें, तो वैश्विक तापमान में निरंतर होती वृद्धि और घटते भूजल स्तर से आने वाले पांच-दस सालों में उत्पन्न स्थिति बेकाबू होने वाली है। भारत भी जल संकट की ओर तेजी से बढ़ता जा रहा है और बाकायदा इसके आसार दिखाई भी देने लगे हैं। लोगों की प्यास बुझाने वाली नदियां, ताल-तलैया, एवं जल के अन्य स्रोत स्वयं ही प्यासे होते जा रहे हैं। इधर, संयुक्त राष्ट्र ने भी इस बात पर मुहर लगा दी है कि वर्ष 2025 तक भारत में जल-त्रासदी उत्पन्न होगी। ऐसे में, जल संरक्षण के आसान तरीकों को अपना कर असमय दस्तक दे रहे इस आपदा से जूझने की तैयारी कर उसके प्रभावों को कम से कम करने का प्रयास किया जाना ही मानवता के हित में है।
विडंबना यह है कि जल संरक्षण के तमाम तरीके केवल कागजों पर ही सिमट कर रह गए हैं। शुद्ध पेयजल की अनुपलब्धता और संबंधित ढेरों समस्याओं को जानने के बावजूद आज भी देश की बड़ी आबादी जल संरक्षण के प्रति सचेत नहीं है। जहां, लोगों को मुश्किल से पानी मिलता है, वहां लोग जल की महत्ता को समझ रहे हैं, लेकिन जिसे अबाध व बिना किसी परेशानी के जल मिल रहा है, वे ही इसके प्रति बेपरवाह नजर आ रहे हैं। गर्मी के दिनों में जल संकट की खबरें लोगों को काफी पीड़ा प्रदान करती हैं और हालात यह हो जाते हैं कि जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा पानी की बूंद-बूंद के लिए तरस रहा होता है। सिर्फ यही नहीं, मानव के साथ-साथ पशु-पक्षियों के लिए भी वैसा समय काफी कष्टकर हो जाता है। कभी-कभी हालात इतने भयावह हो जाते हैं कि पेयजल उपलब्ध कराते समय कानून और प्रशासन की मदद लेनी पड़ती है। गत वर्ष, हमने देखा था कि पेयजल संकट से जूझ रहे महाराष्ट्र के लातूर क्षेत्र में मचे हाहाकार के बीच टैंकर से जल उपलब्ध कराते समय धारा 144 लगाने की जरूरत आ पड़ी थी।
विगत कुछ वर्षों में नदी, तालाब, कुंआ सहित चापानल के जलस्तर में बड़े अंतर की गिरावट देखी गयी है। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि एक दशक पहले चापानल हेतु केवल 50 से 60 फीट की खुदाई से पानी प्राप्त हो जाता था, लेकिन आज 150 से 200 फीट की खुदाई के बाद भी पानी का स्रोत बमुश्किल ही मिलता है। पेयजल के असमान वितरण के कारण हमारे देश के कुछ हिस्सों में लोगों को दूषित जल पीने की विवशता भी है। प्रदूषित जल में आर्सेनिक, लौहांस आदि की मात्रा अधिक होती है, जिसे पीने से तमाम तरह की स्वास्थ्य संबंधी व्याधियां उत्पन्न हो जाती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अध्ययन के अनुसार दुनिया भर में 86 फीसदी से अधिक बीमारियों का कारण असुरक्षित व दूषित पेयजल है। जबकि, विश्व में 1.10 अरब लोग दूषित पेयजल पीने को मजबूर हैं और साफ पानी के बगैर अपना गुजारा कर रहे हैं।
जल संकट से संबंधित भयावह दृश्य मीडिया जगत में समय-समय पर प्रसारित होते रहते हैं, जो हमें बताने की कोशिश करते हैं कि जल की बूंदों को सहेजने की बजाय उसे बेवजह बर्बाद करने से भविष्य में किस तरह की त्रासदी उत्पन्न हो सकती है। वैज्ञानिकों व विद्वानों का एक तबका तो अभी से ही मान रहा है कि अगला विश्व युद्ध जल के लिए ही होगा, क्योंकि वर्तमान समय में विश्व के अनेक देश पेयजल संकट से जूझ रहे हैं। संकट की यही स्थिति, दो देशों या दो राज्यों के बीच एक-दूसरे से टकराव का कारण बन रही है। गौरतलब है कि कावेरी नदी जल मुद्दे पर तमिलनाडु और कर्नाटक राज्य कई हिंसक घटनाओं का गवाह बन चुके हैं। दूसरी तरफ, सिंधु जल समझौते पर अभी भी दो पड़ोसी मुल्क भारत व पाकिस्तान के बीच रार है। इसके अलावा, बोलीविया, उरुग्वे, फिलीपींस, कोलंबिया और जकार्ता जैसे देशों में पानी को लेकर बड़े-बड़े प्रदर्शन होते रहते हैं।
शुद्ध पेयजल के अभाव के कारण बोतलबंद पानी का व्यापार भी धड़ल्ले से चल रहा है। उपभोक्ताओं की आवश्यकता और मजबूरी का फायदा उठाकर प्यूरीफाइड जल की जगह नकली बोतलबंद पानी भी खूब बेचे जा रहे हैं और यकीनन बिक भी रहे हैं। दुर्भाग्य यह है कि सब कुछ जानने-समझने के बाद भी लोग जल संसाधन के संरक्षण के प्रति अपनी निष्क्रियता का परिचय दे रहे हैं। आज भी, शहरों में फर्श चमकाने, गाड़ी धोने और गैर-जरूरी कार्यों में पानी को निर्ममतापूर्वक बहाया जाता है। पढ़े-लिखे लोगों से आशा की जाती है कि कम-से-कम वे इस संदर्भ में समाज में एक मानक स्थापित करें, लेकिन विडंबना यह है कि वे ही अपने दायित्वों से बेपरवाह नजर आते हैं।
दुख तो इस बात का भी है कि पानी का महत्व हम तभी समझते हैं, जब लंबे समय तक पानी की सप्लाई नहीं होती या 15 से 20 रुपये देकर एक बोतल पानी लेने की जरूरत पड़ती है। पैसा खर्च कर पानी पीते समय, उसकी एक-एक बूंद महत्वपूर्ण लगने लगती है, लेकिन फिर यह वैचारिकी तब धूमिल पड़ने लगती है, जब पुनः हमें बड़ी मात्रा में पानी मिलने लगता है। सवाल यह है कि जल संरक्षण के प्रति हम गंभीर क्यों नहीं हैं? भलाई इसी में है कि हम सब जल की बूंदों को बेवजह बर्बाद करने संबंधी अपनी गतिविधियों को नियंत्रित कर जल संरक्षण के प्रति अपने आस पड़ोस के लोगों को भी जागरूक करें।
सुधीर कुमार
(लेखक, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में अध्ययनरत हैं)
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