धरना प्रदर्शनों के विरुद्ध कमलनाथ सरकार की कार्रवाई लोकतंत्र के हित में नहीं

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लोकतन्त्र में जनता के मुद्दों को लेकर संघर्ष करना एक अनिवार्य तत्व है। 70 साल बाद भी हमारे तंत्र में मौजूद अफसरशाही औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर आने के लिये तैयार नहीं है, सुरेंद्र नाथ सिंह के मामले में यही मानसिकता प्रदर्शित हुई है।

बीजेपी के पूर्व विधायक श्री सुरेंद्र नाथ सिंह के पक्ष में खड़े होकर मध्य प्रदेश के जनसंपर्क मंत्री श्री पीसी शर्मा और विधायक श्री कुणाल चौधरी ने अभिनंदनीय कार्य किया है। स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिये ये स्टैंड जितना सराहनीय है उतना ही मप्र शासन के लिये शर्मनाक पहलू है। लगे हाथ सुरेंद्र नाथ सिंह की पार्टी के लिये भी विचारण को विवश करने वाला घटनाक्रम है कि क्यों पार्टी उनके साथ खड़ी नहीं हुई? जबकि उन्होंने जनता के लिये भोपाल की सड़कों पर संघर्ष किया था, बीजेपी के झंडे लेकर लोगों को एकत्रित किया था। बावजूद इसके मप्र में किसी बीजेपी नेता ने सुरेंद्र नाथ सिंह के साथ खड़े होने की हिम्मत नहीं दिखाई। तो क्या यह माना जाए कि सुरेंद्र नाथ के साथ मप्र बीजेपी नहीं है और आंदोलन करने के उनके कृत्य को बीजेपी गलत मानती है? उनके विरुद्ध भोपाल पुलिस ने 23 लाख का जुर्माना ठोंका है लेकिन अभी तक बीजेपी ने कमलनाथ सरकार की आलोचना तक नहीं की है।

लोकतन्त्र में जनता के मुद्दों को लेकर संघर्ष करना एक अनिवार्य तत्व है। 70 साल बाद भी हमारे तंत्र में मौजूद अफसरशाही औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर आने के लिये तैयार नहीं है, सुरेंद्र नाथ सिंह के मामले में यही मानसिकता प्रदर्शित हुई है। पुलिस ने 23 लाख का जुर्माना इसलिये लगाया क्योंकि धरना प्रदर्शन पर पुलिस को अपने कर्मचारियों को अलग से ड्यूटी पर लगाना पड़ा और उन कर्मचारियों की एक दिन की तनख्वाह 23 लाख ठहरती है। सुरेंद्र नाथ पर बगैर अनुमति धरना प्रदर्शन का आपराधिक प्रकरण अलग से बनाया गया। यहां प्रश्न यह भी है कि क्या किसी अपराध की आर्थिक कीमत आंकने की शक्तियां मप्र पुलिस के पास हैं? अगर अपराध के विरुद्ध जुर्माने की कार्रवाई कर दी गई तो फिर आईपीसी की धाराओं में मुकदमे का औचित्य क्या है?

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प्रश्न यह भी है कि क्या सुरेंद्र नाथ ने किसी निजी उद्देश्य से यह अपराध किया? क्या जन समस्याओं को लेकर आवाज उठाना हिंदुस्तानी जम्हूरियत में अपराध की श्रेणी में ला दिया गया है? यह विचारणीय सरकार के स्तर पर इसलिये भी है क्योंकि जिस दिन मप्र पुलिस यह कार्रवाई कर रही थी उसी दिन राहुल गांधी श्रीनगर में लोकतंत्र की रक्षा की दुहाई दे रहे थे पिछले 5 सालों से वह लगातार प्रधानमंत्री मोदी पर विपक्ष की आवाज दबाने का आरोप लगाते रहे हैं। अच्छा हुआ मप्र सरकार के जनसंपर्क मंत्री पीसी शर्मा और विधायक कुणाल चौधरी ने सरकार की इस कार्रवाई का सार्वजनिक विरोध कर अफसरशाही की औपनिवेशिक मानसिकता पर करारा प्रहार कर दिया। पीसी शर्मा मप्र में 15 वर्षों तक भोपाल में ऐसे अनेक आंदोलन कर चुके हैं। युवक कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में कुणाल चौधरी भी सड़कों पर सरकार को घेरते रहे हैं इसलिये दोनों ने बगैर सरकार की परवाह किये सुरेंद्र नाथ सिंह के साथ खड़े होने का साहस दिखाया है। इस प्रकरण में बीजेपी का रवैया मप्र में उसकी संघर्ष क्षमताओं को प्रश्नचिन्हित कर गया क्योंकि इस मामले को लेकर उसे सरकार की घेराबंदी करनी चाहिये थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कांग्रेस के इन दो नेताओं ने न केवल अफसरशाही को आइना दिखा दिया बल्कि बीजेपी के लिये भी रक्षात्मक स्थिति में ला दिया।

असल में केवल लोकतांत्रिक नजरिये से इस घटनाक्रम को देखने और समझने की जरूरत है कि कैसे आज भी अफसर सरकारों के शिखर पर बैठे लोगों को शीर्षासन कराते रहते हैं। मप्र के मुख्यमंत्री कमलनाथ सुदीर्घ राजनीतिक अनुभव वाले शख्स हैं लेकिन मप्र की सियासत में वे दिग्विजय सिंह जैसे संगठन और संघर्ष से तप कर नहीं निकले हैं। इस मामले में अफसरशाही ने जिस तरह कमलनाथ की भी किरकिरी कराई है वह सरकार के स्तर पर सोचने का गंभीर विषय है। आज भी मप्र कांग्रेस और बीजेपी में लगभग सभी सफल नेता छात्र जीवन से निकल कर आये हैं उनके पास संघर्ष का तजुर्बा है इसलिये इस मामले को सतही तौर पर सिर्फ सुरेंद्र नाथ प्रकरण मानकर नहीं लेना चाहिये बल्कि मप्र में अफसरशाही के लगातार निरंकुश होने की प्रवृत्ति की गंभीर चुनौती के रूप में समझने और निबटने की संयुक्त रणनीति पर काम करने की आवश्यकता के हिसाब से लेने की जरूरत है।

यह एक तथ्य है कि वर्तमान प्रदेश सरकार के अधिकतर मंत्री अपने अफसरों की असुनवाई से पीड़ित हैं। प्रदेश सरकार में नम्बर दो की हैसियत रखने वाले सामान्य प्रशासन मंत्री डॉ. गोविंद सिंह पिछले दिनों अवैध उत्खनन को लेकर मुख्यमंत्री को खुला खत लिख चुके हैं। उन्होंने जनता से सार्वजनिक माफी मांगी है क्योंकि वे 15 साल तक जिस तरह इस मामले को लेकर बीजेपी सरकार को आरोपित करते थे, अपनी सरकार आने और मन्त्री होने के बावजूद स्थितियों में कोई बदलाव नहीं करा पाए। सीहोर जिले में राजस्व मंत्री गोविन्द सिंह राजपूत ने लगातार शिकायतों पर कार्रवाई की तो प्रदेश भर के अफसर उनके विरूद्ध उठ खड़े हो गए।

छह बार विधायक रहे केपी सिंह भी कुछ इसी तर्ज पर तंत्र के विरुद्ध अपनी नाराजगी व्यक्त कर चुके हैं। मप्र विधानसभा के पिछले दोनों सत्रों की कार्रवाई का अवलोकन किया जाए तो साफ है कि कैसे मंत्रियों से जवाब दिलाये गए जिनसे सरकार में आई कांग्रेस को शर्मिंदगी झेलनी पड़ी। जिस मंदसौर गोलीकांड को लेकर कांग्रेस ने पूरे प्रदेश में बीजेपी सरकार के खिलाफ माहौल बनाया उसे लेकर विधानसभा पटल पर ही कांग्रेस सरकार पलट गई। कहा जा सकता है कि सरकार के मंत्रियों को जवाब पढ़ने ही थे लेकिन जवाब बनाने का काम तो अफसरशाही ही करती है। 45 दिन पुराने मंत्रियों से हम ये अपेक्षा नहीं कर सकते कि वे विधायी कार्य मे इतने निपुण हों। ऐसे अनेक मामले हैं जहां मप्र सरकार के विधानसभा में जवाब खुद काँग्रेस पार्टी की अधिकृत लाइनों से परे जाकर पूर्ववर्ती बीजेपी सरकार की नीतियों और निर्णयों की वकालत करते हुए दस्तावेजी ध्वनि करते दिखे। ऐसा नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस सरकार ही अफसरी रवैये से परेशान हो, बीजेपी सरकार के अंतिम कार्यकाल को अफसरी सरकार कहा जाता था पार्टी के अधिकतर कार्यकर्ता इस हद तक नाराज थे कि उन्होंने भोपाल जाना तक छोड़ दिया था। मुख्यमंत्री कार्यालय में जिस प्रमुख सचिव से लगभग सभी विधायक नाराज रहते थे उसे कमलनाथ ने भी उसी हैसियत से बरकरार रखा। शिवराज सरकार के आखिरी तीन सालों में जिलों में कोई ट्रांसफर तक कार्यकर्ताओं के कहने पर नहीं हुए।

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सच्चाई यह है कि अफसरशाही सदैव इस मानसिकता में रहती है कि हर दल के निर्वाचित प्रतिनिधियों को इस बात का अहसास कराया जाता रहे कि वे विधि के जानकार हैं और नेताओं को कुछ नहीं आता है वे अकसर मंत्रियों को भय दिखाते रहते हैं कि नियमों में ऐसा नहीं है लेकिन जब मामला अपने से जुड़ा हो तो यही अफसर नियमों को खूंटी पर टांग देते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि अफसर न तो जनता के प्रति जवाबदेह होते है न ही उनकी मनोवृत्ति समस्याओं के निराकरण में रहती है। मप्र में हर मंगलवार हर सरकारी अफसर को अपने दफ्तर में जनसुनवाई लगानी होती है लेकिन हकीकत यह है कि जिला मुख्यालय पर कलेक्टर की जनसुनवाई में बेतहाशा भीड़ उमड़ती है, जाहिर है जिले में नीचे के दफ्तरों में जनता की कोई सुनवाई नहीं हो रही है इसीलिए लोग न्याय की आशा में कलेक्टर के यहां गुहार लेकर आते हैं। स्वतंत्र अध्ययन कर इस जनसुनवाई को आधार बनाकर ही मप्र में अफसरशाही की संवेदनशीलता, जनोन्मुखी सोच और तत्परता को बढ़ाया जा सकता है।

जाहिर है अफसरशाही का जड़तावाद, कदाचरण और अहंकार के साथ अनुत्तरदायित्व आज हमारे लोकतंत्र के लिये एक खतरनाक चुनौती के रूप में सामने खड़ा है। सुरेंद्र नाथ सिंह का प्रकरण मप्र में इस साझी चुनौती के रूप में स्वीकार की जानी चाहिये।

-डॉ. अजय खेमरिया

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