हमारी जीवनशैली में मूल्यों की अहमियत क्यों घटती जा रही है ?

Acharya Shri Mahashraman
ललित गर्ग । Mar 3 2021 5:39PM

कोरोना महामारी से अस्त-व्यस्त हुए जीवन में हर व्यक्ति अपने जीवन की विसंगतियों एवं विडम्बनाओं को लेकर आत्ममंथन कर रहा है, कोरोना की त्रासदी ने इंसान को अपने जीवन मूल्यों और जीवनशैली पर पुनर्चिंतन करने को मजबूर किया है।

''अणुव्रत-मिशन'' की 72 वर्षों की एक ‘युग यात्रा’ नैतिक प्रतिष्ठा का एक अभियान है। परिवर्तन जीवन का शाश्वत नियम है, प्रगति एवं विकास का यह सशक्त माध्यम है। जीवन का यही आनन्द है, यह जीवन की प्रक्रिया है, नहीं तो जीवन, जीवन नहीं है। टूटना और बनना परिवर्तन की चौखट पर शुरू हो जाता है। नये विचार उगते हैं। नई व्यवस्थाएं जन्म लेती हैं एवं नई शैलियां, नई अपेक्षाएं पैदा हो जाती हैं। अब जब भारत नया बनने के लिए, स्वर्णिम बनने के लिए और अनूठा बनने के लिए तत्पर है, तब एक बड़ा सवाल भी खड़ा है कि हमें नया भारत कैसा बनाना है? ऐसा करते हुए हमें यह भी देखना है कि हम इंसान कितने बने हैं? हममें इंसानियत कितनी आई है? हमारी जीवनशैली में मूल्यों की क्या अहमियत है? यह एक बड़ा सवाल है। बेशक हम नये शहर बनाने, नई सड़कें बनाने, नये कल-कारखाने खोलने, नई तकनीक लाने, नई शासन-व्यवस्था बनाने के लिए तत्पर हैं लेकिन मूल प्रश्न है नया इंसान कौन बनायेगा?

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अणुव्रत आंदोलन अपनी स्थापना से लेकर अब तक इसी प्रयास में रहा कि इंसान इंसान बने, विकास के साथ-साथ हम विवेक को कायम रखें, नैतिक मूल्यों को जीवन का आधार बनाएं। जिस प्रकार गांधीजी ने ‘मेरे सपनों का भारत’ पुस्तक लिखी, वैसे ही अणुव्रत आन्दोलन के संस्थापक आचार्य तुलसी ने मेरे सपनों का हिन्दुस्तान एक प्रारूप प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने गरीबी, धार्मिक संघर्ष, राजनीतिक अपराधीकरण, अस्पृश्यता, नशे की प्रवृत्ति, मिलावट, रिश्वतखोरी, शोषण, दहेज और वोटों की खरीद-फरोख्त को विध्वंस का कारण माना। उन्होंने स्टैंडर्ड ऑफ लाइफ के नाम पर भौतिकवाद, सुविधावाद और अपसंस्कारों का जो समावेश हिन्दुस्तानी जीवनशैली में हुआ है उसे उन्होंने हिमालयी भूल के रूप में व्यक्त किया है। आचार्य श्री महाश्रमण इसी भूल को सुधारने के लिए व्यापक प्रयत्न कर रहे हैं। अणुव्रत का स्थापना दिवस- 1 मार्च, 2021 को एक नई एवं आदर्श जीवनशैली को लेकर प्रस्तुत हुआ। कोरोना महामारी से अस्त-व्यस्त हुए जीवन में हर व्यक्ति अपने जीवन की विसंगतियों एवं विडम्बनाओं को लेकर आत्ममंथन कर रहा है, कोरोना की त्रासदी ने इंसान को अपने जीवन मूल्यों और जीवनशैली पर पुनर्चिंतन करने को मजबूर किया है। इसी बदलाव की चौखट पर अणुव्रत आन्दोलन एक ऐसी जीवनशैली की स्थापना के लिये तत्पर है, जिसे अपना कर मानवमात्र स्व-कल्याण से लेकर विश्व कल्याण की भावना को चरितार्थ करने में सक्षम हो सकेगा। 

जीवन के त्रासदियों एवं कमियों के परिमार्जित करने का एक सफल एवं सार्थक उपक्रम है अणुव्रत। यह नये भारत को बनाने के हमारे संकल्प-सपने क्या-क्या हो, इसकी एक बानगी प्रस्तुत करता है। कहते हैं कि सपने पूरे करने के लिये उन्हें देखना जरूरी है। अणुव्रत आन्दोलन आदर्श जीवन का एक संकल्प है, एक संरचना है, एक सपना है। जिसे आधार बनाकर स्वर्णिम भारत बनाना है। लेकिन हम भारतीयों का यह दुर्भाग्य है कि हमने सपने देखना छोड़ दिया है, हमारे संकल्प बौने होते जा रहे हैं। हम आत्मकेन्द्रित होते जा रहे हैं। ‘जितना है उसी में संतुष्ट’ की सोच अब वैश्विक प्रतिस्पर्धा में हमें पीछे छोड़ रही है। 72 साल पहले देश ने एकजुट होकर एक सपना देखा, वो पूरा भी हुआ। तभी हम आजाद हैं। लेकिन हम आजादी के नशे में जरूरी मूल्यों को भूल गये। परिणाम सामने है, हम आजाद होकर भी हमारे बाद आजाद हुए राष्ट्रों की तुलना में पीछे हैं, समस्याग्रस्त हैं, अपसंस्कृति के शिकार हैं, आलसी हैं, अनैतिक हैं, भ्रष्ट हैं। फिर वक्त सपने देखने का आ चुका है। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देशवासियों से ‘नये भारत-सशक्त भारत- आत्मनिर्भर भारत, सपनों का भारत’ के निर्माण का आह्वान कर रहे हैं, वहीं अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य महाश्रमण ‘मूल्यों का भारत-स्वर्णिम भारत’ निर्मित करने के लिये पांव-पांव चल कर नैतिक शक्तियों को बल दे रहे हैं। एक स्वर्णिम भारत के लिए नैतिक मूल्य बुनियादी आवश्यकता है।

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बहत्तर वर्षों पूर्व दिल्ली के चांदनी चौक में अणुव्रत का एक ऐतिहासिक अधिवेशन हुआ, तब अणुव्रत अचरज की चीज थी। अणुव्रत अनुशास्ता से राष्ट्र का नया परिचय था। आज उस रूप में अणुव्रत बुजुर्ग है। अणुव्रत अनुशास्ता नैतिक जगत के शिखर पुरुष हैं। उस समय के विषय थे- काला बाजार, मिलावट....। आज के विषय हैं काला धन, भ्रष्टाचार, लोकतंत्र शुद्धि, चुनाव शुद्धि, शिक्षा में सुधार.....। बुराइयां रूप बदल-बदल कर नये मुखौटे लगाकर आती हैं, जिन्हें शांति व अहिंसा प्रिय नागरिकों को भुगतना पड़ता है। जूझना पड़ता है। सत्ता के स्तर पर गन्दी राजनीति और व्यवस्था के स्तर पर भ्रष्टाचार एवं पक्षपात ने हमारे राष्ट्रीय जीवन के नैतिक मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है। राष्ट्रीय विकास के केन्द्र में व्यक्ति नहीं होगा तो सब कुछ नष्ट हो जाएगा। अणुव्रत का दर्शन है कि लोक सुधरेगा तो तंत्र सुधरेगा। व्यक्ति का रूपांतरण होगा तो समाज का रूपांतरण होगा।

अणुव्रत आंदोलन विचार क्रांति के साथ-साथ राष्ट्र क्रांति का मंच है। जब भी राष्ट्र में नैतिक मूल्य धुंधलाने लगे, अणुव्रत आन्दोलन ने एक दीप जलाया। यह दीप मानव संस्कृति का आधार है और दीप का आधार है नैतिक मूल्य, अन्धकार से प्रकाश की यात्रा, असत्य पर सत्य की स्थापना, निराशाओं में आशाओं का संचार। अणुव्रत ऐसी ही सार्थक यात्रा है और इस यात्रा के दौरान ही मनुष्य अपने ‘स्व’, ‘पर’ और प्रकृति को गंभीरता से ले पाता है। इस चेतना के बाद ही वह समझ सकता है कि मनुष्य की वैयक्तिकता और सामाजिकता एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। तभी वह सही अर्थों में इंसान हो पाता है। वह इंसान जिसके बारे में गालिब ने बड़ी कसक के साथ कहा था, ‘आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना।’

भारत एक बड़ी पुरानी सभ्यता रहा है और उसकी अपनी समृद्ध संस्कृति है। हमारे विकास का मॉडल उसी बिन्दु से शुरू करना चाहिए, लेकिन हम अपनी जड़ों से कटकर, अपने संस्कारों से विलग होकर, इतिहास के शून्य में खड़े होते रहे हैं। अब स्वर्णिम भारत को आकार देते हुए हमें इस पर विचार करना चाहिए कि वे कौन-सी दरारें थीं जो हमारे सामाजिक ढांचे को खोखला बनाती रहीं, जीवनबोध में वह कैसा ठहराव था कि हम, जिन्हें संसार में सर्वोपरि होना था, सबसे पीछे रह गये। हमारा जीवन जिन नैतिक आधारों के आसपास बसता है, उन्हें ठीक से समझना और ठीक से बरतना ही जीवन में वास्तविक रूपान्तरण पैदा कर सकता है- व्यक्ति के भी और राष्ट्र के भी। यहीं स्वर्णिमता के नये अर्थ खुलते हैं, यहीं संस्कृति के जीवंत अध्यायों की पुनर्रचना की संभावना पैदा होती है। यहीं मानव जीवन की गरिमा का वास्तविक आधार बनता है। और यहीं कही एक सूर्योदय है। वरना हांकने को तो कुछ भी हांका जा सकता है और नैतिकता को हांकना तो बहुत आसान है, पर यह आत्मक्षय का ही मार्ग प्रशस्त करता है।

अणुव्रत स्थापना दिवस शाश्वत से साक्षात् और सामयिक सत्य को देखने, अनुभव करने का एक विनम्र प्रयास है। आत्म-प्रेरित नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा का संयुक्त अभियान है। महानता की दिशा में गति का प्रस्थान है। सपने एवं संकल्प सदैव आशावादी होते हैं। पर वर्तमान से कोई कभी सन्तुष्ट नहीं होता। इतिहास कभी भी अपने आप को समग्रता से नहीं दोहराता। अपने जीवित अतीत और मृत वर्तमान के अन्तर का ज्ञान जिस दिन देशवासियों को हो जाएगा, उसी दिन हमें मालूम होगा कि महानता क्या है। हम स्वर्ग को जमीन पर नहीं उतार सकते, पर बुराइयों से तो लड़ अवश्य सकते हैं, इस लोकभावना को जगाना होगा, यही अणुव्रत का मिशन है। महानता की लोरियाँ गाने से किसी राष्ट्र का भाग्य नहीं बदलता, बल्कि तंद्रा आती है। इसे तो जगाना होगा, भैरवी गाकर। महानता को सिर्फ छूने का प्रयास जिसने किया वह स्वयं बौना हो गया और जिसने संकल्पित होकर स्वयं को ऊंचा उठाया, महानता उसके लिए स्वयं झुकी है।

हमें गुलाम बनाने वाले सदैव विदेशी नहीं होते। अपने ही समाज का एक वर्ग दूसरे को गुलाम बनाता है- शोषण करता है, भ्रष्ट बनाता है। उस राष्ट्र की कल्पना करें, जहां कोई नागरिक इतना अमीर नहीं हो कि वह किसी गरीब को खरीद सके अथवा कोई इतना निर्धन नहीं हो कि स्वयं को बिकने के लिए बाध्य होना पड़े। मैं न खाऊंगा और न खाने दूंगा- यही हो सकता है स्वर्णिम राष्ट्र का आधार। आज जिन माध्यमों, महापुरुषों, मंचों से नैतिकता मुखर हो रही है, वे बहुत सीमित हैं। अणुव्रत ने इन शक्तियों को खड़ा किया है। आचार्य श्री तुलसी, आचार्य श्री महाप्रज्ञ की परम्परा को आचार्य श्री महाश्रमण आगे बढ़ा रहे हैं। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने अणुव्रत को बहुत बल दिया है। अगर हम ऊपर उठकर देखें तो दुनिया में अच्छाई और बुराई अलग-अलग दिखाई देगी। भ्रष्टाचार के भयानक विस्तार में भी नैतिकता स्पष्ट अलग दिखाई देगी। आवश्यकता है कि नैतिकता की धवलता अपना प्रभाव उत्पन्न करे और उसे कोई दूषित न कर पाये। इस आवाज को उठाने के लिए ''अणुव्रत'' सदा ही माध्यम बना है। नैतिकता का प्रबल पक्षधर बना है।

-ललित गर्ग

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