मैसूर और कुल्लू ही नहीं, कोटा का भी दशहरा मेला अनूठा है

Apart from Mysore and Kullu Dussehra mela of Kota is also unique

राजदरबार का यह काफिला परम्परागत राजशाही वेशभूषा में होता था। लम्बे−लम्बे चौगेनुमा कुर्ते, चुड़ीदार पायजामा, पगड़ी का अनोखा स्टाइल, कामदार जूतियाँ पहने चलता यह जुलूस राजसी आनबान का प्रतीक होता था।

राम की रावण पर विजय के फलस्वरूप भारत में दशहरा मनाने की परम्परा प्राचीन समय से चली आ रही है। अलग−अलग स्थानों पर विविध प्रकार से रावण का दहन किया जाता है। देश में मैसूर एवं कुल्लू के दशहरा के बाद कोटा का दशहरा राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाता है। कोटा के दशहरे की चर्चा करें तो यह 450 वर्षों से भी अधिक प्राचीन उत्सव है जो अपनी परम्पराओं से जुड़ा हुआ है। राव माधोसिंह जो कोटा के प्रथम शासक थे, ने रावण वध की परम्परा प्रारम्भ की एवं 1892 में राव उम्मेद सिंह के समय मेले की परम्परा इसमें जोड़ी गई। दशहरे मेले का 100वां वर्ष 1992 में भव्य ऐतिहासिक कार्यक्रमों के साथ आयोजित किया गया।

रियासत कालीन दशहरे की परम्पराओं को देखें तो दशहरा पर्व का प्रारम्भ नवरात्रा के प्रथम दिन से शुरू हो जाता था। पंचमी को महाराव स्वयं अपने बन्धु बांधवों सहित पूजा हेतु मंदिर जाते थे। छटी के दिन गढ़ में रस्म पूरी की जाती थी। सप्तमी के दिन करणी माता एवं कालेष्वर की पूजा हेतु नाव में सवार हो चम्बल के उस पार जाते थे। इसे करणी माता सवारी के नाम से भी उस समय कहा जाता था। अष्टमी को हवन किया जाता था। नवमी को आशापुरी देवी की सवारी का आयोजन होता था। इसे खाड़ा की सवारी के नाम से जाना जाता था। इसमें महाराव के हाथी के आगे दुशाले से सजी सफेद गाय चलती थी।

दशमी के दिन प्रातः भव्य सवारी निकल कर रंगबाड़ी मंदिर में जाती थी, वहां बालाजी के पूजन के पश्चात् दोपहर तक वापस महलों में लौट जाती थी। लौटने पर गढ़ के सामने रेतवाली चौक पर मेला लगता था। रावध वध के लिये शाम को गढ़ महल से सवारी निकलती थी, जिसमें महाराव हाथी पर छत्रयुक्त होदे के सिंहासन पर बैठकर रावण वध हेतु जाते थे। साथ में सेना नायकों व सेना की विविध टुकड़ियाँ घोड़ों पर व पैदल होते थे। नरेश के दोनों और चंवर ढुलाने वाले चलते थे।

राजदरबार का यह काफिला परम्परागत राजशाही वेशभूषा में होता था। लम्बे−लम्बे चौगेनुमा कुर्ते, चुड़ीदार पायजामा, पगड़ी का अनोखा स्टाइल, कामदार जूतियाँ पहने चलता यह जुलूस राजसी आनबान का प्रतीक होता था। जुलूस के रवाना होने पर महल के बुर्ज एवं लंका क्षेत्र में रखी तोपों से गोले दागे जाते थे। यह जुलूस शहर के प्रमुख भागों से होकर रावण वध स्थल पर पहुँचता था। यहाँ पर बनी लंकापुरी के द्वार पर तोरण होता था तथ रावण, मेघनाथ व कुम्भकरण के 20, 15, व 10 फुट ऊँचे पुतले बनाये जाते थे। रावण के इन पुतलों में करीब 80 मन लकड़ी का प्रयोग किया जाता था। रावण, मेघनाथ एवं कुम्भकरण के गलों में लोहे के रस्से बंधे रहते थे।

रावण वध के लिये पहले शाही हाथ तोरण गिरता था। फिर रावण व उसके भाईयों की गर्दन में बंधे रस्से को खींच कर उनका सिर धड़ से अलग कर देता था। मिट्टी व घास से बने पुतलों की गर्दन जैसे ही जमीन पर गिर जाती थी वैसे ही तोपों की दनदनाहट से युद्ध विजय का दृश्य उपस्थित किया जाता था, जो प्रतीक होता था रावण पर विजय का।

रियासतकालीन यह परम्पराएं पिछले कुछ वर्षों से रावण दहन के लिए गढ़ चौक से निकलने वाली शोभा यात्रा के साथ जोड़ी जाकर इसे राजसी स्वरूप प्रदान करने का प्रयास किया गया। वर्तमान में गढ़ महल से भगवान लक्ष्मीनाथ शोभायात्रा रावण दहन के लिए संध्याकाल में प्रारम्भ होती है। इसमें राजसी लवाजमा साथ रहता है। रावण दहन स्थल पर पहुँचकर ज्वारे एवं शस्त्रों की पूजा की जाती है। शोभायात्रा में शामिल भगवान राम की सवारी से नायक राम रावण के आकर्षक पुतलों की ओर तीर चलाते हैं। कागज एवं बांस आदि से बना रावण के 70 फीट ऊँचे दस शीश वाले पुतले में आग लगाई जाती है। यह पुतला करीब 10 मिनट तक आतिशबाजी के साथ धूं-धूं कर जल उठता है और इस दृश्य के साक्षी होते हैं चार−पाँच लाख से अधिक लोग। इससे पूर्व कुम्भकरण एवं मेघनाथ के पुतले जलाये जाते हैं।

रावण दहन के साथ ही करीब 20 दिन तक चलने वाले दशहरा मेले में प्रतिदिन सायंकाल मनोरंजन हेतु राष्ट्रीय स्तर के कवि सम्मेलन, मुशायरा, सांस्कृति कार्यक्रम, संगीत संध्या, गजल, सिंधी−पंजाबी कार्यक्रमों के साथ−साथ अन्य विविध कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। मेले के व्यापारिक स्वरूप का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि न केवल राजस्थान वरन् दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, बिहार व मध्य प्रदेश राज्यों से भी व्यापारी अपना माल बेचने के लिए यहां आते हैं। मेले में पुलिस एवं जिला प्रशासन द्वारा सुरक्षा के पुख्ता प्रबन्ध किये जाते हैं। मेले का आयोजन नगर निगम द्वारा किया जाता है। विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की प्रदर्शिनयां भी मेले का आकर्षण होती हैं। मेले में मनोरंजन के लिए विविध प्रकार के झूले एवं सर्कस आदि होते हैं। 

मेले का स्वरूप यद्यपि राष्ट्रीय स्तर का है परन्तु अभी तक इसे सरकारी तौर पर राष्ट्रीय मेला घोषित नहीं किया गया। जरूरत है कि मेले के भव्य स्वरूप को देखते हुए इसे राष्ट्रीय मेला घोषित किया जाए। साथ ही विभिन्न राज्यों के प्रदर्शिनी मंडप लगाये जाने के प्रयास भी जरूरी हैं। पिछले वर्षों में कई विभागों ने अपनी प्रदशर्नियां लगाना बंद कर दिया है, उन्हें फिर से मेले में शामिल किया जाए। मेले को यद्यपि पर्यटन विभाग द्वारा अपने वार्षिक कैलेण्डर में शामिल किया गया है परन्तु इसके बावजूद भी विदेशी सैलानियों को मेले से जोड़ने की आवश्यकता है।

- डॉ. प्रभात कुमार सिंघल

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