भगवान या गवान (व्यंग्य)

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संतोष उत्सुक । Mar 13 2024 3:45PM

पंद्रह साल से चल रहे एक धारावाहिक का एक पुराना एपिसोड देख रहा था। उसमें एक चरित्र लक्की ड्रा स्कीम के सन्दर्भ में भगवान से निवेदन करता है, हे भगवान जैसे कैसे करके बबिताजी के लिए कार निकाल देना।

अपनी साढ़े तीन साल की नातिन के सामने किसी बात पर मैंने कहा, ‘हे! भगवान्’। कुछ देर बाद उसने मेरी ही तरह बोलने की कोशिश की तो उसके मुंह से ‘हे! भगवान्’ की जगह निकला ‘हे! गवान’। ऐसा उसने जानबूझ कर नहीं किया, दरअसल वह ‘भ’ बोल नहीं पाती थी। हम अपने जीवन में भगवान से क्या क्या नहीं कह देते, चाहे मन ही मन, घर के पूजा स्थल या मंदिर में। पिछले दिनों एक फिल्म देखी जिसमें मॉडर्न प्राइवेट कालेज के खुले प्रांगण में भगवान कृष्ण की मूर्ति थी। हीरोइन दिखती है तो भगवान की तरफ से डायलाग आता है इस सुन्दरी का पीछा करो।

पंद्रह साल से चल रहे एक धारावाहिक का एक पुराना एपिसोड देख रहा था। उसमें एक चरित्र लक्की ड्रा स्कीम के सन्दर्भ में भगवान से निवेदन करता है, हे भगवान जैसे कैसे करके बबिताजी के लिए कार निकाल देना। फिर जब जीवन में उसकी अपनी लापरवाहियों की वजह से दिक्कतें आती हैं तो वह भगवान से लड़ने लगता है। अनेक फिल्मों में हीरो, उसके साथ हुए अन्याय के लिए मंदिर पहुंचकर भगवान से लगभग झगड़ पड़ता था। हीरो की मां अपने परिवार के लिए वहां भजन गाती थी। असहाय हीरोइन भी मंदिर पहुंच जाती थी। भगवान की भक्ति के नाम पर कितनी बार फूहड़ हास्य सीन भी रचे गए। फिल्मी सीन काफी बदल गया है अब भगवान को वास्तविक जीवन में ज़्यादा सक्रिय कर लिया गया है।

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भगवान को ऐसा समझ लिया जैसे कक्षा में डेस्क पर साथ बैठने वाले मित्र हों जो हमारे, सही तो क्या गलत काम करवाने में भी मदद कर सकते हों। फ़िल्मी शैली में उनकी पूजा की गई लेकिन भगवान कभी प्रतिक्रिया नहीं देते। राजनीति या समाज में गलत काम करने वाले तो रातों रात पूजास्थलों में पहुंच कर हवन यज्ञ करवा देते हैं। खुद को भगवान का प्रतिनिधि मानने वाले पुजारी के माध्यम से स्वार्थी मन और शरीर के लिए जो चाहे मांग लेते हैं। फिर सार्वजानिक ब्यान देते हैं कि हमने अपने फलां फलां अच्छे सामाजिक कार्य के लिए आशीर्वाद ले लिया है। 

यह पुष्टि कभी नहीं हो पाती कि भगवान ने आशीर्वाद दिया या नहीं। क्या भगवान गलत कर्मों के लिए भी आशीर्वाद देते हैं। भगवान सृष्टि निर्माता हैं, हम प्रकृति विनाशक होते हुए भी खुद को पर्यावरण के रक्षक कहते हैं। जब परिणाम अच्छे नहीं निकलते तो सिर्फ ज़बान से माफी मांगते हुए कहने लगते हैं, ‘हे! गवान हमें माफ़ करना’। हमें भगवान को भगवान कहते हुए भी शर्म आती है। 

- संतोष उत्सुक

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