लोक के तंत्र यंत्र और मंत्र (व्यंग्य)

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लोकतंत्र की गज़ब फैक्ट्री में चुनाव नामक मशीन चलाने के लिए एक से एक दक्ष तकनीक युक्त यंत्र समाहित हैं, जिन्हें बनाने के लिए अति बुद्धिमान, अति महान, अति निष्ठावान, अति चरित्रवान व अति देशभक्त किस्म के प्राणियों द्वारा निर्मित अति कुशल तंत्र हैं जिनमें लाखों राष्ट्रीय मंत्र समाहित हैं।

लोकतंत्र की गज़ब फैक्ट्री में चुनाव नामक मशीन चलाने के लिए एक से एक दक्ष तकनीक युक्त यंत्र समाहित हैं, जिन्हें बनाने के लिए अति बुद्धिमान, अति महान, अति निष्ठावान, अति चरित्रवान व अति देशभक्त किस्म के प्राणियों द्वारा निर्मित अति कुशल तंत्र हैं जिनमें लाखों राष्ट्रीय मंत्र समाहित हैं। आपको ज्यादा अति तो नहीं लग रही? इतने विशाल देश में जिनके अच्छे दिन आने थे आ गए हैं, जिनके नहीं आए उन्होंने भी मानना शुरू कर लिया है कि सब ठीक है। यदि कुछ लोग ऐसा नहीं समझते या मानते या जानते तो किस्मत, भगवान या कंप्यूटर में से किसी को भी आसानी से दोष दे सकते हैं क्योंकि ये तीनों सीधे सीधे रिएक्ट नहीं करते। लेकिन दिल की बात की जाए तो भारतीय लोक के तंत्र, यंत्र, और मंत्र को ज़रूर कुछ हो गया है। क्या हम सीधे सीधे इसे षड्यंत्र कह दें, मगर किसका. क्या यह हमारे महान देश के कर्मठ निर्माताओं का कुतंत्र है या ईमानदार राष्ट्रवादियों द्वारा गलत ढंग से उच्चारित मंत्रों का हश्र है। कहीं यह तकनीकी कुशाग्रता का स्वार्थी यंत्र तो नहीं। कुछ तो है जिसे हम सहज मानने को तैयार नहीं। लोक शब्द के साथ कला, गीत, जीवन, नृत्य, प्रथा या संस्कृति जोड़ दें तो लगता है कुछ सरल, सहज, सौम्य होने की बात हो रही है।

लोक से ही लोकमत, लोकसेवक, लोकहित, लोकनीति जैसे शब्द बनते हैं जिनसे देशभक्ति की सुगंध आती है। काफी लोग कह रहे हैं कि यह शब्द डिक्शनरी में बंद कर दिए गए हैं। कभी न थकने वाले यंत्रों ने तो हमें दुनिया के प्रदूषित शीर्ष पर पहुंचा दिया। लोक के मंत्र किसी ज़माने में पवित्र माने जाते थे वे अब भ्रष्ट मंत्र हैं और अपने अपने हैं। लोकतंत्र को कई ज़बर्दस्त फार्मूलों में तब्दील कर दिया गया है। हर सरकार ‘उन्हीं’ लोकतांत्रिक फार्मूलों पर सालों तक फटाक से सब कुछ हाँकती रहती है और कभी चटाक से फिसल भी जाती है। इन लोकतांत्रिक फार्मूलों को आधार मानकर इतनी दक्षता से काम होता है कि बरसों बाद भी पता नहीं चलता कि हत्यारा कौन है। बेकसूरों को कई साल तक जेल की रोटियां खानी पड़ती हैं कसूरवार पेरोल पर विज्ञापन व ऐश करते हैं। सत्ता जा रही हो तो विशेष फार्मूला प्रयोग होता है। प्रतिष्ठा हासिल हो जाए तो निष्ठाएँ बदल दी जाती हैं अपनी भी और दूसरों की भी। राजनीति, गंधक का वह स्नानागार है जिसमें अत्याधिक असफल, स्वार्थी व सत्ता के रोगी नहाने को बेकरार रहते हैं।

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उन्हें लगता है वक़्त कब भाग्य पलट दे क्या पता। लोकतंत्र के मंत्र के अंतर्गत ही तानाशाह की तरह व्यवहार करने वाले शासक बड़ी शैतानी से व्यंग्यात्मक हंसी हंसने का अभिनय करते हुए कहते हैं, हम तो राजनीति से तानाशाही खत्म करने के लिए ही पैदा हुए हैं। युवा शक्ति को आगे लाने के समर्थक नब्बे वर्ष के राजनेता यह कहकर फार्मूला प्रयोग करते है कि वे अपनी सीट पर कोई रिस्क नहीं लेना चाहते और फिर चुनाव लड़ने को तैयार हो जाते हैं। कभी उदाहरण रहे पुलिस अफसर राजनीति में आकर पहचान की राष्ट्रीय ग़लतफ़हमियां पैदा करते हैं।

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कई खबरें बताती हैं कि कई साहब लालबत्ती उतारने के षड्यंत्र को नापसंद करते हुए निजी फार्मूले के मातहत अभी तक लालबत्ती वाली गाड़ी में घूम रहे हैं। लोकतंत्र के किसी न किसी कोण के अंतर्गत कुछ बंदों को तो माफ़ कर ही सकते हैं। क्या यह सच नहीं कि लाल बत्तियां गाड़ियों से उतरी हैं, दिमागों से नहीं। हर चुनाव के बाद भी स्पष्ट रूप से पता नहीं चलता कि अपनी सफलता व सबकी असफलता के लिए कौन कौन से नए तंत्र यंत्र और मंत्र प्रयोग किए गए हैं।  

- संतोष उत्सुक

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