वो पुरानी नदी (कविता)
कवयित्री प्रेरणा अनमोल की ओर से प्रेषित कविता ''वो पुरानी नदी'' में एक नदी की पीड़ा व्यक्त की गयी है
हिन्दी काव्य मंच 'हिन्दी काव्य संगम' की ओर से प्रेषित कविता 'वो पुरानी नदी' में कवयित्री प्रेरणा अनमोल ने एक नदी की पीड़ा व्यक्त की है।
मैं स्वच्छ सी थी,
द्वेष रहित, कोमल सी
पर थोड़ी मैं अनजान भी
राही कोई खाली न जाता था
तट पर मेरे जो भी आता था
भिन्न हो कर, सबसे परे
मैं बस सुर अपना सजाती थी
बिन माँगें, निस्वार्थ सी
मैं बस बहते जाती थी
मैं रंगों से वाकिफ तो थी
पर हर चेहरे पर यहां
सौ रंग चढ़े मिले
मैं ढलती कैसे हर रंग में
लो देख लो, आज इस जग ने
मुझको हर अंग से बदरंग किया
मैं शुष्क सी, और नीरस हो गई
देखो कैसे सबने मुझको मीठे जल से रसहीन किया
मन के तंग विचार हो
या हो पापों का ढ़ेर
मुझमें फेंक दिया सबकुछ
जैसे हर कचरे का मैं भार सहूं
निर्मलता का ह्रास किया
मेरी विशेषताओं का नाश किया
मैं निष्प्राण सी बेबस हो गई
देखो कैसे सबने मुझको मेरी नवीनता से यूं जीर्ण किया
ना जाने कैसा विष है यहां
घुला हुआ इन फिजाओं में
हर एक वृक्ष ने दम तोड़ा
विश्वास के मेरे किनारों पर
मैं हुई अकेली, निर्बल सी
ना मुझमें कोई जान बची
मेरी हर बूँद-बूँद को सबने
खाली किया, ना मुझमें मेरा अस्तित्व बचा
मैं निरा सी निरूत्तर हो गई
देखो कैसे सबने मुझको शून्य सा निस्सार किया
मेरा देने का स्वभाव था
और सब मुझसे लेते गए
मोल मेरा अनमोल रहा, बस पन्नों पर
घूँट-घूँट मुझको पीते गए
निश्छलता क्या होती है?
ये शब्द पराया लगता है
मेरे त्याग भरे एहसास का
परिहास उड़ाया सबने इस कदर
मैं बंजर सी रिक्त हो गई
देखो कैसे सबने मुझको खालिस जल से तुच्छ किया
मैं दोषों से भरी हूँ अब
ना मुझमें कोई गुण रहा
रंग बदला, स्वरूप बदला
विशुद्धता की बखान बदल गई
वो आए शरण में कुछ इस तरह
हरण और शोषण की पहचान बदल गई
वो बूँदों की चोट, और
मेरी कल-कल करती अट्टहास
कभी तीव्र ध्वनि से
कर्ण सबके भेदेगी
नज़र ना आऊँगी मैं
बस बहते जाऊँगी मैं
पर नया मेरा रूप होगा
पुरानी नदी ना रह जाऊँगी मैं
मैं संतों के चौखट से पातकी का आश्रय बन गई
देखो कैसे सबने मुझको मुझसे ही हर लिया
-प्रेरणा अनमोल
(छपरा, बिहार)
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